सत्य को धारण करना हमारा राजनीतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक लक्ष्य है। हम उसी के आधार पर ‘विश्वगुरू’ बनने की अपनी साधना में लगे हैं। हमारा सैकड़ों वर्ष का स्वाधीनता संग्राम इसी सत्य की साधना के लिए था। क्योंकि यह सत्य ही न्यायपरक ढंग से हर व्यक्ति को जीने का अधिकार और स्वाधीनता प्रदान करता है। इसलिए सैकड़ों वर्ष का हमारा स्वाधीनता संग्राम मानव मात्र की स्वतंत्रता का संघर्ष था। हमने उस काल में भी सत्य को धारण किये रखा और उसी के लिए लड़ते रहे। जब देश स्वाधीन हुआ तो देश के राष्ट्रपति की गद्दी के पीछे अपने आदर्श को लिखकर मानो सारे देश ने अपने संकल्प को दोहराकर इस संकल्प के लिए बलिदान हुए अपने लाखों वीर योद्घाओं को भी अपनी भावपूर्ण श्रद्घांजलि अर्पित की। सारे देश ने उन सत्योपासक बलिदानियों के सामने नतमस्तक होकर अपनी कृतज्ञता ज्ञापित की। सत्य की साधना कृतज्ञता को सिखाती है। वह बार-बार हमसे कहलाती है-
‘‘मेरा मुझमें कुछ नही जो कुछ है सो तोय।
तेरा तुझको सौंपते क्या लागे है मोय।।’’
वेद, धर्म और सत्य
भारत में वेद, धर्म और सत्य का अन्योन्याश्रित संबंध है। जब हम वेद की ऋचाओं को बोलने और सत्य को धारण करने की प्रार्थना, संकल्प करते हैं, तो मानो वेद, धर्म और सत्य इन तीनों को हृदयंगम करते हैं। धर्म सत्य पर आधारित होता है और वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है। अत: जहां धर्म है-वहीं सत्य है और जहां सत्य है वहीं वेद है। एक के बिना शेष दो का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा।
भारत के ऋषियों ने इस सत्य को बड़ी गहराई से समझा था। इसलिए उन्होंने वेदानुयायी होकर सत्य और धर्म की रक्षा का संकल्प लिया। वेद ने भारत में जिस राजधर्म की घोषणा की, वह भी शत-प्रतिशत धर्माधारित रहा। वेद ने विश्व को सर्वप्रथम गणतंत्र का राजनीतिक दर्शन दिया। उस गणतंत्र की नींव भी भारत के ऋषियों द्वारा सत्य पर रखी गयी। गणतंत्र में राजधर्म पर संक्षिप्त प्रकाश डालने के लिए हम यहां केवल वेद के एक मंत्र का उल्लेख करना चाहेंगे, जिसमें राजा या राष्ट्रपति अपने लिए उन मौलिक सिद्घांतों (सत्य, धर्म) की चर्चा कर रहा है, जिनको वास्तव में उसकी योग्यता का मापक कहा जा सकता है। राजा अपने पुरोहित को राज्याभिषेक के समय यह वचन देता है-
‘‘सवित्रा प्रसवित्रा सरस्वत्या वाचा त्वष्ट्रा रूपै: पूष्णा पशुभिरिन्दे्रणास्मे। बृहस्पतिना ब्रह्मणा वरूणेनौजसा अग्नि तेजसा सोमेन राज्ञा विष्णुना दशभ्या देवतया प्रसूत: प्रसर्पामि।। (यजु. 10-30)
राजा कहता है कि मैं अपने शासनकाल में सविता, सरस्वती, त्वष्टा, पूषा, इंद्र, बृहस्पति, वरूण, अग्नि, सोम, विष्णु इन दस देवताओं से प्रेरणा प्राप्त करता हुआ राज्य का संचालन करूंगा अर्थात राजा अपने भीतर उन दिव्य गुणों की अनुभूति कर रहा है जिनके द्वारा जनकल्याण करना राज्य और राजनीति का मुख्य आधार हो सकता है, और होना भी चाहिए। यदि राजनीति से जनकल्याण को निकाल दिया गया तो वह बिना जनकल्याण के अर्थात अपने पावनधर्म के निर्वाह न करने के कारण जनता के लिए विनाशकारी भी हो सकती है। इसलिए मंत्र में राजनीति और धर्म का अद्भुत समन्वय स्थापित किया गया।
वेद की ऋचाओं में सत्य-धर्म का रस यूं तो सर्वत्र ही भरा पड़ा है, पर इस वेदमंत्र के ऋषि ने जितनी सुंदरता से सत्यधर्म का रस निचोडक़र हमें पिलाने का प्रयास किया है, वह अनुपम है। मैं समझता हूं कि विश्व में प्रत्येक संविधान को वेद के इस मंत्र को अपने राष्ट्रपति या शासन प्रमुख की योग्यता का पैमाना घोषित करना चाहिए। क्योंकि विश्व के सारे संविधानों का और उनके निर्माताओं का परिश्रम-पुरूषार्थ एक ओर है और वेद के इस मंत्र के ऋषि का चिंतन एक ओर है, और इसके उपरांत भी चमत्कार देखिए कि ऋषि का चिंतन सब पर भारी है।
राजा वचन दे रहा है और उसकी प्रजा उन वचनों को सुन रही है। सत्य-धर्म पर आधारित इन वचनों को आप ‘चुनावी वायदे’ नही कह सकते जिनके पीछे कोई शास्ति नही-होती। इसके विपरीत ये आप्त वचन हैं, जिनके पीछे सत्य-धर्म की शास्ति हैं, अर्थात राजा सत्यधर्म की रक्षा के लिए अपने दिये गये वचनों का पालन करने के लिए बाध्य है। सनातन धर्म की यही अनूठी विशेषता है कि यह कहे गये को करने के लिए प्रेरित करता रहता है, अन्यथा ‘पाप’ के भागी बनने के भय से हमें प्रताडि़त करता है। कहे गये को करने की प्रेरणा हमारे भीतर जहां से उठती है, कहीं-वहीं धर्म और सत्य का वास है।
इस मंत्र में ‘सविता’ उत्पत्ति का प्रतीक है, सविता से प्रेरणा लेकर राजा राष्ट्र में सब प्रकार के आवश्यक उत्पादनों की ओर ध्यान दे। सरस्वती वाणी का प्रतीक है। राष्ट्र की वाणी को (भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अर्थात ऐसी स्वतंत्रता जो नये-नये वैज्ञानिक अनुसंधानों को और नये-नये आविष्कारों को जन्म देने वाली हो और जिससे लोगों के मध्य किसी प्रकार की कटुता के बढऩे की तनिक भी संभावना ना हो, एक दूसरे को नीचा दिखाने वाली और एक दूसरे के विरूद्घ अपशब्दों का प्रयोग करने वाली साम्प्रदायिक भाषा न हो) राजा न रोके। मंत्र का अगला शब्द ‘त्वष्टा’ है। ‘त्वष्टा’ रूप का प्रतीक है।
राजा को चाहिए कि वह राष्ट्र में रूपरंग भर दे। कहने का अभिप्राय है कि राजा अपने सभी प्रजाजनों को प्रसन्नवदन रखने का हरसंभव प्रयास करे। सभी की त्वचा पर चमक हो और यह चमक जो कि रूप रंग का प्रतीक है, तभी चमकीली रह सकती है जबकि व्यक्ति समृद्घ और प्रसन्नवदन हो। मंत्र में आये ‘पूषा’ शब्द का भी विशेष अर्थ है। पूषा का अभिप्राय है कि पशुओं की रक्षा करना, पशुओं का रक्षक होकर राज्य करना। राजा के लिए यह आवश्यक है कि वह पशुओं का भक्षक न होकर रक्षक बनकर राज्य करेगा। अभिप्राय स्पष्ट है कि राजा राज्य में पशुवधशालाओं का निर्माण नही कराएगा। ना ही मांसाहारी होगा और ना ही मांसाहार को बढ़ावा देना उचित मानेगा। राजा सृष्टि के जीवन चक्र को समझने वाला हो, जिसके अनुसार प्रत्येक प्राणी का जीवित रहना दूसरे अन्य प्राणियों के लिए आवश्यक है। हर प्राणी के प्राणों की रक्षा का दायित्व राजा के ऊपर इसीलिए है कि वह सभी प्राणियों का संरक्षक है। जो लोग किसी पूर्वाग्रह के कारण या किसी साम्प्रदायिक मान्यता के कारण किन्हीं पशुओं की हत्या करते हैं उन्हें पूषा रूप राजा दण्ड दे। ऐसे राजा को राष्ट्र को कृषि और पशुपालन की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए।
मंत्र का अगला शब्द है-‘इंद्र’। इंद्र को हमारे वीरता और ऐश्वर्य का अर्थात समृद्घि का प्रतीक माना गया है। राजा का कत्र्तव्य है कि वह देश की प्रजा को वीर तथा ऐश्वर्यशाली बनाये। वीर्य रक्षा से वीर संतति का निर्माण होता है। राष्ट्र रक्षा के लिए बलवान, सभ्य और योद्घा पुत्रों की आवश्यकता अनुभव की जाती है। वह तभी संभव है, जब देश का राजा इंद्र, जैसा वीर तथा पराक्रमी हो क्योंकि देश की प्रजा अपने राजा का ही अनुकरण किया करती है। इसलिए विद्यालयों के पाठ्यक्रम में ब्रह्मचर्य रक्षा के सूत्रों को पढ़ाने की व्यवस्था राजा को करनी चाहिए। ‘ऊध्र्वरेता’ ब्रह्मचारियों का निर्माण जब तक हमारे विद्यालय करना आरंभ नही करेंगे, तब तक राष्ट्र में नारी का सम्मान हो पाना असंभव है। फिल्मों के माध्यम से अश्लीलता के प्रस्तुतीकरण से और फिल्मी हीरो-हीरोइनों के अश्लील प्रदर्शनों को प्रोत्साहित करने से देश में वीर संतति अर्थात बलवान सभ्य और योद्घा यजमान पुत्रों का निर्माण होना बाधित हो गया है। कारण कि हमने सत्य से मुंह फेर लिया है-वेदधर्म से, वेद ऋचाओं द्वारा प्रतिपादित धर्म व्यवस्था से हमने अपने आपको दूर कर लिया है।
।।राजा के लिए बृह्स्पति के समान होने की बात भी वेद मंत्र कहता है। बृहस्पति का आभामंडल एक अद्भुत प्रकाश के आवरण से आच्छादित होता है। यह प्रकाश बृहस्पति का ज्ञान प्रकाश है। जो उसे सबसे अलग और सर्वोत्तम बनाता है। इस प्रकार बृहस्पति का अभिप्राय है-ज्ञान में सर्वोत्तम होना महामेधा -संपन्न होना। राजा को या राष्ट्रपति को हमारे सम्मुख अपने ज्ञान का प्रकाश करते रहना चाहिए। वह किसी के लिखे हुए भाषण को पढऩे वाली कठपुतली ना हो, अपितु हरक्षेत्र का और हर विषय का वह गंभीर ज्ञान रखने वाला हो, उसके ज्ञान की गहराई उसकी योग्यता हो। इस योग्यता के कारण देश के लोग उसका स्वभावत: अनुकरण करने वाले हों। ऐसा शासन प्रमुख ही देश को सही मार्ग दिखा सकता है। राजा को चाहिए कि वह राष्ट्र में सत्यधर्म की वृद्घि के लिए और न्याय की रक्षा के लिए लोगों में ज्ञानवृद्घि करता रहे। बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों का निर्माण कराये, कौशल-विकास के लिए विभिन्न शोध संस्थान स्थापित करे, और विद्वत्मंडल का निर्माण करे-जिससे कि विद्वानों को गंभीर विषयों पर शास्त्रार्थ करते रहने का अवसर मिले और देश के ज्ञान-विज्ञान की सुरक्षा किया जाना संभव हो सके। राजा स्वयं किसी प्रकार के पाखण्ड या अंधविश्वास में आस्था रखने वाला न हो।
अब आते हैं ‘वरूण’ पर। वरूण दण्डशक्ति का प्रतीक है। राजा को राज्य में प्रजाजनों के शांतिपूर्ण जीवन व्यवहार में किसी भी आतंकी या उग्रवादी के प्रति न्याय करते समय किसी प्रकार का साम्प्रदायिक भेदभाव नही करना चाहिए। उसे आतंकवाद की एक निश्चित परिभाषा स्थापित करनी चाहिए। उस निश्चित की गयी परिभाषा के अनुसार अपने कठोर दण्डविधान का निर्माण करे और उस विधान का उल्लंघन करने वाले को कठोर दण्ड प्रदान करे। राजा को राज्य की मुख्यधारा में विघ्न डालने वाले हर व्यक्ति या व्यक्ति समूहों (उग्रवादी संगठनों) के प्रति कठोरता का व्यवहार करना चाहिए। उसे अपराधियों को यथायोग्य दण्ड देने में किसी प्रकार का संकोच या भय प्रदर्शित नही करना चाहिए।
डॉ राकेश कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत