देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट (चेयरमैन ‘उगता भारत’ समाचार पत्र)
धर्म जीवन में धारण करने के नियमों का नाम है । जो हो समस्त सृष्टि का एक ही होता है। धर्म कोई ग्रहण करने की योग्य वस्तु नहीं है।धर्म भिन्न-भिन्न नहीं हो सकता। यदि कोई भिन्न-भिन्न है तो वह मत, पंथ, रिलीजन, मजहब हैं जो धर्म की श्रेणी में नहीं आते।जीवन में अनुशासित रहना,सत्य का आचरण व सत्य का अनुसरण करना, धैर्य रखना, दूसरे के प्रति क्षमा भाव रखना, जीवन में मन, वचन और कर्म में पवित्रता रखना,
क्रोध नहीं करना, हानि_ लाभ मान- अपमान आदि में समान रहना, मन, वचन और कर्म से चोरी नहीं करना, इंद्रियों के वशीभूत न होकर इंद्रियों को अपने बस में करना अर्थात इंद्रियों को बहिर्मुखी होने से रोक कर अंतर्मुखी करना धर्म है। अर्थात धर्म नियम बद्ध आचरण को कहते हैं। धर्म सनातन ,पुरातन एवं सतत रूप से समान है। जिसका क्रमबद्ध विकास हुआ है।
जैसे अन्य मजहब, रिलीजन में एक पवित्र किताब होती है और उनमें कोई एक देवदूत होता है जिनकी वह उद्घोषणाएं तथा भाषाएं होती हैं, ऐसा कोई एक देवदूत और कोई एक ऐसी पुस्तक वैदिक संस्कृति में नहीं है।
बल्कि वेदादि पुस्तकों,सत साहित्य ,आर्ष साहित्य का अध्ययन करने के पश्चात जो निष्कर्ष निकलता है वह धर्म है।
धर्म गतिशील आचार संहिता है।
जैसे सृष्टि में प्रकृति, सूर्य, चंद्र, पृथ्वी, मंगल ,बुध ,शुक्र ,शनि सभी अपने अपने कक्षाओं में बिना किसी दूसरे को अवरोध पैदा किए घूमते हैं और अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदान करते हैं वह उनका धर्म है ऐसे ही मनुष्य का धर्म होना चाहिए जो दूसरे के लिए अवरोध में बनकर विकास में सहायक हो सके।
जिससे मानवता जीवंत रहे।