सहदेव समर्पित
विलक्षण प्रतिभा के धनी पं0 गुरुदत्त विद्यार्थी, ऋषि दयानन्द के अनन्य श्रद्धालु थे। अपने 26 वर्ष अत्यल्प जीवन काल में साहित्य व शिक्षा के क्षेत्र में अद्भुत कार्य किया।
26 अप्रैल, 1864 में अद्भुत प्रतिभा, अपूर्व विद्वत्ता एवं गम्भीर वक्तृत्व-कला के धनी पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी का जन्म 26 अप्रैल 1864 को मुल्तान के प्रसिद्ध ‘वीर सरदाना’ कुल में हुआ था ।
मुलतान से मैट्रिक परीक्षा पास कर, वे लाहौर के गवर्नमेण्ट कालेज में प्रविष्ट हुए। आपके पिता लाला रामकृष्ण फारसी के विद्वान थे। आप पंजाब के शिक्षा विभाग में झंग में अध्यापक थे।
गुरुदत्त विज्ञान के विद्यार्थी थे। यद्यपि वे आर्यसमाज से पहले ही प्रभावित थे, परन्तु ऋषि दयानन्द की मृत्यु का दृश्य देखकर उन में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन आया। ईश्वर की सत्ता पर शंका करने वाले गुरुदत्त की विचारधारा पूर्णतः बदल गई।
ऋषि दयानन्द की स्मृति चिरस्थायी बनाने के लिए लाहौर में स्थापित डी. ए. वी. कालेज में गुरुदत्त विद्यार्थी का बड़ा योगदान था।
गुरुदत्त विद्यार्थी ने विज्ञान विषय को लेकर एम. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की थी, लेकिन उनकी प्रतिभा इतनी विलक्षण थी कि उनकी संस्कृत व्याकरण में भी गति कम नहीं थी। इन्होंने गवर्नमेण्ट कालेज लाहौर तथा डी. ए. वी. कालेज में गणित और विज्ञान विषयों का अध्यापन कार्य किया।
पं. गुरुदत्त ने ‘दि रीजेनेरेटर आफ आर्यावर्त्त’ नाम का पत्र निकाला जिसमें वेद और आधुनिक विज्ञान के सम्बन्ध में गम्भीर लेखमालाएँ प्रकाशित कीं। पाश्चात्य विद्वानों- मैक्समूलर और मोलियर विलियम्स द्वारा किए गए त्रुटिपूर्ण वेदार्थ का उन्होंने प्रभावशाली खण्डन किया। उपनिषदों की व्याख्या लिखी। वेद-मन्त्रों के विज्ञानपरक अर्थ किए। उनकी कुछ पुस्तकें आक्सफोर्ड वि. वि. की डिग्री कक्षाओं में पढ़ाई गईं।
विशिष्ट मेधा एवं सीखने की उत्कट लगन के कारण वे अपने साथियों में बिल्कुल अनूठे थे। किशोरावस्था में ही उनका हिन्दी, उर्दू, अरबी एवं फारसी पर अच्छा अधिकार हो गया था तथा उसी समय उन्होंने ‘द बाइबिल इन इण्डिया’ तथा ‘ग्रीस इन इण्डिया’ जैसे बड़े-बड़े ग्रन्थ पढ़ लिये। कॉलेज के द्वितीय वर्ष तक उन्होंने चार्ल्स ब्रेडले, जेरेमी बेन्थम, जॉन स्टुअर्ट मिल जैसे पाश्चात्त्य विचारकों के शतशः ग्रन्थ पढ़ लिये। वे मार्च, 1886 में पंजाब विश्वविद्यालय की एम ए (विज्ञान, नेचुरल साईन्स) में सर्वप्रथम रहे। तत्कालीन महान समाज सुधरक महर्षि दयानन्द के कार्यों से प्रभावित होकर उन्होंने 20 जून 1880 को आर्यसमाज की सदस्यता ग्रहण की। महात्मा हंसराज व लाला लाजपत राय उनके सहाध्यायी तथा मित्र थे। वे ‘द रिजेनरेटर ऑफ आर्यावर्त’ के वे सम्पादक रहे।
1884 में उन्होने ‘आर्यसमाज साईन्स इन्स्टीट्यूशन’ की स्थापना की। अपने स्वतन्त्र चिन्तन के कारण इनके अन्तर्मन में नास्तिकता का भाव जागृत हो गया। दीपावली (1883) के दिन, महाप्रयाण का आलिंगन करते हुए महर्षि दयानन्द के अन्तिम दर्शन ने गुरुदत्त की विचारधरा को पूर्णतः बदल दिया। अब वे पूर्ण आस्तिक एवं भारतीय संस्कृति एवं परम्परा के प्रबल समर्थक एवं उन्नायक बन गए। वे डीएवी के मन्त्रदाता एवं सूत्रधार थे। पूरे भारत में साईन्स के सीनियर प्रोफेसर नियुक्त होने वाले वह प्रथम भारतीय थे। वे गम्भीर वक्ता थे, जिन्हें सुनने के लिए भीड़ उमड़ पड़ती थी। उन्होंने कई गम्भीर ग्रन्थ लिखे, उपनिषदों का अनुवाद किया। उनका सारा कार्य अंग्रेजी में था।
उनकी पुस्तक ‘द टर्मिनॉलॅजि ऑफ वेदास्’ को आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की पाठ्यपुस्तक के रूप में स्वीकृत किया गया। उनके जीवन में उच्च आचरण, आध्यात्मिकता, विद्वत्ता व ईश्वरभक्ति का अद्भुत समन्वय था। उन्हें वेद और संस्कृत से इतना प्यार था कि वे प्रायः कहते थे कि – “कितना अच्छा हो यदि मैं समस्त विदेशी शिक्षा को पूर्णतया भूल जाऊँ तथा केवल विशुद्ध संस्कृतज्ञ बन सकूँ।” ‘वैदिक मैगजीन’ के नाम से निकाले उनके रिसर्च जर्नल की ख्याति देश-विदेश में फैल गई। यदि वे दस वर्ष भी और जीवित रहते तो भारतीय संस्कृति का बौद्धिक साम्राज्य खड़ा कर देते।
पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़ ने 2000 ई में उनके सम्मान में अपने रसायन विभाग के भवन का नाम ‘पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी हाल’ रखा है।
पं. गुरुदत्त विद्यार्थी का गंभीर चिंतन, विषय वस्तु को सहजता से व्याख्यायित करने की विशिष्ट शैली अद्भुत, अमूल्य प्रतिभा की परिचायक थी, जो ईश्वरीय व्यवस्था से बहुत जल्दी काल का ग्रास बन गई। अत्यधिक लेखन कार्य, प्रचार कार्य, चिन्तन-मनन, भ्रमण और शोधकार्य से वे अपने स्वास्थ्य की ओर समुचित ध्यान दे सके अत्याधिक कार्य करने व आवश्यकतानुसार विश्राम न करने आदि अनेक कारणों से आपको क्षय रोग हो गया था जिसका परिणाम 19 मार्च, सन् 1890 को लगभग २६ वर्ष की अल्पायु में आपका निधन हो गया।