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मैगी के बहाने कुछ मूल प्रश्न

maggiनेसले कंपनी की मैगी नामक सिंवैया ज़हरीली है या नहीं, यह अभी पूरी तरह से तय नहीं हो पाया है लेकिन अभी तक जितने भी परीक्षण हुए हैं, उनमें से ज्यादातर में मैगी को खतरनाक पाया गया है। उसमें दो ऐसे तत्व पाए गए हैं, जो काफी खतरनाक हैं। इसी आधार पर कई राज्यों ने मैगी की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया है। उसका दस हजार करोड़ रु. का धंधा अधर में लटक गया है।

कुछ प्रयोगशालाओं की राय है कि मैगी में शीशे की मात्रा जितनी होनी चाहिए, उससे वह सात गुना ज्यादा है। और मोनोसोडियम ग्लूटामेट नामक रसायन भी खतरे के बिंदु से ज्यादा है। अभी तो ये सिर्फ दो ही आपत्तिजनक तत्व पाए गए हैं। गहरी जांच होने पर अन्य खतरनाक तत्व भी पाए जा सकते हैं। खाने की चीज़ों में शीशे की अधिकता के कारण मनुष्य के शरीर में रक्तचाप, किडनी और स्नायविक तंत्र की समस्याएं बढ़ती चली जाती हैं। इसी तरह मोनोसोडियम ग्लूटामेट के कारण अनेक शारीरिक और मानसिक गंभीर बीमारियां हो जाती हैं। ये इतने धीरे-धीरे होती हैं कि लंबे समय तक इनका पता ही नहीं चलता। सिर्फ मैगी ही नहीं, ये ज़हरीले रसायन पीज़ा,बर्गर, चिकन, पेटिस, कोला जैसे अनेक ‘जंक फूड’ में मिला दिए जाते हैं ताकि वे ज्यादा चटपटे, ज्यादा स्वाद और ज्यादा ताज़ा लगें। अनेक विशेषज्ञों और डाॅक्टरों का कहना है कि ये रसायन ‘मौन हत्यारे’ हैं। लेकिन नेसले कपनी अभी भी दावा कर रही है कि उसकी वस्तुओं में इन रसायनों की मात्र उतनी ही है, जितनी कि होनी चाहिए।

मान लें कि नेसले का दावा ठीक है या उसे प्रयोगशालाएं बाद में ठीक करार दें तो भी क्या मैगी सिंवैया जैसी बनी-बनाई चीज़ों का सेवन हम भारतीयों के लिए ठीक है? इस मूल प्रश्न का हम उत्तर खोजें, इसके पहले हमें यह पूछना चाहिए कि मैगी, जैसे खाद्य-पदार्थों का यह मामला क्या मिलावट का मामला नहीं है? ऐसा नहीं है कि मुनाफा लूटने के खातिर सिर्फ विदेशी कंपनियों ही मिलावट करती हैं। भारत-जैसे देशों में वे विशेष छूट लेती हैं और लापरवाही भी करती हैं लेकिन हमारे देसी विक्रेता भी किसी से कम नहीं हैं। उन्हें पकड़ने और दंडित करने के लिए सरकार क्या कर रही है? त्यौहारों के दिनों में मिठाइयों में अखाद्य पदार्थों की मिलावट के हादसे हर शहर और गांव में सुने जाते हैं। दूध और मावे में कितनी जहरीली चीज़ों को मिलाया जाता है, इसकी कल्पना भी साधारण आदमी नहीं कर सकता। और तो और शराब को भी लोग नहीं छोड़ते। शराब अपने आप में विनाशकारी पेय है। उसमें भी ऐसी ज़हरीली चीज़ें मिलाई जाती हैं कि हर साल सैकड़ों गरीब लोग मौत की गोद में सोने को मजबूर हो जाते हैं। 2006 में सरकार ने खाद्य-सुरक्षा और शुद्धता कानून पास किया था, जिसके अंतर्गत साधारण जुर्माने से मौत की सजा तक का प्रावधान था लेकिन क्या आज तक किसी को भी फांसी पर लटकाया गया? कई राज्य ऐसे हैं, जिनमें खाद्य-पदार्थों की शुद्धता की जांच करने के लिए जितने इंस्पेक्टरों का प्रावधान है, उसके आधे ही नियुक्त हैं। जो नियुक्त हैं, उनके काम में जरुरी मुस्तैदी नहीं है और जो मुस्तैद हैं, उनमें से ज्यादातर रिश्वत से ठंडे कर दिए जाते हैं। संसद में प्रस्तुत एक रपट के मुताबिक पिछले साल खाद्य-अशुद्धता के 10,200 मामले पकड़े गए थे, जिनमें से सिर्फ 913 को सजा मिली याने 10 प्रतिशत भी नहीं। नेसले या इस जैसी दर्जनों विदेशी कंपनियां करोड़ों भारतीयों को आज से नहीं, बरसों से ठग रही हैं, इसके लिए कौन जिम्मेदार है? एक औसत भारतीय कैसे मालूम करेगा कि कौनसा पदार्थ शुद्ध है और कौनसा खाने लायक नहीं है? यह काम सरकार का है। अब सरकारें जाग पड़ी हैं तो उसका असर सारे देश में दिखाई पड़ रहा है।

इस तरह के खतरनाक खाद्य-पदार्थों की अंधाधुंध बिक्री के लिए उन फिल्मी सितारों को जिम्मेदार ठहराया जाता है, जो इनका विज्ञापन करते हैं। वे इनकी बिक्री के लिए तो जिम्मेदार हैं, मिलावट के लिए नहीं। उन्हें क्या पता कि इन पदार्थों में क्या मिलाया जाता है? उन्हें तो अपने पैसों से मतलब है। जो पैसा देगा, वे उसकी डुगडुगी बजाएंगे। इसीलिए वे लोकप्रिय तो होते हैं लेकिन लोक-प्रतिष्ठित नहीं होते। फिर भी हमारे सितारे काफी सजग हैं। उन्होंने पहले भी कुछ विवादास्पद वस्तुओं के विज्ञापन से खुद को अलग कर लिया था।

ऐसे मामलों में सरकार और सितारों की जिम्मेदारी तो है ही लेकिन सबसे बड़ी जिम्मेदारी जनता की है। जनता इन चीज़ों का आंख मींचकर इस्तेमाल क्यों करती है? यदि वह इन बहिष्कार करने लगे तो ये मुनाफाखोर कंपनियां भारत से भाग खड़ी होंगी। क्या आपको पता है कि चीन, जापान और इंडोनेशिया के बाद भारत ही मैगी की सूखी सिंवैया का सबसे बड़ा उपभोक्ता है? हमारे देश के मध्यम वर्ग का और खासकर उसके जवानों का यह सबसे प्रिय भोजन है। क्यों बन गया है, यह उसका प्रिय भोजन? इसलिए नहीं कि इससे स्वादिष्ट चीज़ें भारत में नहीं बनतीं। बनती हैं और उनकी संख्या असंख्य है लेकिन कुछ विदेशी चीज़ें ऐसी हैं, जो बिना किसी कारण महान दिखने लगती हैं। उसका कोई कारण है तो वह हमारी गुलाम मानसिकता या हीनता-ग्रंथि है। यह सिर्फ खाने तक ही सीमित नहीं है। इसे मैं ‘पंचभकार’ की व्याधि कहता हूं। याने हम अपनी भाषा, भूषा, भोजन, भेषज और भजन- इन पांचों मामलों में नकलची बनते जा रहे हैं। लोग अंग्रेजी क्यों बोलते हैं? कोट-पेंट क्यों पहनते हैं?मांस-अंडा क्यों खाते हैं? एलोपेथी की दवाइयां क्यों लेते हैं और पश्चिम का ऊटपटांग संगीत क्यों सुनते हैं? क्योंकि यदि वे यह सब नहीं करेंगे तो लोग उन्हें पिछड़ा समझेंगे। ये सब सभ्य होने , भद्रलोक होने, एलीट होने की निशानी है। इसका अर्थ यह नहीं कि मैं विदेशी वस्तुओं, तकनीकों और विचारों के पूर्ण बहिष्कार का समर्थक हूं। लेकिन उन्हें स्वीकार करते समय हमें हमेशा सावधान रहना होगा कि वे हमारी जीवन—पद्धति से पूरा मेल खाएं। जाहिर है कि सामान्य नागरिकों के पास न तो इतनी फुर्सत होती है और न ही उतनी गहरी समझ कि वे बाहर से थोपी जा रही चीज़ों में अच्छे—बुरे का भेद कर सकें। वे तो भेड़—चाल चलने लगते हैं। वे चलते ही नहीं हैं,दौड़ते हैं। नकलचीपन की यह अंधी दौड़ भारत के मध्यवर्ग की पहचान बन गई है।

इस गुलाम मानसिकता के चलते हम प्राकृतिक जीवन के बदले एक बनावटी जीवन जीने लगे हैं। गर्मी-सर्दी बर्दाश्त करने की बजाय अब मध्यमवर्गीय भारतीय ‘एयरकंडीशनर’ के बिना सो नहीं सकता। आजकल मकान ऐसे बनने लगे हैं, जिनमें खिड़कियां और झरोखे नहीं होते। हम ‘डिब्बाबंद जिंदगी’ जीने  लगे हैं। खाना भी डिब्बाबंद और मकान भी डिब्बाबंद। हर मध्यमवर्गीय घर में ‘फ्रिज’ और ‘टीवी’ आ गया है। फ्रिज का अर्थ है-‘बासीघर’। हर चीज़ को बासी करो। फिर खाओ। यदि फ्रिज में रखी चीज़ धीरे—धीरे सड़ती नहीं है तो उसे दो—तीन महीने रखकर देख लीजिए। टीवी का अर्थ है- अपने घर को नाटकघर बना लो। परिवार की अपनी निजता और पारस्परिकता घटा लो। दूसरे शब्दों में आधुनिक वस्तुओं का अनियंत्रित इस्तेमाल भारत को अमेरिका का अंधानुयायी बना रहा है। नतीजा यह है कि देश में भयंकर बीमारियां और अपराध बढ़ रहे हैं। इन प्रवृत्तियों पर सिर्फ कानून काबू नहीं पा सकता। यह नेताओं के भी बूते की बात नहीं है। इसके समाधान के लिए हम सबको आगे आना होगा।

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