इसीलिए साल भर में एक से एक बढ़िया काम करने के बावजूद हमारी विदेश मंत्री ने लगभग मौन व्रत धारण किया हुआ था। इसीलिए वे बोलीं तो मुझे लगा कि यह बहुत अच्छा रहा।लेकिन जो बातें उन्होंने कहीं, उनसे लगता है कि हमारी विदेश नीति बुरी तरह से पिट रही है। जिन दो राष्ट्रों से भारत के संबंध खराब हैं और जिनसे हम कई युद्ध लड़ चुके हैं, उन दोनों, चीन और पाकिस्तान से हमारे संबंध पचास साठ साल पहले जैसे थे, वैसे आज भी हैं। उनमें कौन सा सुधार हुआ? मोदी सरकार ने कौनसा विलक्षण कदम उठाया? दोनों देशों से साल भर में मोदी सरकार वैसी नीति ही चलाती रही, जो पिछली सरकारें चलाती रही है। सुषमा ने साफ-साफ कह दिया कि दक्षिण चीन समुद्र में हम चीन की दादागीरी नहीं मानेंगे। सीमा विवाद पहले से ज्यों का त्यों हैं। याने मोदी और शी की यात्राओं के बावजूद भारत-चीन संबंधों में कोई बुनियादी अंतर नहीं आया है।
नरेंद्र मोदी ने शपथ के समय पड़ौसी देशों (पाक भी) के नेताओं को बुलाकर सराहनीय पहल की था। तब अभिमन्यु चक्रव्यूह में घुस तो गया लेकिन उसे बाहर निकलना नहीं आया। हुर्रियत के बहाने हमारी सरकार ने जो बातचीत तोड़ी तो अब वह रोज़ नए—नए बहाने ढूंढ रही है। किस मुंह से बात चलाए? विदेश सचिव जयशंकर को दक्षेस के बहाने इस्लामाबाद भेजा जरुर लेकिन मोदी की सुई अभी भी टूटी हुई रिकार्ड पर अटकी हुई है। सुषमा ने अन्य देशों में जाकर, पश्चिम एशिया से भारतीयों को बचा लाकर और मोदी ने नेपाल की सहायता करके अद्भुत काम किया है लेकिन ये सब परंपरागत नीति को आगे बढ़ाने और जोरदार ढंग से बढ़ाने के काम है, लेकिन इनमें मौलिकता नहीं है। यह हमारे अफसरों का दिमाग है। हमारी विदेश नीति और प्रतिरक्षा नीति के सबसे संगीन मसलों पर इस सरकार का दिमाग खाली-खट है।