आज का जजिया
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आज इस्लाम का आरम्भ में प्रचार प्रसार हुआ तो गैर मुस्लिमों के सामने दो शर्त होती थी।
1.इस्लाम कबूल करो या 2. मारे जाओ।
लेकिन बाद में धन की नियमित आवक के लिए, जिससे कि जिहाद के लिए धन की कमी न रहे, इसमें एक तीसरी शर्त और जोड़ी गई – 3.यदि जिंदा रहना है तो जजिया कर दो।
जजिया टैक्स उन काफिरों से लिया जाता है जो अपने मूल धर्म को छोड़ना नहीं चाहते।
जजिया जलील करके लिया जाता है। अलाउद्दीन खिलजी के समय जजिया देने वाले के मुंह में थूका जाता था। इसके लिए यदि वह मुंह नहीं खोलता था तो जजिया संग्रह कर रहे लोगों द्वारा उनका दुबारा मुंह खुलवाकर थूका जाता था। इसका लिखित प्रमाण स्वयं उन्हीं की किताबों में है।
भारत के अधिकांश टैक्सपेयर्स हिन्दू हैं। उन्हें यह जानने का पूरा अधिकार है कि उनके धन का व्यय कैसे होता है?
भारत में आज भी टैक्सपेयर्स के धन में से एक निश्चित हिस्सा जजिया के रूप में व्यय होता है।
मस्जिदों के इमामों को सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर वेतन दिया जाता है।
इस प्रकार हम आज भी जजिया कर और खरज भुगत रहे हैं ?
23 मई 1993 को सुप्रीम कोर्ट ने 743 वक्फों की पेटिशन पर केन्द्र सरकार को आदेश दिया कि तमाम मस्जिदों के स्थाई और अस्थायी इमामों को 1 दिसम्बर 1993 से उनकी योग्यता अनुसार वेतन दिया जाये।
योग्यता – उनकी शरीयत, कुरान और हदीस की जानकारी के आधार पर तय होती है ।
जिसमें सबसे काबिल इमाम
( १ ) आलिम होता है उससे नीचे इमाम
( २ ) हाफिज और उससे नीचे इमाम
( ३ ) नाजराह और
( ४ ) मुअजिन।
मुअजिन वह जिसकी ड्यूटी सुबह सुबह और
दिन में पांँच बार लाउडस्पीकर पर चिल्ला कर सबको नमाज के लिए बुलाना होता है।
ये तनख्वाह क्यों दी जानी चाहिए इसके लिए इमामों का तर्क था कि वे एक धार्मिक कार्य कर रहे हैं और समाज के एक बड़े वर्ग का नमाज अदा करवाते हैं।
( १ ) कर्नाटक वक्फ बोर्ड ने दलील दी कि
चूँकि ऐसा कोई इस्लामी कानून और परम्परा नहीं है इसलिए इनको तनख्वाह नहीं दी जा सकती।
( २ ) केंद्र और कुछ राज्यों के वक्फ बोर्डों ने
दलील दी कि, चूंँकि इनके और हमारे बीच कोई मालिक और कर्मचारी वाला सम्बन्ध नहीं है इसलिए हम इन्हें तनख्वाह नहीं दे सकते, वहीं
( ३ ) पँजाब के वक्फ बोर्ड जिसके अन्तर्गत
हिमाँचल और हरियाणा की मस्जिदें भी
आती हैं की दलील थी कि हम तो पहले से ही तनख्वाह दे रहे हैं और साथ में प्रतिमाह मेडिकल एलाऊन्स भी दे रहे हैं।
तमाम दलीलों और गवाहों के बयानों को
मद्देनजर रखते हुए एक धर्मनिरपेक्ष और समानता की बात करने वाले देश की काबिल अदालत ने निर्णय दिया कि केन्द्र सरकार छह महीने के अन्दर गैरसरकारी मस्जिदों के इमामों की तनख्वाह के स्केल तय करे।
और यदि इसमें छह महीने से अधिक का समय लगता है तो यह भुगतान 1 दिसम्बर 1993 से देय होगा।
इस निर्णय को पढ़ने के बाद में यह आश्चर्य हुआ कि मस्जिदें सरकारी धन भी प्राप्त करती हैं।
बात यहीं खत्म नहीं हुई
( ४ ) उत्तर प्रदेश कांँग्रेस कमेटी ने मार्च 2011 में राज्यपाल को ज्ञापन दिया कि उत्तर प्रदेश में सरकार ने अभी सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार यहांँ के इमामों को नये वेतनमान के अनुसार वेतन देना शुरू नहीं किया है ।
वो अभी पुराने वेतन पर ही गुजारा कर रहे हैं। साथ ही में ( ५ ) उत्तर प्रदेश कांँग्रेस कमेटी ने राज्यपाल को ये भी बताया कि
भारत में इस समय 28 लाख मस्जिदें हैं और हर इमाम को 18000/- पगार दी जाती है। मतलब 50,000 करोड़ जो भारतीय टैक्सपेयर्स का दिया धन है वह यूँ दिया जा रहा है। और उत्तर प्रदेश में 3.30 लाख मस्जिदें हैं। (ये आंँकड़े मार्च 2011 के हैं )
ये तो सिर्फ इमाम की पगार है बाकी की पगार तो अलग ही है।
( हज सब्सिडी के अलावा सोचिए ! कितना पैसा प्रति माह दिया जा रहा है मदरसों में )
2011 में वक्फ बोर्ड की सम्पत्तियों
और उनसे होने वाली आय पर जस्टिस शाश्वत कुमार कमेटी का आंँकलन था कि भारत में 30 राज्यों में 30 वक्फ बोर्डों के पास एक लाख चालीस हजार करोड़ की सम्पत्ति है जिससे 12000 करोड़ रुपये की प्रतिवर्ष आय हो सकती है। जबकि कुप्रबन्धन के कारण इनकी अधिकतम आय 163 करोड़ ही है। अर्थात केन्द्रीय वक्फ बोर्ड के अतिरिक्त इन 30 वक्फ बोर्डों के कर्मचारियों की तनख्वाह भी सरकार ही वहन करती है।
सरकार कोई अपनी जेब से नहीं देती है, ये वही जजिया है जो हम इल्तुतमिश के जमाने से देते चले आ रहे हैं।
इमामों, मदरसों और मस्जिदों का राष्ट्र जीवन या देश की प्रगति में कोई योगदान नहीं है। ये सब तो इस्लाम के प्रचार प्रसार के उपक्रम हैं, तो यदि यह करदाताओं के धन से चल रहे हैं तब जजिया ही हुआ।
पहले भी काफिरों के दिये जजिया और खरज पर ऐश करते थे और आज भी कर रहे हैं।
जजिया और खरज के विषय में अंँग्रेज विदेशी यात्री मानुक्की (Mannuci) लिखता है कि “शाहजहाँ और औरङ्गजेब के समय में जजिया और खरज की वसूली इतनी सख्त थी कि, न दे पाने की स्थिति में काश्तकार को उठा कर ले जाते थे और गुलामों के बाजार में बेच देते थे । उस काश्तकार के पीछे पीछे रोती बिलखती उसकी पत्नी, सन्तान भी होते थे जो पति के साथ ही बिक जाते थे या उन्हें भी उठा लिया जाता था। जजिया से बचने के दो ही रास्ते थे या तो इस्लाम कबूल कर लो या मौत।”
औरङ्गजेब खुद बहुत खुश होकर लिखता है कि जजिया न दे पाने के कारण हजारों लोगों ने इस्लाम कबूल कर लिया है।
एक धर्मनिरपेक्ष सम्विधान और प्रजातन्त्र से शासित, आज भी हम उत्तर से लेकर दक्षिण तक के इमामों की तनख्वाह के लिए जजिया दे रहे हैं।
जैसे मुगलकाल में मन्दिर लूटे जाते वैसे ही सरकारें आज भी मन्दिरों को लूट रही हैं। मंदिरों का धन, बहुत ही #दर्द_के_साथ कहना पड़ रहा है कि वहाँ ट्रांसफर हो रहा है जो मंदिर तोड़ने की शिक्षा दे रहे हैं या मंसूबे पाल रहे हैं।
तो प्रश्न यह है कि ये जजिया हम क्यों दे रहे हैं?
इस लिए कि नमाज के बाद काफिरों से कैसे नफरत करनी है, ये सिखाने वाले इमामों के पेट भरे रहें। इस्लाम का प्रचार प्रसार होता रहे। ताकि बङ्गाल में राज्यपाल के पैर पकड़
कोई अबला रोये कि क्या जिन्दा रहने के लिए अब धर्म परिवर्तन ही एकमात्र विकल्प बचा है। ताकि इनके बच्चों को 4800 करोड़ का अतिरिक्त वजीफा दिया जा सके। जिससे उनके एक हाथ में कम्प्यूटर और
एक हाथ में कुरान सुलभ हो सके। ताकि वो
जामिया और ए एम यू से नारे लगा सकें –
भारत तेरे टुकड़े होंगे, इन्शाअल्लाह इन्शाअल्लाह।
वैसे एक बात और बता दूँ कि
औरङ्गजेब कितना भी जालिम था लेकिन इस जजिया का जब दिल्ली में हिन्दुओं ने उग्र विरोध किया था तो उसने जामा मस्जिद में नमाज पढ़ने जाना छोड़ लाल किले में ही नमाज पढ़ने के लिए मोती मस्जिद बनवा दी थी ।
पर अब क्या? काफिरों ने तब भी सहा जब तुर्क और मुगल तलवार के दम पर वसूलते थे, और आज भी सह रहे हैं जब धर्मनिर्पेक्ष संविधान की नज़र में कानूंनी रूप से जज़िया वसूली हो रही है।
संकलन-झलक इंडिया
फेसबुक- Dilip singh
स्रोत- अमर उजाला
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