कश्मीरी आतंकवाद : अध्याय 4, महाभारत से कुषाण-काल तक कश्मीर 3
‘राजतरंगिणी’ में अशोक
कल्हण ने अपने 12वीं शताब्दी के ग्रन्थ राजतरंगिणी में, कश्मीर के राजा अशोक (गोनंदिया) का उल्लेख करते हुए अशोक को एक धर्मनिष्ठ बौद्ध शासक बताया है। बौद्ध मत के प्रति अपनी निष्ठा और समर्पण का प्रमाण देते हुए अशोक ने ऐसे अनेकों कार्य किए जिससे इस वैज्ञानिक धर्म की प्रसिद्धि हो और लोग इसकी शरण में आकर अपनी आत्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक और मानसिक उन्नति कर सकें। अशोक ने यहां पर कई स्तूप और शिव मंदिरों का निर्माण कराया। जिससे यह पता चलता है कि अशोक बौद्ध संप्रदाय की मानवतावादी शिक्षाओं के प्रति ही समर्पित था, इसके सांप्रदायिक स्वरूप से उसे कोई लेना देना नहीं था ।यह भी संभव है कि बौद्ध एक संप्रदाय बाद में बना हो, उस समय यह केवल एक आंदोलनात्मक विचारधारा रही हो।
उस समय कश्मीर की प्रांतीय राजधानी श्रीनगर थी। जिससे हमें श्रीनगर के ऐतिहासिक महत्व का पता चलता है। बौद्ध मत के धर्म प्रचारक मध्यंतिका या मज्जन्तिका ने कश्मीर में केसर की खेती के प्रति लोगों का ध्यान आकृष्ट किया और उन्हें इसकी उपयोगिता और वैज्ञानिकता से परिचित कराया। इस प्रकार यदि आज कश्मीर के लोग केसर का उत्पादन करके अपनी आजीविका चला रहे हैं तो इसमें मज्जन्तिका का विशेष योगदान है।
शैव और बौद्ध धर्म की काल्पनिक मान्यता
भारत के आर्य सम्राटों ने सभी लोगों की निजी आस्था का सम्मान किया। कुछ लोग शैव या वैष्णव धर्म आदि के मध्य भारत के हिंदू समाज का विभाजन करके देखने का प्रयास करते हैं । अपनी इसी मानसिकता के चलते कई लोगों का यह भी कहना है कि अशोक ने शैव और बौद्ध दोनों धर्म के अनुयायियों को समान अधिकार प्रदान किए। कहने का अभिप्राय है कि अशोक के समय में इन दोनों धर्मों के अनुयायियों को कश्मीर में समान रूप से फूलने – फलने का अवसर प्राप्त हुआ। वास्तव में अशोक या उससे पहले के किसी भी आर्य हिंदू राजा के शासनकाल में शैव या वैष्णव या इसी प्रकार के अन्य मतों या धर्मों का कोई अस्तित्व नहीं था। भारत के सभी निवासी आर्य जन एकेश्वरवादी थे । मूर्ति पूजा के प्रचलन के बाद धीरे-धीरे मतों की विभाजनकारी स्याही गहरी होती चली गई। भारत में यह बीमारी बहुत बाद की है, जिसे हम प्राचीन काल से समझने की भूल करते हैं। भारत के प्रत्येक आर्य हिंदू शासक या सम्राट ने कभी सपने में भी नहीं सोचा कि वह लोगों के मध्य संप्रदाय आदि के आधार पर भेदभाव करेंगे। इसलिए अशोक सहित किसी भी शासक के विषय में यह कहना अनर्थक ही है कि उन्होंने अपने सभी निवासियों या राष्ट्रवासियों के मध्य किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया। क्योंकि ऐसा हमारे शासक लोग स्वाभाविक रूप से करते थे।
कल्हण से ही हमें पता चलता है कि अशोक ने विजयेश्वर ( बिजबेहरा ) में दो शिव मंदिरों का निर्माण किया । वितस्तात्र (वेतावुतुर) और शुस्कलेत्र (हुखलीतार) में भी सम्राट अशोक ने कई विहारों और स्तूपों का निर्माण करवाया था।
अशोक के उत्तराधिकारी और कश्मीर
अशोक के पश्चात उसके उत्तराधिकारी उतने योग्य नहीं थे जितना वह स्वयं था। यही कारण है कि अशोक के पश्चात धीरे-धीरे उसके राजवंश का पतन होना आरंभ हो गया। विद्वानों की मान्यता है कि अशोक के उत्तराधिकारियों जलौक और दामोदर के शासनकाल में बौद्ध धर्म को ग्रहण लगना आरंभ हो गया । कल्हण ने अपनी राजतरंगिणी के माध्यम से हमें यह भी बताया है कि जालौका ने वरहमुला ( बारामूला ) के आसपास के क्षेत्र में एक बड़ा विहार बनवाया था। जो 11 वीं शताब्दी के अंत तक भी अस्तित्व में था।
जहां तक कश्मीर की बात है तो कश्मीर की सुरक्षा के लिए अशोक के उत्तराधिकारी उसके पुत्र जलौक ने बहुत ही प्रशंसनीय कार्य किया था। उसके बारे में ‘राजतरंगिणी’ में कहा गया है कि ”म्लेच्छों अर्थात विदेशी हमलावरों से कश्मीर देश उस समय संछादित हो गया था। इसलिए राजा ( अशोक ) ने कठोर तपस्या कर भूतेश से वर स्वरूप जलौक नामक पुत्र उनके संहार के लिए प्राप्त किया।” इससे पता चलता है कि जलौक बहुत ही ही निडर, देशभक्त और प्रजावत्सल शासक था। जिसने अपने शासनकाल में विदेशी आक्रमणकारियों से कश्मीर की रक्षा के लिए प्रशंसनीय कार्य किया। कहने का अभिप्राय है कि विदेशी धर्म और विदेशी हमलावर को अशोक के उत्तराधिकारियों ने भी कश्मीर में प्रवेश करने से रोकने में सफलता प्राप्त की।
कुषाण काल में कश्मीर
कुषाण काल में कश्मीर इस वंश के शासकों के अधीन रहा कुषाण वंश का शासक कनिष्क एक बहुत ही बुद्धिमान ,देशभक्त, वीर और कुशल शासक था। उसे भारत द्वेषी कुछ इतिहासकारों ने विदेशी शासक सिद्ध करने का अतार्किक प्रयास किया है । यद्यपि वह पूर्णतया भारतीय संस्कारों से ओतप्रोत शासक था । उसकी प्रशासनिक क्षमता अद्भुत थी। उसके शासन काल में भारतीय धर्म और संस्कृति ने अद्भुत उन्नति की। कश्मीर में भी फिर से आर्य वैदिक संस्कृति ने गति पकड़ी। कनिष्क के शासन काल में कश्मीर में चौथी बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया था। जिससे पता चलता है कि उस समय कश्मीर में बौद्ध सिद्धांतों के प्रति शासक और समाज ने अपनी एक बार फिर निष्ठा व्यक्त की। इस बौद्ध संगीति की अध्यक्षता कात्यायनी पुत्र ने की थी। बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन कुषाण काल में कश्मीर में ही रहते थे। कनिष्क ने कनिष्क पुर नाम का नगर भी बसाया था। इसके अतिरिक्त कुषाण वंश के हुष्क और जुष्क नामक राजाओं ने हुष्कपुर और जुष्कपुर नाम के नगरों को भी स्थापित किया था।
इस प्रकार के प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि कश्मीर ने वैदिक सिद्धांतों के प्रति अपनी निष्ठा को कभी डिगने नहीं दिया। उसकी संस्कृति मूल रूप में वैदिक संस्कृति है। जिसके प्रति निष्ठा रखना उसके पांडित्य को प्रदर्शित करता है। कश्मीरी पंडित होने का अभिप्राय है कि यह विद्वानों की धर्म-स्थली, मर्म-स्थली और कर्म-स्थली है।
कश्मीर की धरती ने प्राचीन काल से ही वैज्ञानिक विचारों का स्वागत किया है। इसके विचारों में किसी प्रकार के पाखंड अंधविश्वास के लिए स्थान नहीं है। यह अलग बात है कि देश- काल – परिस्थिति के अनुसार जब लोगों को सत्य-दर्शन से बहुत अधिक देर तक दूर कर दिया जाता है तो उन्हें सूर्य के स्थान पर छोटा दीपक ही सूर्य दिखाई देने लगता है। ज्ञान की उपासना के लिए ज्ञान का सत्य, सरल, सरस, निर्मल प्रवाह सतत बना रहना बहुत आवश्यक है। यदि उसमें कहीं गतिरोध पैदा हो जाता है तो मतिरोध अपने आप स्थान ले लेता है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत