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इन दिनों यूरोप और अमेरिका में ब्लासफेमी यानी ईशनिंदा रोकने के लिए कानून बनाने पर विवाद हो रहा है। एक ओर राजनीतिक इस्लाम के सिद्धांत, व्यवहार और इतिहास के प्रति चेतना बढ़ रही है, तो दूसरी ओर “इस्लामोफोबिया” यानी इस्लाम से डराने का आरोप बढ़ रहा है। हाल में संयुक्त राष्ट्र की ओर से 15 मार्च को “इस्लामोफोबिया विरोधी दिवस” मनाने का प्रस्ताव पारित होने के बाद बहस और तेज हो गई है। इस प्रस्ताव पर भारत के साथ फ्रांस ने भी चिंता जताई थी। अमेरिका और यूरोप के नेता और साथ ही मीडिया दुविधा में पड़े हैं। नियमित घटने वाले जिहादी कांड, दुस्साहसी मांगें और राष्ट्रीय कानूनों के खुले उल्लंघन सबके सामने हैं। अब इन घटनाओं की लीपापोती असंभव है, किंतु उसे रोकने के लिए कार्रवाई करने पर हीलाहवाली चल रही है। इस दुविधा में एक कारक वामपंथी बौद्धिकों का दबाव भी है, जो राजनीतिक इस्लाम के बचाव में तरह-तरह के तर्क देते रहते हैं, लेकिन आम यूरोपीय जनता अब सच्चाई समझ चुकी है। बौद्धिक-राजनीतिक वर्ग में खींचतान के बीच इस्लामी राजनीतिक समूह दबाव बढ़ा रहे हैं। इस्लामोफोबिया के आरोप और ब्लासफेमी पर कानून बनाने की मांग उसी का अंग है। कुछ समय पहले इंडियन मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड भी यह मांग कर चुका है।
इस्लामी राजनीतिक समूह अपना इतिहास बखूबी जानते हैं। वे यह भी जानते हैं कि गैर-मुस्लिम समाज और उनके नेता उससे अपरिचित हैं। इसी का लाभ उठाकर वे धार्मिक भावनाओं के सम्मान की आड़ में अपनी राजनीति चमकाने में लगे हैं, किंतु धार्मिक भावनाओं का सम्मान एकतरफा नहीं हो सकता। शरीयत के कायदे मानवीयता और लोकतांत्रिक समाजों की संस्कृति के खिलाफ हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में किसी भी कानून, नेता, पंथ, प्रोफेट, संत आदि की भी आलोचना का अधिकार शामिल है। चर्च और जीसस की खुली आलोचना यूरोप में सदियों से होती रही है। अत: इस्लाम की आलोचना रोकने की मांग यूरोपीय सभ्यता को ही बांधने जैसी है। इस्लामी कायदे स्वयं इस्लामी समाज की स्त्रियों और बच्चों के लिए हानिकारक हैं। शरीयत के कायदे लोकतांत्रिक देशों की उदार समानतापूर्ण संस्कृति के विपरीत हैं। भिन्न मत या धर्म मानने वालों के प्रति यूरोप, अमेरिका में सहज सम्मान सर्वविदित है। इसीलिए दुनिया भर के लोग वहां सहजता से रहने जाते हैं। यह चीज इस्लामी समाजों, देशों में नहीं है। शरीयत के कायदे गैर-मुस्लिमों को हीन मानकर तरह-तरह की पाबंदियां और अपमान थोपते हैं।
यूरोपीय और अमेरिकी नागरिकों ने अपनी वैचारिक स्वतंत्रता लंबे संघर्ष और सामाजिक विकास के क्रम में हासिल की है। अब इस्लामी समूह यह कहकर उस पर पाबंदी लगाना चाहते हैं कि उनके रिवाजों, शरीयत आदि की आलोचना नहीं होनी चाहिए। इस आलोचना को ही वे इस्लामोफोबिया और ब्लासफेमी कहते हैं। यहां तक कि वे स्वयं प्रमाणिक इस्लामी किताबों के विवरण का उल्लेख भी रोकना चाहते हैं, क्योंकि उससे राजनीतिक इस्लाम की सच्चाई सामने आती है। दूसरी ओर यही इस्लामी समूह अन्य धर्मों, उनके प्रोफेट, देवी-देवता और पूजा-पद्धति को ‘कुफ्र’, ‘झूठे’ आदि कहना अपना अधिकार मानते हैं। वे अन्य धर्म-विश्वासों, उनके श्रद्धास्थलों, प्रतीकों की अवमानना तक करते हैं-न केवल इस्लामी राज वाले देशों, वरन यूरोप, अमेरिका, भारत जैसे देशों में भी। सारी दुनिया में यह दोहरापन गैर-मुस्लिम जनता अब अधिकाधिक देख समझ रही है। वह समान व्यवहार, सम्मान, नैतिकता और कानून चाहती है। वह अपनी स्वतंत्रता बनाए रखना चाहती है, जबकि इस्लामी नेता और उनके वामपंथी सहयोगी एक विशेषाधिकार का दबाव बना रहे हैं। ब्लासफेमी कानून बनाने की मांग उसी का अंग है। यह मांग करने वाले ऐसा कानून नहीं चाहते जो सभी धर्मांवलंबियों को समान सम्मान तथा किसी भी विध्वंस से सुरक्षा दे, बल्कि ऐसा कानून चाहते हैं, जो केवल इस्लाम की आलोचना रोके। इस्लामी समूह यह दोहरी जिद इतने खुले रूप में रखते हैं कि हैरत होती है। फ्रांस के अलावा किसी पश्चिमी यूरोपीय देश के राजनीतिज्ञ इस पर कोई खास विचार नहीं कर रहे, बल्कि कई लोग तो फ्रांसीसी राष्ट्रपति मैक्रों की आलोचना तक करते हैं कि क्यों उन्होंने इस पर बहस आरंभ की?
फ्रांस में राष्ट्रपति चुनाव में मैक्रों की पुन: जीत ने दिखा दिया कि फ्रांसीसी जनता इस्लामी समूहों का दबाव ठुकराना चाहती है। यह इससे भी साफ है कि मैक्रों की प्रतिद्वंद्वी मरीन ला पेन इस्लाम की और भी कठोर आलोचक हैं। अत: मैक्रोंं द्वारा जारी ‘जिहादी खतरेÓ नामक दस्तावेज पर यूरोपीय समुदाय को विचार करना होगा। इसके अनुसार, जिहादी हिंसा और धमकी के दबाव में दो प्रकार की नैतिकता, दो तरह के कानून और दो प्रकार के व्यवहार को स्वीकार करना आधुनिक सभ्यता पर मर्मांतक चोट करेगा। इससे सामाजिक विघटन बढ़ेगा, हिंसा के तर्क को स्वीकृति मिलेगी और समानतापूर्ण सामाजिक व्यवस्था को चुनौती मिलेगी। इससे जिहादियों का मनोबल बढ़ेगा और शांति भी खतरे में पड़ जाएगी। इसीलिए फ्रांस में जिहादी आवाहन करने वाली मस्जिदें बंद की जा रही हैैं। इन्हीं कार्रवाइयों को इस्लामोफोबिया कह कर निंदा होती है। हाल में एक ब्रिटिश सांसद ने भारत में भी इस्लामोफोबिया होने का आरोप मढ़ा।
पारंपरिक उदारवाद सभी धर्मों का सम्मान, सबको समान अधिकार देता है। यूरोप ने विगत कई दशकों से मुस्लिम आव्रजकों को अपनी रीति, विश्वास के अनुसार रहने-जीने की पूरी व्यवस्था की तथा उन्हें साधन एवं नागरिकता दी, किंतु इस्लामी मतवाद के राजनीतिक भाग के प्रति यूरोपीय नीति-निर्माता अनजान बने रहे। वे केवल जिहादियों द्वारा लोमहर्षक कत्लों से विचलित होते हैं। कभी वहाबी, कभी सलाफी को जिहादी हिंसा का कारण बताकर आम मुसलमानों को अलग माना जाता है, किंतु ऐसे प्रयास इस्लामी मतवाद का हिसाब जोडऩे में विफल रहते हैं। चूंकि राजनीतिक इस्लाम एवं जिहाद के सिद्धांत-इतिहास से बेखबर यूरोपीय नेता विचारों के बदले समूहों की चिंता करते हैं, अत: मूल समस्या देखने से चूक जाते हैं। इसी दुष्चक्र का समाधान किया जाना है। आगामी जून में यूरोपीय नेताओं को ‘आतंकवाद के विरुद्ध संघर्षÓ पर अपनी नीति निर्धारित करनी है। तभी इस्लामोफोबिया और ब्लासफेमी पर उनका रुख स्पष्ट होगा।
– डॉ. शंकर शरण (१ मई २०२२)