मायावती को कम करके आंकने की भूल ना करें अखिलेश यादव
अजय कुमार
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के समय सपा प्रमुख अखिलेश यादव लगातार अपनी चुनावी सभाओं में कहते घूमते रहे थे कि बसपा को वोट देना बेकार है। वह कह रहे थे कि बसपा, बीजेपी की बी टीम है तथा भाजपा और बसपा के बीच समझौता हो गया है।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के समय समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने बसपा को बीजेपी की बी टीम बता कर मायावती के खिलाफ जो सियासी लड़ाई शुरू की थी, उससे बसपा को तो नुकसान हुआ ही समाजवादी पार्टी को भी इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। सपा की उम्मीद के अनुसार दलित वोट उनकी पार्टी में जाने की बजाय बीजेपी की तरफ चले गए, जिससे बसपा-सपा दोनों को नुकसान हुआ और बीजेपी ‘दो बंदरों’ की लड़ाई में फायदा उठा ले गई।
दरअसल, सपा प्रमुख अखिलेश यादव लगातार अपनी चुनावी सभाओं में कहते घूमते रहे थे कि बसपा को वोट देना बेकार है। वह कह रहे थे कि बसपा, बीजेपी की बी टीम है तथा भाजपा और बसपा के बीच समझौता हो गया है। चुनाव बाद बीजेपी मायावती को राष्ट्रपति बनाएगी। अखिलेश की इस बात पर बड़ी तादाद में वोटरों को भरोसा भी होने लगा, लेकिन इसके विपरीत उम्मीद के अनुसार समाजवादी पार्टी को इसका कोई फायदा नहीं मिला, बल्कि उम्मीद के विपरीत सपा को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। अखिलेश को लगता था कि बसपा को बीजेपी की बी टीम बताने से मुस्लिम वोटर बसपा के पक्ष में मतदान नहीं करेगा, उनकी यह सोच सही साबित हुई, लेकिन बसपा को कमजोर देख कर बीएसपी के कोर वोटर माने जाने वाले दलितों ने भी मायावती से मुंह मोड़ लिया। मुस्लिम वोटरों ने जहां सपा का रुख किया वहीं दलित वोटरों ने बीजेपी की तरफ कदम बढ़ा दिए। नतीजा यह हुआ कि मुसलमानों के वोट से सपा को उतना फायदा नहीं हुआ, जितना फायदा बीजेपी को दलित वोट मिलने से हो गया। बीजेपी की पूर्ण बहुमत की सरकार बन गई और सपा को 111 सीट पर ही संतोष करना पड़ा।
जो लोग समाजवादी सरकार बनने का सपना देख रहे थे, उनके अरमानों पर पानी फिर गया। इसी के साथ अखिलेश यादव के खिलाफ पार्टी के भीतर से आवाज उठने लगी। खासकर जो आजम खान अभी तक अखिलेश यादव को लेकर चुप्पी साधे हुए थे, उनके समर्थकों ने आजम की नाराजगी की बात सामने रखकर मानो अखिलेश के ऊपर बम फोड़ दिया। आजम की नाराजगी सामने आते ही एक-एक कर कई मुस्लिम नेताओं और संगठनों ने भी अखिलेश के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। उधर मौका देखकर बसपा सुप्रीमो मायावती भी अखिलेश यादव के खिलाफ हमलावर हो गई हैं। मायावती, अखिलेश पर तंज कस रही है कि जो स्वयं सीएम नहीं बन सकता है वह हमें (मायावती) भला पीएम क्या बना सकता है। मायावती ने यह भी स्पष्ट किया कि वह राष्ट्रपति नहीं बनना चाहती हैं। वह सीएम या पीएम बनेंगी। मायावती ने अखिलेश को तब निशाने पर लिया है जब वह चारों तरफ से घिरे हुए हैं। शिवपाल यादव, आजम खान, जयंत चौधरी, ओमप्रकाश राजभर एवं तमाम मुस्लिम संगठन उनको आंखें दिखा रहे हैं।
बहरहाल, बसपा सुप्रीमो जिस तरह से अखिलेश पर हमलावर हैं उससे राजनीति के जानकार आश्चर्यचकित नहीं हैं। राजनीतिक पंडितों को कहना है कि अखिलेश ने बसपा सुप्रीमो को हल्के में लेकर मुसीबत की घड़ी में एक और नया मोर्चा खोल लिया है। अब तक चार बार उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज हो चुकी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) भले ही विधानसभा में एक सीट तक सिमट गई हो, लेकिन मायावती के हौसले अब भी बुलंद हैं। मायावती को सियासत में बड़े उलटफेर करने वाला खिलाड़ी माना जाता है। कई बार तो मुलायम भी मायावती के सियासी दांवपेंच में फंस जाया करते थे। अखिलेश तो अभी उनके मुकाबले काफी कम अनुभवी हैं। बसपा सुप्रीमो अपने खिलाफ चल रही सभी साजिशों को नाकाम करने में लगी हैं। हाल ही में लंबे समय से चल रही उनके राष्ट्रपति बनने की अटकलों को एक बार फिर खारिज करते हुए बसपा सुप्रीमो ने कहा है कि वह आराम की जिंदगी नहीं चाहती हैं, बल्कि पिछड़ों-वंचितों को उनका हक दिलाने के लिए उत्तर प्रदेश की सीएम और देश की पीएम बनना चाहती हैं। कोई इसे मायावती की साफगोई बताकर उनकी इच्छाशक्ति की तारीफ कर रहा है तो कुछ लोग ये भी सवाल उठा रहे हैं कि क्या मायावती की यह ख्वाहिश पूरी हो सकती है? क्या दुर्बल-निर्बल हो चुका बसपा का हाथी दोबारा अपनी ताकत हासिल कर सकता है?
मायावती इस बात को अच्छी तरह जानती हैं कि उनके कोर वोटर्स भी उनका साथ छोड़ चुके हैं और उनको वापस लाए बिना यह संभव नहीं है।
मायावती ने कहा, ”यदि यूपी सहित पूरे देश में दलित, आदिवासी, पिछड़ा वर्ग, मुस्लिम और अपर कास्ट में से गरीब तबगा बसपा से जुड़ जाता है तो ये लोग बीएसपी की मुखिया को यूपी का मुख्यमंत्री बना सकते हैं और आगे चलकर देश का प्रधानमंत्री भी बना सकते हैं, क्योंकि इन वर्गों के वोटों में बहुत ताकत है। बशर्ते ये लोग एकजुट होकर बसपा से जुड़ जाएं और चुनाव में किसी तरह गुमराह ना हों।” खैर, मायावती की बातों और सियासी सोच को हल्के में नहीं लिया जा सकता है।
भले ही यूपी विधानसभा चुनाव से काफी पहले से ही मायावती की निष्क्रियता को लेकर सवाल उठने लगे थे। विपक्ष और राजनीतिक के जानकार कभी उन पर भाजपा के सामने सरेंडर करने का आरोप लगाते तो अटकलें यह भी थीं कि मायावती को भाजपा राष्ट्रपति बनाकर उनके वोटर्स को अपने पाले में कर सकती है। मायावती ने राष्ट्रपति के पद को ‘ऐश और आराम’ का बताकर यह साफ कर दिया है कि वह अभी राजनीति के मैदान से बाहर नहीं जा रही हैं।
उधर, बात अखिलेश के बसपा सुप्रीमो मायावती के भाजपा द्वारा राष्ट्रपति बनाए जाने के संबंध में किए जा रहे दावे की कि जाए तो लाख टके का सवाल यही है कि आखिर बीजेपी उन्हें राष्ट्रपति क्यों बनाना चाहेगी? बीजेपी तो पहले ही उनके एक बड़े वोट बैंक पर कब्जा कर चुकी है। लंबे समय से बीजेपी की विचारधारा पर सवाल उठाती रहीं मायावती को यह पार्टी पहले सीएम बना चुकी थी, लेकिन बदले में क्या हासिल हुआ? बात जहां तक बसपा सुप्रीमो मायावती की राजनीति की है तो 2007 में मायावती ने समाज के सभी वर्गों को साथ जोड़ा था जो एक नायाब और सफल प्रयोग था, लेकिन उसे उन्होंने जारी नहीं रखा। वह सिर्फ ब्राह्मण-दलित गठजोड़ नहीं था, उसमें समाज के सभी वर्गों का योगदान था। कहते हैं कि किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए तीन आधार स्तंभ होते हैं- संगठन, विचारधारा और नेतृत्व। कांशीराम ने उन्हें एक सशक्त विचारधारा के आधार पर मजबूत संगठन बनाया था। उनका नेतृत्व भी मजबूत था जिसे उन्होंने मायावती को ट्रांसफर किया, लेकिन अब तीनों ही मोर्चे पर पार्टी कमजोर हो चुकी है।
बात मायावती के सामने आने वाली चुनौतियों की की जाए तो मायावती अब तक चार बार यूपी की सत्ता में आईं, जिनमें से तीन बार उन्होंने किसी दूसरी पार्टी के सहारे सरकार बनाई, सिर्फ 2007 में वह अपने दम पर मुख्यमंत्री बनी थीं। लेकिन अब कोई भी राजनीतिक दल बसपा को अपने साथ लेने की इच्छुक नहीं दिखता है। दूसरी दिक्कत यह है कि मायावती कभी विपक्ष की राजनीति नहीं करती हैं, वह सिर्फ सत्ता की राजनीति करती हैं। जब वह विपक्ष में रहती हैं तो जमीन पर उतरकर संघर्ष करती नहीं दिखती हैं। एक समस्या यह है कि बसपा के पास अब मजबूत और जनाधार वाले नेताओं का टोटा पड़ गया है। जबकि एक समय मायावती के पास सभी समाज के बड़े दिग्गज नेता हुआ करते थे, जो सियासत का रुख बदलने में सक्षम थे, लेकिन मायावती के तानाशाही रवैये और हाल में संपन्न विधानसभा चुनाव में लचर प्रदर्शन से सब कुछ खत्म होने की स्थिति में आ गया। फिर भी अखिलेश यादव को बसपा सुप्रीमो को हल्के में लेने की गलती नहीं करनी चाहिए।