देश के दलित, आर्य समाज और राजनीति
दलितों की राजनीति करने वाले बहुत से दल देश में हैं। इनमें से देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस ने दलितों के नाम पर राजनीति तो की , पर उनके लिए सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध नहीं कराई, जो एक देश के नागरिकों को उपलब्ध होनी चाहिए। कांग्रेस के शासनकाल में देश के दलित समाज के साथ वही कुछ होता रहा जो आजादी से पहले होता रहा था। बसपा जैसी पार्टी तो केवल दलितों की राजनीति के नाम पर ही सत्ता का स्वाद ले चुकी है। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि दलितों के लिए राजनीति करने वालों ने भी उनके कल्याण की योजनाओं को बनाने का काम नहीं किया । बसपा के शासनकाल में दूसरी जातियों के लोगों के साथ कई प्रकार के अत्याचार हुए और दलित समाज के लोगों ने गलत ढंग से प्राथमिकी दर्ज करा कराकर सम्मानित लोगों को अपमानित करने की प्रक्रिया को तेजी से चलाया। जिस पर बसपा की नेता मायावती का भी खुला समर्थन उन्हें मिलता रहा। प्रतिशोध की इस भावना से समाज में लोगों में जातिगत दूरियां बढ़ीं और एक नई विसंगति ने जन्म लिया। जिसके परिणामस्वरूप बसपा को लोगों ने सत्ता से चलता कर दिया।
बसपा ने भी केवल सत्ता स्वार्थ ही देखा और दलितों के कंधों को प्रयोग करके अपनी राजनीतिक स्वार्थपूर्त्ति की। बसपा की नेता मायावती ने भी अपने दलित भाइयों को केवल अपने स्वार्थ के लिए प्रयोग किया। कहने का अभिप्राय है कि वे भी वोट की राजनीति से ऊपर उठ नहीं पाई।
वास्तव में देश में दलित कौन है और दलित होने का लाभ किसको किस आधार पर दिए जा सकता है या दिया जाना चाहिए ?- इस बात पर कभी स्वस्थ चर्चा नहीं हुई। यहां पर जातियों या वर्गों को थोक के भाव दलित शोषित मान लिया गया। यह तब हुआ जब जाति, धर्म, लिंग से आधार पर नागरिकों के मध्य किसी प्रकार का भेदभाव ना करने की बात देश का संविधान करता है। किसी दूसरी जाति के अधिकारों को छीनकर किसी एक को देना भी राजनीतिक जातिवाद है। इस राजनीतिक जातिवाद को हमारे देश में आरक्षण के नाम पर खुल्लमखुल्ला अपनाया गया। देश में जिस प्रकार जातिवाद राजनीतिक स्तर पर दिखाई देता है उसके लिए देश की राजनीति और राजनीतिक दल उत्तरदायी हैं। जहां तक दलित कौन है ? – का प्रश्न है तो प्रत्येक वह व्यक्ति जो किसी ना किसी प्रकार से दलन, दमन और अत्याचार का शिकार हो रहा है उसे दलित कहा जाना चाहिए। ऐसा व्यक्ति किसी जाति विशेष का नहीं हो सकता। वह कोई भी हो सकता है। इसलिए दलित किसी जाति विशेष के साथ जोड़ा जाना उचित नहीं है। प्रत्येक ऐसे व्यक्ति को दलित माना जाना चाहिए जो किसी ना किसी सक्षम, समर्थ और शक्तिशाली व्यक्ति के शोषण और दलन का शिकार है।
यहां यह बताना भी उचित होगा कि हमारे देश में यद्यपि संविधान को सर्वोपरि मानकर राजनीति की जाती है, राजनीतिक दल और उनके नेता अक्सर यह कहते सुने जाते हैं कि संविधान सर्वोपरि है, परंतु यथार्थ में स्थिति दूसरी है। ऐसे कई काम इस देश में हो रहे हैं जो संविधान में कहीं उल्लिखित नहीं हैं । इसके उपरान्त भी देश की राजनीति में वे इस प्रकार स्थान प्राप्त कर चुके हैं जैसे वे पूर्णतः संवैधानिक हों। जैसे राजनीतिक दलों के निर्माण की प्रक्रिया को आप लें। राजनीतिक दलों के निर्माण की प्रक्रिया का उल्लेख देश के संविधान के किसी प्रावधान या अनुच्छेद में नहीं है। इस प्रकार राजनीतिक दलों का जन्म भारत में अवैध संतान के रूप में होता है और फिर वे वैध संतान के रूप में संविधान के नाम पर खाते कमाते हैं।
कहने का अभिप्राय है कि देश के राजनीतिक दल छुट्टा भैंसे की भांति इसलिए आचरण करते हैं कि उनकी कोई संवैधानिक जिम्मेदारी नहीं होती। ये देश में जातिवाद, संप्रदायवाद ,क्षेत्रवाद, भाषावाद आदि को लेकर लोगों को भड़काने और उकसाने का काम करते रहते हैं। जब सत्ता में आ जाते हैं तो देश के संविधान को सर्वोपरि बताने का नाटक करते हैं। यही कारण है कि देश में कई प्रकार की समस्याएं इन राजनीतिक दलों के द्वारा ही पैदा की गई हैं। देश के दलितों के साथ यदि न्याय नहीं हो पाया है तो इसके लिए राजनीतिक दल ही जिम्मेदार हैं। इनकी इच्छा शक्ति बहुत ही दुर्बल है। इन्होंने अस्पृश्यता मिटाने के लिए कभी मन से प्रयास नहीं किया। राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए आरक्षण और सरकारी जमीन को पट्टे पर दलितों को देने की योजना के अतिरिक्त इन्हे कुछ और सूझा ही नहीं।
राजनीतिक दलों के नेताओं का कहना है कि समाज से जातिवाद, अंधविश्वास, जड़ पूजा और अस्पृश्यता को मिटाना राजनीतिक लोगों का काम ना होकर सामाजिक नेताओं का काम होता है। यह तर्क भी बहुत ही दुर्बल और अटपटा है। पहली बात तो यह है कि यदि किसी जाति विशेष के उत्थान और उद्धार के लिए ये वोट मांगते हैं तो समाज की विसंगतियों को मिटाने का काम भी इन्हीं का है। इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि अब से पूर्व भी देश के अनेक राजा महाराजा ऐसे रहे हैं जिन्होंने सामाजिक विसंगतियों के विरुद्ध स्वयं अभियान चलाया और उन्हें तोड़ने का साहस करके दिखाया।
बड़ौदा के आर्य नरेश सयाजीराव गायकवाड ने अपने शासनकाल में ऐसे 6 राजनियम बनाए थे जिनसे सामाजिक विसंगतियों को उखाड़ने में सहायता मिली थी । वह आर्य सन्यासी स्वामी नित्यानंद के उपदेशों से इतने प्रभावित हुए कि सामाजिक आंदोलन के क्षेत्र में स्वयं उतर गए । उन्होंने 1908 ईस्वी में वैदिक विद्वान मास्टर आत्माराम अमृतसरी को बड़ौदा में आमंत्रित किया था और उनके नेतृत्व में दलितों के कल्याण के लिए लगभग 400 पाठशालाऐं स्थापित करवाई थीं। जिनमें 20000 दलित समाज के बच्चों को पढ़ने का अवसर उपलब्ध करवाया था । इस संदर्भ में हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए डॉक्टर अंबेडकर को छात्रवृत्ति देने वाले भी यही बड़ौदा नरेश थे, जो मूल रूप से आर्य समाज की विचारधारा से प्रभावित हुए थे।
जब डॉक्टर अंबेडकर शिक्षा के लिए लिए गए उपरोक्त 20000 के ऋण को महाराजा को भुगतान नहीं कर सके तो आर्य समाज के नेता मास्टर आत्माराम जी ने महाराजा बड़ौदा से मिलकर उनसे विशेष निवेदन करके डॉक्टर अंबेडकर को दिया गया वह ऋण माफ करवा दिया था । यह घटना 1924 की है। इस प्रकार डॉक्टर अंबेडकर के निर्माण में महाराजा बड़ौदा का उतना हाथ नहीं है, जितना आर्य समाज का योगदान है । यदि आर्य समाज के नेता आत्माराम ना होते तो महाराजा बड़ौदा उनसे अपने पैसे को वापस लेते। जिसे वह देने की स्थिति में नहीं थे।
दलितों के उद्धार के लिए समर्पित महान स्वतंत्रता सेनानी अलीगढ़ की जाट रियासत के आर्य राजा महेंद्र प्रताप अपने जीवन के आरंभिक दिनों में देशभर की यात्रा करते हुए जब द्वारिका के तीर्थ स्थल में पहुंचे तो मंदिर के पुजारी ने उनसे उनकी जाति पूछ ली। महाराजा को मंदिर के पुजारी का इस प्रकार जाति पूछना अच्छा नहीं लगा। उन्होंने अपनी वास्तविक जाति न बताकर पुजारी से कह दिया कि वह भंगी हैं। तब पुजारी और अन्य लोग बोले कि यदि आप भंगी हैं तो फिर इस मंदिर में प्रवेश करने का अधिकार आपको नहीं है। ऐसा जानकर राजा को बहुत कष्ट हुआ। उनको लगा कि जाति के नाम पर यदि मेरे देश में कुछ लोगों के साथ इस प्रकार का अन्याय हो रहा है तो यह उचित नहीं है। मंदिर के प्रमुख व्यवस्थापक को जब उनकी वास्तविक जाति के बारे में ज्ञान हुआ तो उसने राजा से क्षमा याचना की। परंतु राजा महेंद्र प्रताप भी अपने आप में बहुत उच्च आदर्श वाले राजा थे। अब वह अपने संकल्प से डिगने का नाम नहीं ले रहे थे। उन्होंने मंदिर के भगवान का दर्शन करने से यह कहकर मना कर दिया कि मैं ऐसे भगवान का दर्शन नहीं करूंगा जो जन्म के कारण मनुष्य का अपमान करता है।
आजकल के कांग्रेस के नेता चाहे कितनी ही डींगें मार लें कि उनके नेता महात्मा गांधी जी ने दलितों के उद्धार के लिए विशेष कार्य किया था । पर सच यह है कि दलित समाज का उद्धार करना कांग्रेस का मौलिक चिंतन नहीं था । महात्मा गांधी भी अपने मौलिक चिंतन में अछूतों के प्रति किसी प्रकार से भी उदार नहीं थे । जब कोई व्यक्ति या कोई संगठन किसी उधारी मानसिकता या सोच या चिंतन के आधार पर कार्य करता है तो उसके उधारे चिंतन का कोई उल्लेखनीय प्रभाव दिखाई नहीं देता है।
यही कारण रहा कि कांग्रेस के महात्मा गांधी के दलित कल्याण के कार्यों का कोई विशेष प्रभाव दिखाई नहीं दिया। हम कांग्रेस और उसके नेता महात्मा गांधी के दलित कल्याण संबंधी चिंतन को उधारा इसलिए कहते हैं कि कांग्रेस को दलितों के उद्धार के लिए प्रेरित करने वाले आर्य समाज के बड़े नेता महात्मा मुंशीराम अर्थात स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज थे। जिन्होंने 1913 में दलितोद्धार सभा का गठन किया था। अमृतसर के कांग्रेस अधिवेशन में 27 दिसंबर 1919 को उन्होंने अपने इस विषय को कांग्रेस के मंच से मुख्य रूप से उठाया था और गांधी जी को इस बात के लिए प्रेरित किया था कि वे दलितों के उद्धार के लिए विशेष कार्य करें । यहीं से महात्मा गांधी को स्वामी श्रद्धानंद जी के माध्यम से दलितों के लिए कुछ कार्य करने की प्रेरणा मिली। उन्होंने जो कुछ भी किया वह केवल समाज को दिखाने के लिए किया। कोई मौलिक योजना उनके पास ऐसी नहीं थी जिससे दलितों का कल्याण हो सके या वह उन्हें समाज में सम्मानजनक स्थान दिला सकें।
स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज ने कांग्रेस के कलकत्ता व नागपुर अधिवेशन (1920 ) में भी सम्मिलित होकर दलितों के उद्धार के कार्यक्रम को प्रस्तुत किया था। उन्होंने 1921 में दिल्ली के हिंदुओं को इस बात के लिए प्रेरित किया था कि वह दलित वर्ग के लोग लोगों को अपने कुंए से पानी भरने दें। जिस समय दलितों के हित में कोई बोलने का साहस तक नहीं कर सकता था उस समय हिंदुओं को इस प्रकार की प्रेरणा देना अपने आप में बहुत ही साहसिक पहल थी। जिसे कोई स्वामी श्रद्धानंद ही कर सकता था। उन्होंने इस कार्य को सहर्ष अपने हाथों में लिया। इससे स्वामी जी के साहसिक नेतृत्व, दृढ़ इच्छाशक्ति और दलितों के प्रति हृदय से काम करने की प्रबल इच्छा शक्ति का पता चलता है।
हमें यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि जब जब हिंदू समाज को संगठित करने के प्रयास आर्य समाज या किसी भी हिंदूवादी नेता की ओर से किए गए हैं तब तब मुसलमानों ने उसमें अड़ंगा डालने का कार्य किया है। जिस समय स्वामी जी महाराज दलितों को गले लगाकर उन्हें हिंदू समाज की एक प्रमुख इकाई के रूप में जोड़ने का साहसिक कार्य कर रहे थे उस समय भी मुस्लिम नेताओं को उनका यह कार्य पसंद नहीं आ रहा था। यही कारण था कि स्वामी जी महाराज के इस प्रकार के कार्यक्रम में कांग्रेस के मुसलमान नेताओं ने बाधा डालने का प्रयास किया था । जिसमें मोहम्मद मौलाना अली का नाम विशेष उल्लेखनीय है। जिसने लगभग 7 करोड दलितों को हिंदू मुस्लिम में आधे आधे बांटने की बात भी कही थी। मौलाना अली के इस प्रकार के कार्यों से क्षुब्ध होकर स्वामी जी ने 9 सितंबर 1921 को गांधी जी को पत्र लिखा था। जिसमें उन्होंने कहा था कि मैं नहीं समझता कि इन तथाकथित अछूत भाइयों के सहयोग के बिना जो स्वराज्य हमें मिलेगा, वह भारत राष्ट्र के लिए किसी भी प्रकार से हितकारी होगा।
आज के राजनीतिक दलों को बड़ौदा नरेश और आर्य राजा महेंद्र प्रताप के दलितों के कल्याण संबंधी कार्यों से प्रेरणा लेनी चाहिए। आज देश में राज्यसभा और लोकसभा के कुल मिलाकर लगभग 800 सांसद हैं। पर उनमें से कोई एक भी राजा महेंद्र प्रताप या महाराजा बड़ौदा बनने का साहस नहीं रखता। यह सब आराम तलब हो चुके हैं। स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज जैसे महापुरुषों का अनुकरण करने की ओर तो यह आंख उठाकर तक नहीं देख सकते । इनकी राजनीतिक इच्छाशक्ति केवल यहीं तक है कि वह किसी प्रकार हाथ उठाने वाले सांसद बनकर लोकसभा या राज्यसभा में जाकर बैठ जाएं।
हम ‘ हाथ उठाने वाले सांसद’ उन्हें इसलिए कह रहे हैं कि यह किसी राजनीतिक दल के नेता के तलवे चाटकर उससे किसी प्रकार उसकी पार्टी का टिकट लेकर संसद में पहुंचते हैं और वहां फिर अपने नेता को खुश करने के लिए उसके भाषण पर मेज थपथपाते हैं या फिर करतल ध्वनि से उसकी बातों में अपनी सहमति के स्वर मिलाते हैं। इनका चिंतन और इनकी सोच अपने नेता के चिंतन और सोच में इस प्रकार लग लिपट जाती है कि उसे अलग करके देखना तक असंभव हो जाता है । इस प्रकार देश का वर्तमान लोकतांत्रिक ढांचा भी राजनीतिक गुलामों को जन्म देने में सहायक हुआ है।
हमारे सांसदों की ‘ यस- मैन’ होने की प्रवृत्ति है। जो केवल अपने नेता के लिए राज्यसभा और लोकसभा में काम करते हुए दिखाई देते हैं। देश हित में काम करना उनके एजेंडा में कहीं दूर दूर तक सम्मिलित नहीं है। इन जनप्रतिनिधियों को देश के विधान मंडलों में भेजकर हम केवल गुलामों को देश के राजनीतिक विधान मंडलों में भेज रहे हैं। यह सर्वमान्य सत्य है कि गुलामों से कभी कोई बड़ा काम नहीं हो सकता।
कॉन्ग्रेस ने कभी भी दलित से मुसलमान या ईसाई बने लोगों को फिर से हिंदू बनाने का काम नहीं किया। जो लोग हिंदू दलित से इस्लाम या ईसाइयत में दीक्षित हो गए उन्हें कांग्रेस ने जाने दिया। इस प्रकार दलितों को ही मिटाकर और उन्हें विधर्मी बन जाने देने की खुली छूट देकर कांग्रेस ने देश को तोड़ने की प्रवृत्ति को भी बढ़ावा दिया। इसके विपरीत स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज ने दलितों को आर्य समाज में लाकर उन्हें संस्कारित बनाने का कार्य किया। ऐसा करने के पीछे स्वामी जी महाराज का एक ही उद्देश्य था कि जब वे आर्य समाज में।दीक्षित हो जाएंगे तो हिंदू समाज के लोग उन्हें मंदिरों में प्रवेश करने की अनुमति देंगे। पर ऐसा हुआ नहीं। तब स्वामी श्रद्धानंद जी ने बहुत दुखी होकर “लीडर” में 11 मई 1924 को लिखा था कि इसका मतलब यह है कि दलित वर्गों का कोई भी आदमी जब तक हिंदू समाज और धर्म का परित्याग नहीं करेगा तब तक अपनी सामाजिक अक्षमताओं से छुटकारा नहीं पा सकता।
अपने दलित भाइयों के साथ छुआछूत भेदभाव और सामाजिक अत्याचार करने वाले हिंदुओं को लताड़ते हुए स्वामी श्रद्धानंद जी ने ‘ हिंदू संगठन’ में ( 1924 ) लिखा था कि जो लोग अपने ही समाज के एक तिहाई लोगों को गुलाम बनाए बनाए हुए हैं और उन्हें पैरों तले कुचल रहे हैं, उन्हें विदेशियों द्वारा किए गए अत्याचारों के विरुद्ध शिकायत करने का कोई अधिकार नहीं है।
स्वामी जी महाराज ने मद्रास में एक विशाल जनसभा को संबोधित करते हुए कहा था कि हिंदुओ ! अपने दलित कहे जाने वाले बंधुओं को मान सम्मान देकर उन्हें अपना अभिन्न अंग समझो। अस्पृश्यता का परित्याग करो। यह पाप है और यह रोग तुम्हें ले डूबेगा। तुम यदि आज इन्हें नहीं अपनाओगे तो फिर एक समय ऐसा आएगा जब तुम इन्हें अपने में मिलाना चाहोगे परंतु यह तुम्हारे निकट नहीं आएंगे।
स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज का उपरोक्त कथन आज सत्य सिद्ध हो रहा है । हिंदू ने अपनी परंपरागत मूर्खताओं को त्यागने का नाम नहीं लिया और राजनीति दलितों के प्रति पूर्णतया उदासीन बनी रही। उसका परिणाम यह हुआ कि दलित रूपी खेत पूरी तरह इस्लाम और ईसाइयत को सौंप दिया गया। एक प्रकार से दलितों को इन दोनों विदेशी धर्मावलंबियों को पट्टे पर दे दिया गया। अब पट्टे पर दी गई चीज को फिर से वापस लेना हिंदू समाज के लिए पूर्णतया असंभव होता जा रहा है। अपने ही लोग अर्थात अपने ही समाज के दलित जब मुस्लिम या ईसाई बनते हैं तो वे भारत के लोगों के प्रति और भारतीयता के प्रति बहुत ही अधिक दुर्भाव रखते देखे जाते हैं।
यदि कांग्रेस समय रहते आर्य समाज के नेता स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज के परामर्श को स्वीकार कर लेती और अपनी पूर्ण राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए समाज में दलितों के सम्मान के लिए जमीन पर लड़ाई लड़ती, देश के राजनीतिक दल इन दलितों को अपने लिए वोट बैंक ना मानकर उनके कल्याण के लिए कार्य करते और हिंदू समाज व राजनीति मिलकर इन्हे इस्लाम और ईसाइयत को पट्टे पर ना देते तो आज देश का हिंदू समाज बहुत अधिक मजबूत होता। समय अभी भी है यदि अब भी हमने स्थिति परिस्थितियों को संभाल लिया तो आज भी हम एक मजबूत भारत का निर्माण करने में सफल हो सकते हैं।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत