मधुसूदन आनन्द
रूस-यूक्रेन युद्ध में इधर परमाणु अस्त्रों का प्रयोग करने की बात ऐसे की जा रही है जैसे परमाणु बम छोड़ने की आशंका पटाखा छोड़ने के कौतूहल जैसी हो। रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और उनके विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव परमाणु युद्ध का खतरा ऐसा दिखा रहे हैं, मानो यह कोई सामान्य सी बात हो, जिसके उत्तर में अमेरिकी प्रशासन भी उतनी ही गैरजिम्मेदारी से कह रहा है कि अव्वल तो यह दो महीनों से भी ज्यादा समय से चल रहे युद्ध को और भड़काने की धमकी है, लेकिन अगर खुदा न ख्वास्ता ऐसा मौका भी आया तो रूस को त्राहिमाम करना पड़ जाएगा। रूस के पास बेशक दुनिया में सबसे ज्यादा परमाणु बम हैं, लेकिन अमेरिका के पास भी कोई कम परमाणु जखीरा नहीं है। मामला क्यूबा के 1962 के मिसाइल संकट के आसपास जा पहुंचा लगता है, जब अमेरिका और तत्कालीन सोवियत संघ बिल्कुल परमाणु युद्ध के कगार पर आ गए थे।
इससे पहले अमेरिका ने दूसरे महायुद्ध में अगस्त 1945 में जापान के दो शहरों हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराए थे जिसकी वजह से 1 लाख 29 हजार से लेकर 2 लाख 26 हजार तक मासूम लोगों की भयावह मृत्यु हो गई थी। बाद में हुए अध्ययनों से निष्कर्ष निकाला गया कि परमाणु युद्ध से हमारी पृथ्वी के अस्तित्व को सबसे बड़ा खतरा है। इससे जमीन और आसमान पर, हवा और पानी में इतनी गर्मी और आग पैदा होती है, जितनी प्रायः सूरज की सतह पर होती है। महानगर, गांव, वन, खेत-खलिहान कई-कई दिनों तक जलते रहेंगे। हवा आग बन जाएगी और जगह-जगह ज्वालाएं भड़केंगी। नदी-नाले, तालाब आदि विषाक्त हो जाएंगे। सब कुछ जल जाने के बाद धुआं उठेगा और हमारा आकाश ढक जाएगा। सूरज दिखाई नहीं देगा और सिर्फ लंबी रात ही शेष रह जाएगी। फिर धीरे-धीरे तापमान गिरेगा और न्यूक्लियर विंटर – (परमाणु-शीत) शुरू होगा। रेडियोधर्मिता भूमिगत पानी को भी विषाक्त कर देगी। न पीने को पानी होगा, न खाने को खाना और न ही सांस लेने को हवा। समूचा जीवन नष्ट हो जाएगा। न पेड़-पौधे बचेंगे, न कोई वनस्पति। शायद बचेंगे तो सिर्फ चूहे और कॉकरोच।
इस निष्कर्ष पर पहुंचकर मनुष्य ने सोचा कि पृथ्वी पर कभी परमाणु युद्ध होगा ही नहीं क्योंकि न तो कभी कोई हमलावर बचेगा और न कोई शिकार। इसलिए परमाणु युद्ध की विभीषिका की कोई कल्पना ही नहीं करेगा और परमाणु हथियार लड़ने के नहीं बल्कि लड़ाई रोकने के अस्त्र होंगे। इस मनुष्यहंता बल्कि जीवनहंता सचाई के सामने आने के बाद होना तो यह चाहिए था कि सभी देश अपने-अपने परमाणु हथियारों को पूरी तरह से नष्ट कर देते, लेकिन उनमें नए से नया परमाणु बम बनाने की होड़ मची है। दुनिया में इतने परमाणु हथियार हैं कि इस पृथ्वी को एक बार नहीं, हजार बार नेस्तनाबूद किया जा सकता है। सवाल है कि क्या परमाणु बम का मंत्र जाप हमेशा के लिए बंद होगा? क्या परमाणु युद्ध की खौफनाक सचाई के खिलाफ विवेक को जाग्रत रखने के लिए नागरिक-समाज को संस्कारित किया जाएगा? यह मौका है कि सभी देश परमाणु हथियारों को नष्ट कर दें और संकल्प लें कि चाहे कुछ भी हो जाए परमाणु-मौत के कुएं में कभी भी कोई तमाशा नहीं दिखाएंगे।
परमाणु विकल्प की बात बेशक रूस ने रखी है, लेकिन वह किसी तर्क की आड़ में छिप नहीं सकता। रूस का कहना है कि अमेरिका और उसके समर्थक उत्तर अटलांटिक संधि संगठन यानी नाटो देश हमें घेरना चाहते हैं जिससे हमारे अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है। इस खतरे से निपटने के लिए हम किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। दरअसल सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस को अंतरराष्ट्रीय जगत ने उसका उत्तराधिकारी तो अवश्य मान लिया और यह भी मंजूर कर लिया कि अमेरिका के मुकाबले उसकी सैन्य-शक्ति बरकरार है, लेकिन आर्थिक ताकत के रूप में वह अमेरिका से सैकड़ों मील पीछे है। जो सोवियत संघ अपने बिखरने से पहले अमेरिका के साथ वर्षों तक शीत युद्ध के दौरान मुस्तैदी से खड़ा रहा, उसके वारिस रूस को अमेरिका हल्के में ले रहा है। शीत युद्ध के दौरान अमेरिकी नेतृत्व वाला नाटो सैन्य-संगठन सोवियत संघ से पंगा लेने के पहले दस बार सोचता था। लेकिन सोवियत संघ के टूटने के बाद वह रूस को उसकी औकात बताने की हिम्मत करने लगा है। वारसा संधि संगठन का तो कोई नाम लेने वाला तक दिखाई नहीं देता, लेकिन नैटो लगातार फैल रहा है और मजबूत हुआ है।
रूस ने आरोप लगाया है कि अमेरिका और उसके नैटो के मित्र देश यूक्रेन में छद्म युद्ध लड़ रहे हैं। लेकिन रूस ने जिस तरह मासूम बूढ़ों, औरतों और बच्चों को बमों आदि से मारा है और एक जीवंत देश को खंडहरों और विध्वंस के दृश्यों में तब्दील कर दिया है, उससे सभी हैरान हैं और कह रहे हैं कि क्या तोल्सतोव, चेखव, गोर्की और दोस्तोएव्सकी का देश इतना नीचे गिर सकता है? रूसी साहित्यकारों ने जो जीवन मूल्य बनाए, उनमें इतनी जल्दी खोट उभर आया?
दूसरी तरफ नाटो देशों का कहना है कि नाटो की छतरी उन्हें ताकत और आत्मविश्वास से भरती है। इस संधि के अंदर प्रावधान है कि अगर किसी भी नाटो देश पर हमला होता है तो अन्य नाटो देश उसे अपने पर हमला मानते हुए युद्ध में कूद पड़ेंगे। दूसरी बात यह कि नाटो के बजट का 70.5 प्रतिशत भाग अमेरिका मुहैया कराता है और बाकी 29.5 प्रतिशत हिस्से में शेष 29 देश शामिल हैं। ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी को छोड़कर इन देशों को अपने जीडीपी का बहुत ही छोटा हिस्सा अंशदान के रूप में देना पड़ता है। ज्यादातर को 1 प्रतिशत से भी कम और आइसलैंड जैसे देश को शून्य, जिसकी अपनी कोई नियमित सेना ही नहीं है। यूक्रेन में सचाई यही है कि पूरा नाटो संगठन उसे नए से नए हथियारों और नए रक्षा सामान की आपूर्ति कर रहा है, जिसके बल पर यूक्रेन तबाह होते हुए भी मैदान में डटा हुआ है। लेकिन आखिर कब तक?
किसी भी मसले का हल युद्ध नहीं होता। युद्ध के बाद भी संधियां करनी पड़ती हैं और बातचीत जरूरी होती है। फिर परमाणु युद्ध तो मनुष्यता को पश्चाताप तक का अवसर नहीं देगा। जितनी जल्दी विवेक जागे उतना ही अच्छा है। कम से कम ‘परमाणु युद्ध’ जैसा शब्द तो हमारे जीवन क्या सपने तक में सुनाई नहीं देना चाहिए।
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