ओ३म्
-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
मनुष्य शरीर में एकदेशी, अल्प परिमाण, सूक्ष्म व चेतन आत्मा का निवास होता है। चेतन पदार्थ का गुण-धर्म ज्ञान प्राप्ति व ज्ञानानुरूप कर्मों को करके अपनी उन्नति करना होता है। जीवात्मा व मनुष्य पर यह बात लागू होती है। संसार में जीवात्माओं से भिन्न एक परम सत्ता ईश्वर की भी है जो सत्य, चेतन और आनन्दस्वरूप है। वह ज्ञानवान् एवं सर्वशक्तिमान है। ईश्वर सर्वव्यापक एवं सर्वज्ञ भी है। सर्वज्ञ होने से उसका ज्ञान नित्य व सदा रहने वाला है। उसे ज्ञान प्राप्ति व ज्ञान वृद्धि की आवश्यकता नहीं है। जीवात्मा का मुख्य कार्य ईश्वर को जानना और उसके सर्वज्ञता के ज्ञान से अपनी आत्मा की उन्नति में यथाशक्ति ज्ञान को प्राप्त करना होता है। परमात्मा ने अपना ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न आदि चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद के रूप में दिया था। वह ज्ञान आज भी उपलब्ध एवं सुलभ है। इस वेदज्ञान की हिन्दी व अंग्रेजी भाषाओं में टीकायें भी हमें सुलभ है जिसका श्रेय ऋषि दयानन्द तथा आर्यसमाज को है। यदि यह दोनों न होते तो वर्तमान समय में वेदों का ज्ञान उपलब्ध होता, इसमें सन्देह है। स्वामी दयानन्द जी ने ही विलुप्त वेदों को प्राप्त कर अत्यन्त पुरुषार्थ कर वेद एवं वेदों में निहित ज्ञान को प्राप्त किया था जिसका ज्ञान उनका जीवन चरित्र पढ़कर होता है। उन्होंने वेदभाष्य भी किया है। उनका ऋग्वेद पर आंशिक तथा यजुर्वेद पर सम्पूर्ण वेदभाष्य उपलब्ध है। वेदों का ज्ञान ऐसा ज्ञान है जिससे मनुष्य की भौतिक, सामाजिक, आत्मिक तथा पारलौकिक उन्नति होती है। मनुष्य का वर्तमान जीवन भी सुखों से युक्त होता है तथा मृत्यु होने के बाद उसका पुनर्जन्म श्रेष्ठ मानव योनि में होने के साथ सुख प्राप्ति में भी वह ज्ञान व उसके कर्म सहयोगी एवं मोक्ष प्राप्ति में अग्रसर होते हैं। अतः सभी मनुष्यों को वेदों तथा वेदों पर ऋषियों द्वारा रचे गये ग्रन्थों का अध्ययन कर ईश्वरीय ज्ञान वेद से परिचित होना चाहिये और उसके अनुरूप आचरण कर अपने जीवन को शुद्ध, पवित्र और श्रेष्ठ बनाना चाहिये।
मनुष्य को वेदज्ञान सहित उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदभाष्यभूमिका, संस्कार विधि, रामायण, महाभारत एवं यथासम्भव प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये और उनमें निहित वेदानुकूल ज्ञान को ग्रहण व धारण करना चाहिये। ऐसा करके मनुष्य की शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति होती है। स्वाध्याय करने से हमें यह ज्ञात होता है कि हम कौन व क्या हैं? हम संसार में क्यों आये हैं? हमें क्या करना है और किस लक्ष्य की प्राप्ति करनी है? हमें यहभी ज्ञात होता है कि हमें अपने अनेक पूर्वजन्मों में किये कर्मों को भोगना है और इस जन्म में वेदानुकूल व वेदोक्त कर्मों को करते हुए योग, ध्यान, साधना, यज्ञ एवं उपासना आदि से ईश्वर को प्राप्त होकर उसका साक्षात्कार करना है। ईश्वर के साक्षात्कार के बिना हमें आवागमन से अवकाश नहीं मिल सकता। आवागमन अर्थात् पुनर्जन्म होने पर हमें सुख व दुःख दोनों की प्राप्ति होती रहेगी। यह उत्तम स्थिति नहीं है। उत्तम तथा करणीय स्थिति हमें मोक्ष की प्राप्ति के लिये शास्त्रों व सत्यार्थप्रकाश के नवम् समुल्लास में बताये गये कर्मों व कर्तव्यों का पालन करते हुए जीवन व्यतीत करना है। हमें ऋषि-मुनियों सहित राम, कृष्ण, चाणक्य तथा ऋषि दयानन्द जी को अपना आदर्श बनाना होगा। ऐसा करते हुए हम कल्याण पथ पर आगे बढ़ सकते हैं और भविष्य में होने वाले जन्मों में हम मोक्ष प्राप्ति के लिए अनुकूल परिस्थितियों को प्राप्त हो सकते हैं। यह भी जान लें कि मोक्ष कोई काल्पनिक ध्येय व लक्ष्य नहीं है। मोक्ष को तर्क एवं युक्ति के आधार पर सिद्ध किया जाता है। जो बात वेद, शास्त्र, तर्क, युक्ति एवं आप्त प्रमाणों से सिद्ध होती है वह निःसन्देह सत्य होती है। ऐसा ही सत्य मोक्ष व उसकी प्राप्ति करना भी है। यदि हम स्वाध्याय को पर्याप्त समय देंगे तो इससे हमारे ज्ञान में निरन्त वृद्धि होती रहेगी। इससे हमारा शरीर स्वस्थ एवं आयु भी सामान्य स्थिति में जीवन जीने से कुछ अधिक हो सकती है। हम रोगों से बचे रहेंगे। अतः हमें वैदिक शिक्षाओं का पालन करते हुए स्वाध्याय से युक्त जीवन व्यतीत करने का संकल्प लेकर जीवन व्यतीत करना चाहिये।
हम जब स्वाध्याय की बात करते हैं तो हमें गुरुकुलीय शिक्षा पर भी विचार करना चाहिये। गुरुकुलीय शिक्षा मनुष्य को वेद एवं शास्त्रों के निकट ले जाती है। गुरुकुलीय शिक्षा में दीक्षित होकर हम संस्कृत भाषा व उसके व्याकरण से परिचित हो जाते हैं। ऐसा करके हम वेद, उपनिषद, दर्शन आदि ग्रन्थों को बिना टीका व भाष्यों की सहायता से अध्ययन कर सकते हैं। संस्कृत भाषा का अध्ययन कर मनुष्य को अन्य भाषाओं के ज्ञान की तुलना में सर्वाधिक सुख की प्राप्ति होती है। अतः हमें गुरुकुलीय शिक्षा अथवा जीवन में अन्य कार्यों को करते हुए संस्कृत भाषा के अध्ययन पर भी ध्यान देना चाहिये। यदि हम ऐसा करेंगे तो हमें निश्चय ही लाभ होगा। समाज में ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि जो बिना गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण किये ही आर्यसमाज के बड़े विद्वान बने हैं। हम जब वेद मनीषी पं. गुरुदत्त विद्यार्थी जी के जीवन पर दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि उन्होंने डी.ए.वी, कालेज, लाहौर में भौतिक विद्याओं का अध्ययन किया था। वह एम.ए. फिजिक्स उत्तीर्ण थे। वह पूरे पंजाब में सर्वप्रथम आये थे। आर्यसमाज के सम्पर्क में आने के बाद उन्होंने अपने प्रयत्नों से संस्कृत का अध्ययन किया था। वह ऐसे विद्वान बने जिन्होंने ‘टर्मिनोलोजी आफ वेदाज्’ अर्थात् वैदिक संज्ञा विज्ञान ग्रन्थ लिखा था जिसे आक्सफोर्ड के पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया था। उन्होंने विदेशी विद्वानों की वेद विषयक मान्यताओं की समीक्षा भी की और उनकी मान्यताओं में न्यूनताओं व त्रुटियों पर प्रकाश डाला था। स्वाध्याय की प्रवृत्ति के कारण ही वह मात्र 26 वर्ष की आयु में देश-विदेश में प्रसिद्ध हो गये थे। आज भी उनके ग्रन्थों, लेखों व उनके जीवन चरित को स्वाध्यायशील पाठक रुचि से पढ़ते हैं। जब हम ऋषि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द तथा पं. लेखराम जी आदि महापुरुषों के जीवन पर दृष्टि डालते हैं तो हम पाते हैं इन सबके जीवन में वेद-स्वाध्याय, इतर शास्त्रीय ग्रन्थों के स्वाध्याय व अध्ययन सहित महान पुरुषों की संगति व सत्संग का विशेष योगदान था। स्वाध्याय करते हुए मनुष्य के जीवन से पुरुषार्थ जुड़ ही जाता है। शास्त्रों में स्वाध्याय की महिमा बताते हुए कहा गया है कि स्वाध्याय करने वाले मनुष्य को वह सुख प्राप्त होता है जो पूरी पृथिवी को स्वर्ण आदि मूल्यवान रत्नों से ढक कर दान करने वाले मनुष्य को प्राप्त होता है। इससे स्वाध्याय की महिमा को जाना जा सकता है।
हमने इस संक्षिप्त लेख में स्वाध्याय की महिमा व उससे होने वाले लाभों पर विचार किया है। हम आशा करते हैं कि हमारे बन्धु स्वाध्याय को अपने जीवन का नियमित अंग बनायें। सत्यार्थप्रकाश तथा ऋषि दयानन्द जी के सभी ग्रन्थों का अध्ययन कर उपनिषद, दर्शनों आदि वैदिक वांग्मय का अध्ययन करते हुए वेदों का अध्ययन करेंगे। वैदिक विद्वान स्वामी विद्यानन्द सरस्वती, आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार, पं. शिवशंकर शर्मा काव्यतीर्थ, स्वामी वेदानन्द सरस्वती जी आदि वैदिक विद्वानों के वेदानुकूल ग्रन्थों का अध्ययन करने के साथ यौगिक आचरण करेंगे और अपने जीवन की सर्वांगीण उन्नति करेंगे। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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