शेषनाग पर नृत्य करते श्री कृष्ण जी का रहस्य
कृष्ण को शेषनाग पर करते हुए नृत्य हमने देखा ,
बल खाती माथे पर पड़ गई एक हमारे रेखा ।
किस मूर्ख ने कर डाली है यह शरारत गहरी ?
आओ ! सच को समझें, क्या है इसका लेखा ?
सचमुच लोगों ने हमारे महापुरुषों के साथ पता नहीं क्या-क्या जोड़ दिया है ? जिसे देखकर और उसके वैज्ञानिक वास्तविक अर्थ को जानकर इन अज्ञानी मूर्खों की बुद्धि पर बड़ा तरस आता है। श्री कृष्ण जी और शेषनाग की इस कपोल कल्पित कहानी को पढ़कर, सुनकर या कहीं देखकर मैं अक्सर यह सोचा करता हूं कि क्या यह शेषनाग केवल द्वापर के अंत में ही पैदा हुआ था ? क्या उसके बाद नहीं हुआ ? क्या अब कोई शेषनाग नहीं है?
जिसके कभी दर्शन हो जाए।
आइए विचार करते हैं, उस शेषनाग पर जो पांच फन वाला है।
वास्तव में वह शेषनाग आज भी है, परंतु उसे समझने की आवश्यकता है। हमारे विद्वान ऋषि मुनियों ने जिस प्रकार रूपक के माध्यम से बातों को कहा है उन्हें हमने सही अर्थ में समझा नहीं है। आज उसके सही अर्थ को समझते हैं।
शेषनाग आजकल कलयुग में अपने और भी अधिक भयंकरतम स्वरूप में दिखाई देता है।
अपने भयंकर स्वरूप में रहने वाला यह शेषनाग आज भी जिस प्रकार फुंकारता है उसे देखने व समझने की आवश्यकता है। इसके पांचों फन आज भी फुंकार रहे हैं। अपनी फुंकार को तीव्र गति से करके समस्त विश्व में कोलाहल मचाए हुए हैं।
ऐसे शेषनाग को कृष्ण जी ने अपने वश में कैसे करके उनके ऊपर नृत्य किया था?
देखिए, शेषनाग वास्तव में कोई सर्प नहीं है। लेकिन पांच प्रकार के सर्प प्रत्येक व्यक्ति के अंदर अवस्थित हैं ,विद्यमान हैं।
जो बुद्धिमान लोग होते हैं वही पांचों नागों को अपनी आत्म शक्ति के बल पर, ज्ञान से और विवेक से वश में कर लेते हैं।
वह पांच नाग कौन से हैं,?
1 काम ,2 क्रोध ,3 लोभ 4, मोह, 5 अहंकार ।
इन पांचों भयंकर नागों को वश में करना हर किसी के वश की बात नहीं है। बहुत बड़ी साधना और आत्मशक्ति की आवश्यकता होती है जब जाकर यह पांच नाग वश में होते हैं। इनमें से कोई सा एक भी यदि मनुष्य पर हावी प्रभावी हो जाए तो वह ही उसकी मौत का कारण बन जाता है। संसार से जितने भर भी लोग जा रहे हैं वह सभी इनमें से किसी न किसी एक नाग के दंश लेने से ही जा रहे हैं । कहने का अभिप्राय है कि किसी के अंदर काम अधिक है, किसी के अंदर क्रोध, किसी के अंदर मद तो किसी के अंदर मोह या लोभ अधिक है। बस, थोड़ी सी अधिक मात्रा होने से ही इनमें से कोई सा एक नाग मनुष्य की मौत का कारण बन जाता है। अमरत्व की प्राप्ति के लिए इन सब के ऊपर बैठ जाना और साधना की सफलता की घोषणा करते हुए नृत्य करना – यह श्री कृष्ण जी जैसे साधक के द्वारा ही संभव है । इसलिए अपने श्री कृष्ण जी की महानता और उनकी साधना की उत्कृष्टता को नमन करना चाहिए कि उन्होंने इन 5 नागों को वश में करके दिखाया।
साधना की सफलता इसी में है कि इन पांचों नागों को शांत करके अपने वश में किया जाए। विद्वान लोग अपने भीतर उठते, मचलते, तूफानों के बादलों को शांत करते हैं और अपने आप देखते हैं कि कौन सा नाग या कौन सा विकार हावी होकर उसके बनते हुए काम को बिगाड़ने में योगदान दे रहा है ? इसलिए वह शांत साधना के माध्यम से अपने बिगड़े हुए नाग को अथवा विकार को शांत करता है। संसार में सार्थक जीवन की साधना इसी प्रकार की शांतिपूर्ण मन:स्थिति से ही संभव है।
विवेक और वैराग्य की अनुभूतियों से निकलने वाला साधक जब आत्मसाक्षात्कार कर लेता है तो उसे भीतर बैठे हुए भयंकर शत्रुओं अथवा इन 5 नागों का ज्ञान हो जाता है। यही अवस्था वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति की अवस्था कही जाती है। ऐसा व्यक्ति अपने आप को भीतर से पकड़ता है। बाहरी दुनिया नहीं समझ पाती कि अमुक साधक ने अपने आप को कहां से पकड़ लिया है ? जब कोई भी विरक्त, विवेकी, ज्ञानवान पुरुष अपने आप को भीतर से पकड़ कर बैठ जाता है तो वह आत्मा के लोक में पहुंचकर आनंद की अनुभूति करने लगता है। तब आत्मा इन नागों को अपने वश में करके बाहर नहीं आने देता। इसी अवस्था को पांच फनों के ऊपर आत्मा रूपी कृष्ण को नृत्य करते हुए दिखाया जाता है।
कृष्ण जी को ही क्यों दिखाया जाता है?
क्योंकि कृष्ण जी एक योगी पुरुष थे। उन्हें योगियों के प्रतीक पुरुष के रूप में या प्रतिनिधि पुरुष के रूप में यहां पर सर्वोच्चता प्रदान करते हुए यह स्थान दिया गया है। इसका अभिप्राय है कि प्रत्येक योगी और प्रत्येक ऐसा साधक जो आत्मसाक्षात्कार कर लेता है, वही कृष्ण के इस अनोखे आनंद का लाभ ले सकता है। उन्होंने काम, क्रोध ,लोभ, मोह, अहंकार को अपनी आत्मशक्ति से अपने वश में कर लिया था ।जैसे दुर्योधन के द्वारा पूरी सभा में किए गए अपमान को सहन किया। जब दुर्योधन पूरी सभा में ग्वाला कह करके उनको पुकार रहा था, उनकी मध्यस्थता करके समझौता करने पर प्रश्न उठा रहा था तो भी श्री कृष्ण जी शांत स्वभाव से मुस्कुराकर दुर्योधन की वार्ता सुन रहे थे। आत्मिक आनंद की अनुभूति में रहने वाला प्रत्येक योगी संसार के तूफानों के सामने हिलता नहीं है। क्योंकि वह भीतर से इतना मजबूत होता है कि बाहर के दुनिया के थपेड़े उसे बहुत हल्के दिखाई देते हैं। इसका एक कारण यह भी है कि वह बहुत बड़ी विजय अर्थात आत्मविजय का विजेता होता है। जिसने इतनी बड़ी विजय प्राप्त कर ली हो उसे बाहर के किसी दुर्योधन के द्वारा कहे जाने वाले अपशब्द समझ लो किसी भी तरह प्रभावित नहीं करते हैं।
यदि उस समय श्री कृष्ण जी चाहते तो सभी का अपने यौगिक यंत्र से गला काट सकते थे, लेकिन आत्म रक्षार्थ यौगिक यंत्र का प्रयोग नहीं किया था। ऐसे लोग महायोगी हुआ करते हैं।
अब यहां एक स्पष्टीकरण करना भी बहुत आवश्यक हो जाता है क्योंकि बहुत सारे वैदिक विद्वान भी इसको पढ़ सकते हैं। जिनके द्वारा भिन्न भिन्न प्रकार के प्रश्न अथवा शंकाऐ उत्पन्न की जाएंगी कि यह वेद में कहां है?
ऐसी विद्वतजनों से मेरा विनम्र निवेदन है कि पांच फन, शेषनाग ,आत्मा रूपी कृष्ण यह सब केवल समझाने के लिए अलंकारिक भाषा है । इसका वैदिक विद्या ,वैदिक सिद्धांत से कोई संबंध नहीं है। हमारे ज्ञानी ऋषि-मुनियों पूर्वजों की अपनी बात को कहने की यह अनोखी शैली थी कि वे बात को कहते समय रूपक अलंकार का प्रयोग करते थे। आनंद की जिन अनुभूतियों से वह निकल चुके होते थे उन्हें अभिव्यक्ति देते समय भी वह किसी रहस्य भरे आनंद की ओर संकेत कर जाते थे।
वेदों में भी बहुत प्रकरण अलंकारिक विद्याओं के हैं। सुविज्ञ एवं सुधि पाठक इस विषय में जानते हैं।
लेकिन काम, क्रोध, लोभ ,मोह, अहंकार को वश में करने के लिए अनेक संदेश ,उपदेश और आदेश वेदों में भरे पड़े हैं।
तो वास्तव में कोई शेषनाग नहीं और ना ही कृष्ण जी ने ऐसे किसी नाग के ऊपर नाच नचाया था ।इस भ्रांति को दूर करने के लिए मैंने यह सब विद्वानों की शिक्षाओं से सीख ले कर और कुछ अपने अनुभव के आधार पर आप तक लेखनी बद्ध करके पहुंचाया है।
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
चेयरमैन उगता भारत समाचार- पत्र
गेटर नोएडा, गौतम बुध नगर,
उत्तर प्रदेश, भारतवर्ष