इस भांग की घिसाई—पिसाई तो मुलायम सिंह की शिला पर ही हुई है। यदि अपने समधी लालू पर मुलायम दबाब नहीं डालते तो क्या लालू मान जानते? मुलायम का दबाब तो था ही लेकिन लालू और नीतीश दोनों समझ गए थे कि यदि वे आपस में लड़ेंगे तो भाजपा अपने २१ प्रतिशत वोट (पिछले लोकसभा चुनाव में) से ही विधानसभा पर कब्ज़ा कर लेगी और वे दांत पीसते हुए रह जाएँगे। यदि मुलायम—मंत्र में कोई जादुई शक्ति होती तो क्या वजह है कि दो माह बीत गए और छह पार्टियों का अभी तक विलय नहीं हुआ? असलियत तो यह है कि ये पार्टियाँ कम हैं, प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां ज्यादा हैं। न तो इनकी कोई विचारधारा है, न सिद्धांत है और न ही सुप्रशिक्षित कार्यकर्ता—वर्ग है। जन्मना जातियों के आधार पर राजनीति करने वाली इन पार्टियों के पास भेड़ों का वोट बैंक हैं लेकिन अब उसमें भी दरार पड़ रही है।
जो भी हो,यह समझौता कितने ही बेमन से हुआ हो और बाद में कितनी ही बेईमानी भी हो,यह निश्चित है कि भाजपा का बिहार—विजय का सपना अब फूलों की सेज नहीं रह जाएगा। भाजपा की केंद्र सरकार और पार्टी—नेतृत्व काम तो खूब कर रहे हैं और दावे उससे भी ज्यादा कर रहे हैं लेकिन आम मतदाताओं पर उनका कोई ख़ास असर दिखाई नहीं पड़ रहा है। बिहार की जातिवादी राजनीति में सेंध लगाने की तरकीबें भी भाजपा के पास पर्याप्त नहीं हैं। इसलिए अब बिहार का ऊँट किस करवट बैठेगा, कहना मुश्किल है।