अब सूटसेक राज तो दिखाई नहीं पड़ता, इसका मतलब यह नहीं कि वह है नहीं। हो भी सकता है। नहीं भी हो सकता है। लेकिन सूट-बूट राज तो चल ही पड़ा है। मोदी के दस लाख वाले सूट की वजह से जो यह नाम पड़ गया है, वह तो नीलाम हो चुका है लेकिन बंडी सूट की बड़ी बहन है। मोदी की बंडियों ने कमाल कर रखा है। ऐसा लगता है कि भारत का प्रधानमंत्री रोज किसी फैन्सी ड्रेस प्रतियोगिता में से भात लेकर आता है। यानी दिखावा जोरों पर है। घोषणाएं जोरों पर हैं। भाषण जोरों पर हैं लेकिन ठोस नतीजे सामने नहीं आ रहे हैं।
सूट का मतलब दिखावा है और बूट का मतलब तो साफ है। यानि हर काम धक्के से होगा, ताकत से होगा, धड़ल्ले से होगा। किसानों की जमीन ली जाएगी लेकिन उनकी सहमति जरूरी नहीं होगी। जो सिर उठाएगा, उसे बूटों तले रौंद दिया जाएगा। यह प्रवृति संपूर्ण सरकार और पार्टी पर भी छा रही है। बस प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष की आवाज सुनी जा रही है। सिर्फ इन दो सज्जनों के बूट खड़खड़ा रहे हैं। इसका मतलब यह नहीं कि दूसरे नेता चल ही नहीं रहे हैं। वे चल रहें हैं, लेकिन दबे पांव। हालात ऐसे ही बने रहे तो पार्टी और सरकार वास्तव में सूट-बूट वाली ही बन जाएगी। इस धोती-कुर्ते और कूर्ते-पाजामे वाले देश में इस सूट-बूट का चलना मुश्किल हो जाएगा। लोगों ने जैसे सूटकेस सरकार को निकाल फेंका, ऐसे ही वह सूट-बूट सरकार को भी चटाई पर बिठा सकती है। इस देश को सूट-बूट नहीं, सूझ-बूझ की सरकार चाहिए।