भारतीय सेना के कमांडो ने वह काम कर दिखाया है, जिसकी वकालत मैं अब से 40 साल पहले से करता रहा हूं। उन्हें बधाई! इस मामले में गृहमंत्री राजनाथसिंह और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित दोभाल की भूमिका विशेष उल्लेखनीय है। विदेश सचिव जयशंकर ने भी बर्मा को साधे रखा। उनकी इस साहसिक कार्रवाई का असर भारत के दूसरे क्षेत्रों में सक्रिय बागियों पर भी पड़ेगा। दक्षिण एशिया की महाशक्ति होने का पहला फर्ज यही है कि भारत अपने बागियों को अड़ौस—पड़ौस में शरण न लेने दे। इस बार हमारी फौज ने बर्मा में घुसकर नगा विद्रोहियों का सफाया कर दिया। अंतरराष्ट्रीय कानून में इसे ‘हॉट परस्यूट’ कहते हैं याने ठेठ तक पीछा करना लेकिन इसकी बड़ी शर्त यह है कि हिंसक बागियों या आतंकवादियों का पीछा तभी हो सकता है जबकि पड़ौसी राष्ट्र की सक्रिय या मौन स्वीकृति हो। अंतरराष्ट्रीय कानून तो इसकी इजाजत देता है लेकिन जिस पड़ौसी राष्ट्र में शरण लेकर बागी हमले करते हैं, यदि वह आपके खिलाफ है तो लेने के देने पड़ सकते हैं। आप अपने दो—चार दर्जन बागियों को मारने के लिए पड़ौसी की सीमा में घुसें और इस घुसने के कारण दोनों देशों के बीच सीधी मुठभेड़ या युद्ध छिड़ जाए तो यह सौदा मंहगा पड़ सकता है। बर्मा की सरकार का रुख सहयोग का था, इसलिए इस मामले ने तूल नहीं पकड़ा। यदि हम ऐसा ही कदम चीन या पाकिस्तान की सीमा में घुसकर उठाते तो आसमान टूट पड़ता।
चीन और पाकिस्तान ऐसे पड़ौसी हैं, जिनकी तुलना अन्य पड़ौसी देशों से नहीं की जा सकती। एक तो ये दोनों देश बड़े हैं, परमाणु संपन्न हैं और दोनों के साथ भारत के संबंध—मैत्रीपूर्ण नहीं हैं। भारत के बागियों को ये दोनों देश न सिर्फ शरण देते हैं बल्कि उन्हें प्रोत्साहित करते हैं। ये बात अलग है कि देर—सबेर मियां की जूती मियां के सिर पड़ने लगती है। इन दोनों देशों की सीमा में घुसकर भारत अपने बागियों या आतंकवादियों का सफाया तभी कर सकता है जबकि इन दोनों देशों के साथ भारत के संबंध मैत्रीपूर्ण हों। यदि इन देशों के साथ भारत के संबंध अच्छे हों तो ये देश इतने ताकतवर हैं कि वे अपनी ज़मीन का इस्तेमाल भारत के खिलाफ होने ही नहीं देंगे। इन दोनों पड़ौसियों के साथ आज भारत के जैसे संबंध हैं, उनके संदर्भ में भारत के नेता सिर्फ डींग मार सकते हैं। अपने 56 इंच के सीने को अपनी बंडी के नीचे फुलाते—झुलाते रह सकते हैं। भारत की समस्त सीमाओं को सुरक्षित करने के लिए फौजी—मुस्तैदी तो जरुरी है ही, उससे भी ज्यादा जरुरी है— कूटनीतिक चतुराई, दूरंदेश विदेश नीति। हमारी विदेश नीति की गति, फुर्ती और प्रचार में तो तेजी आई है लेकिन उसमें मौलिकता और दीर्घदृष्टि का समावेश होना बेहद जरुरी है।