छठी शताब्दी के प्रारंभ में हूणों ने कश्मीर पर विजय प्राप्त की थी और यहां पर अपना शासन स्थापित किया था। हूणों के राजा मिहिरकुल ने कश्मीर पर शासन किया। इस शासक को कई इतिहासकारों ने एक क्रूर शासक के रूप में स्थापित किया है। मिहिरकुल ने बाद में शैवमत को अपना लिया था। मिहिरकुल नेअपने शासनकाल में महिरेश्वर मंदिर की स्थापना भी की थी। जो आजकल पहलगाम में मामलेश्वर मंदिर के नाम से जाना जाता है।
मिहिरकुल की मृत्यु के पश्चात कुछ काल तक यहां स्थानीय राजाओं का शासन चलता रहा। कुछ कालोपरांत उज्जैन के राजा विक्रमादित्य का इन स्थानीय राजाओं से संपर्क स्थापित हुआ। उसके काल में कश्मीर में कुछ विशेष परिवर्तन हुए। विक्रमादित्य ने प्रतापादित्य नाम के अपने एक सुयोग्य मंत्री को कश्मीर के शासन का प्रमुख बनाकर नियुक्त कर दिया था। जिसने बहुत ही योग्यता के शासन के साथ शासन किया और कश्मीर को भारतीय राष्ट्रीयता का एक अंग बनाये रखा।
‘राजतरंगिणी’ के अनुसार यहां पर मेघवाहन का भी शासन रहा । उसने बौद्धमत के सिद्धांतों में विश्वास व्यक्त किया। राजतरंगिणी के अनुसार उसने पशुओं के वध पर प्रतिबंध लगा दिया था। मेघवाहन के पश्चात यहां पर दुर्लभवर्धन का शासन आया। दुर्लभवर्धन के द्वारा ही 627 ई0 में कर्कोट राजवंश की स्थापना की गई।
कर्कोट वंश
कश्मीर के इतिहास में कर्कोट वंश का विशेष स्थान है। इस वंश में एक से बढ़कर एक ऐसा प्रतापी शासक कश्मीर को मिला जिसने कश्मीर के केसर की सुगंध को दूर-दूर तक फैलाने में सहायता की । कर्कोटक , कर्कोट या कार्कोट वंश की स्थापना सातवीं शताब्दी में अर्थात 627 ईसवी में की गई थी। दुर्लभ वर्धन इस वंश का संस्थापक शासक था। जिसने गोनंद वंश के अंतिम शासक बालादित्य की हत्या करके इस वंश की स्थापना की थी।
उस समय कन्नौज पर हर्षवर्धन का शासन था। उस समय चीन का प्रसिद्ध यात्री ह्वेनसांग भारत की यात्रा पर आया था। जिसने कश्मीर और भारत के संबंध में अनेकों संस्मरण जाकर लिखे। ह्वेनसांग ने कश्मीर में भी दो वर्ष व्यतीत किए थे । दुर्लभवर्धन की मृत्यु के पश्चात उसका उत्तराधिकारी दुर्लभक हुआ। जिसने प्रतापादित्य की उपाधि धारण कर शासन किया और प्रतापपुर नामक नगर बसाया। चन्द्रापीड़ , वज्रादित्य, तारपीड़ ,उदयादित्य, मुक्तिपीड़ , ललितादित्य जैसे प्रतापी शासक इसी वंश में जन्मे। जिन्होंने एक से बढ़कर एक महान कार्य किए ।
ललितादित्य मुक्तापीड़
इस वंश का सबसे महान और प्रतापी शासक ललितादित्य था। जिसने 724 ईसवी से लेकर 770 ईसवी तक शासन किया। उसने कश्मीर के राज्य का विस्तार करने में भी महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त की थी।
ललितादित्य के बारे में इतिहासकार मजूमदार ने लिखा है कि :- ‘दक्षिण की इन महत्वपूर्ण विजयों के बाद ललितादित्य ने कश्मीर की उत्तरी सीमाओं पर स्थित क्षेत्रों की ओर ध्यान दिया। यह बताया जा चुका है कि भारत से चीन तक के कारवां मार्गों को नियंत्रित करने वाली कराकोरम पर्वत श्रंखला के सबसे अगले स्थल तक उसका साम्राज्य फैला था । हम जानते हैं कि आठवीं शताब्दी के आरंभ होते ही अरबों का आक्रमण काबुल घाटी को चुनौती दे रहा था । इसी दौरान सिंध की मुस्लिम शक्ति उत्तर की ओर बढ़ने के प्रयास कर रही थी। जिस समय काबुल और गांधार का शाही साम्राज्य इन आक्रमणों में व्यस्त था, ललितादित्य के लिए उत्तर दिशा में पांव जमाने का एक सुंदर अवसर था। अपनी विजयी सेना के साथ वह दर्द देश (दर्दिस्तान) में से तुर्किस्तान की ओर बढ़ा। असंख्य कश्मीरी देशों तथा मध्य एशियाई नगरों के कश्मीरी लोगों के प्रयासों के फलस्वरूप पूरा क्षेत्र कश्मीरी परंपराओं तथा शिक्षा से मालामाल था। यह समझना कठिन नहीं है कि ललितादित्य के मार्गदर्शन में कश्मीर की सेना ने वहां सरलता से विजय प्राप्त कर ली। टैंग शासन की समाप्ति तथा भीतरी सैनिक युद्धों आदि के कारण चीनी साम्राज्य के अधीन वे आए थे, वह पहले ही खंड – खंड हो रहा था।”
( आर0सी0 मजूमदार, एनशिएंट इंडिया, पृष्ठ 383)
कश्मीर के शासकों में ललितादित्य का बहुत महत्वपूर्ण स्थान इसलिए भी है कि उसने जनकल्याण से जुड़े अनेक महान कार्य किए। जिससे जनसाधारण में उसके प्रति आदर भाव जागृत हुआ। शिक्षा के क्षेत्र में भी उसने उल्लेखनीय सुधार कर विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया । जनहित से जुड़े उसके इस प्रकार के कार्यों से उसे अपने जीवन काल में बहुत अधिक लोकप्रियता प्राप्त हुई थी। उसके शासनकाल में ही मार्तंड सूर्य मंदिर का निर्माण कराया गया था, जो कि कश्मीर के इतिहास का एक महत्वपूर्ण अंग है। उसके स्वाभिमान को वैदिक संस्कृति के उत्थान और हिंदू स्वाभिमान के स्वर्ण युग के रूप में स्मरण किया जाता है।
डॉक्टर राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत