स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
[ हिंदी राष्ट्रभाषा है। कुछ लोग यह तर्क दे रहे है कि संस्कृत को राजभाषा बनाना चाहिए। स्वामी दर्शनानन्द जी का यह लेख उनकी शंका का यथोचित समाधान है।]
इस समय बहुत-से मनुष्य यह विचार कर रहे हैं कि किसी समय में संस्कृत भाषा भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा थी, इसलिए वेद ईश्वरीय ज्ञान न होकर उन लोगों के रचे हुए हैं जो संस्कृत के धुरन्धर विद्वान् थे, परन्तु स्वामी दयानन्द ने अपनी प्रभावशाली वक्तृता एवं लेखों से इस बात को सिद्ध किया है कि संस्कृत कभी भी जनसाधारण की भाषा नहीं हुई, वरन् यह देववाणी अर्थात् विद्वानों की भाषा थी। इसी कारण संस्कृतभाषा में ईश्वर का वेदोपदेश करना किसी प्रकार का पक्षपात नहीं है। यावत् कोई भाषा किसी देशविशेष की भाषा न मान ली जाए, तावत् वह मातृभाषा कहलाने के योग्य नहीं हो सकती, अत: स्वामी दयानन्द की सम्मति में तो संस्कृत मातृभाषा नहीं।
सृष्टि के आदि से ही संस्कृत तथा प्राकृत दो भाषाएँ चली आती हैं। बहुत-से मनुष्यों के मन में यह विचार होगा कि जिस समय आदिसृष्टि में ऋषियों को वेदों का ज्ञान दिया गया, उसके पश्चात् यौगिक संस्कृत और प्राकृत भाषा किस प्रकार बन गईं? इसका उत्तर यह है कि वेदों की भाषा में रूढ़ि शब्द नहीं है, वरन् समस्त शब्द यौगिक ही हैं। रूढ़ि उसे कहते हैं कि उस शब्द की धातु से यह अर्थ निकालना चाहें तो न निकल सके, जैसे किसी कङ्गाल को ‘धनपति’ कहा जाए तो यह रूढ़ि नाम होगा, परन्तु यदि प्रत्येक धनी को ‘धनपति’ कहा जाए अर्थात् जो वास्तविक अर्थ है वही लिया जाए तो यौगिक होगा, और यदि किसी धनीविशेष का नाम ‘धनपति’ रक्खा जाए तो यह योगरूढ़ि होगा।
वेदों में सब नाम यौगिक हैं। रूढ़ि नाम नये पदार्थों के बनने पर रक्खे गये। जब मनुष्य उन्हें बोलते थे उसका नाम लौकिक संस्कृत था, परन्तु उन रूढ़ि नामों के सम्मिलन से जो भाषा विशेष बनी, उसका नाम प्राकृत था। आशय यह कि वैदिक संस्कृत तो वह भाषा है जो सर्वदा एक सी रहती है, कभी कोई अन्तर ही नहीं पड़ता और न ही संसार-चक्र का उसपर कोई प्रभाव पड़ता है। वैदिक संस्कृत इस जगत् में सर्वज्ञ ईश्वर ने ऋषियों को पढ़ाई, परन्तु यौगिक संस्कृत में तो प्रथम कल्प में ही अन्तर पड़ना सम्भव है, क्योंकि उसमें जो मिलावट होती है तो किसी नियत नियम पर नहीं, और प्राकृत जो देश, काल और वस्तुओं के कारण भिन्न होती है उसमें तो भिन्नता होती ही है।
सृष्टि के आदि से ही तीन प्रकार की भाषा होती हैं-एक वैदिक अर्थात् ईश्वरीय ज्ञान का भण्डार, दूसरी यौगिक संस्कृत अर्थात् देववाणी, और तीसरी प्राकृत अर्थात् मातृभाषा। जो मनुष्य संस्कृत को मातृभाषा कहते हैं वे एक बड़ी भारी भूल करते हैं, क्योंकि इस समय तो संस्कृत किसी देश की मातृभाषा है ही नहीं। जब वर्तमान समय में किसी भी देश की भाषा संस्कृत नहीं तो मातृभाषा किस प्रकार हो सकती है? आर्यवर्त के तो प्रत्येक भाग की भिन्न-भिन्न मातभाषा हैं। पञ्जाब में पञ्जाबी, पोठोहारी, डेरावाल, डोगरी, कश्मीरी एवं पहाड़ी आदि भाषाएँ मातभाषा हैं। सिन्ध की सिन्धी एक पृथक् ही भाषा है। संयुक्त प्रदेश में हिन्दी, ब्रजभाषा तथा उर्दू, गढ़वाल में पहाड़ी, बिहार में बिहारी, बङ्गाल में बङ्गाली, उड़ीसा में उड़िया, नेपाल में नेपाली, मारवाड में मारवाड़ी, गुजरात में गुजराती, दक्षिण में तेलुगू, तमिल, कन्नड और महाराष्ट्र में मराठी आदि थोड़े-थोड़े अन्तर में प्राकृत भाषा की सैकड़ों ही शाखाएँ दिखाई देती हैं, परन्तु संस्कृत अब भी देववाणी अर्थात् विद्वानों की भाषा है, जिसे योग्य पण्डित ही बोल सकते हैं। इसी कारण स्वामी दयानन्द ने भी अपने सत्यार्थप्रकाश में वेद के विषय में लिखते हुए ऐसा लिखा है –
*प्रश्न- किसी देशभाषा में वेदों का प्रकाश न करके संस्कृत में क्यों लिखा?*
*स्वामीजी का उत्तर- “यदि किसी देशभाषा में प्रकाश करे तो ईश्वर पक्षपाती होता, क्योंकि जिस देश की भाषा में प्रकाशित करता उनको सुगमता और विदेशियों को कठिनता वेदों के पढ़ने पढ़ाने में होती। इसलिए संस्कृत ही में प्रकाश किया जोकि किसी देश की भाषा नहीं।”* और न ही यह किसी और विद्वान् के विचार में किसी देश की भाषा हो सकती है।
संस्कृत को मातृभाषा कहना यद्यपि स्पष्टतया ईश्वरीय ज्ञान वेद में पक्षपात का दोषारोपण करना है, परन्तु जो मनुष्य अज्ञानी हैं उनके लिए क्या किया जाए!
हमारे बहुत-से मित्र यह कहेंगे कि गुरुकुल की योजना में मातृ-भाषा से तात्पर्य भाषाओं की माता है, परन्तु यह अर्थ उस प्रकरण से नहीं निकलता, क्योंकि यदि संस्कृत को भाषाओं की माता मानकर उसकी आवश्यकता बताई जाती तो उसका उदाहरण समस्त संसार में एक सा मिलता, परन्तु इस समय कहीं भी संस्कृत प्रधान भाषा नहीं है, अत: केवल भारतवर्ष का उदाहरण देना स्पष्ट रूप से इस बात को बताता है कि संस्कृत हमारे देश की मातृभाषा है जोकि हर प्रकार से असत्य तथा आर्य सिद्धान्त के प्रतिकूल है।
प्रस्तुति – ‘अवत्सार’