किसी भी बड़े सरकारी पद पर बैठते ही बड़े-बड़े पत्रकारों की बोलती बंद हो जाती है लेकिन ए. सूर्यप्रकाश हैं कि प्रसार भारती के अध्यक्ष होने के बावजूद वे बराबर लेख लिखते रहते हैं और अपनी बात बिना लाग—लपेट कहते रहते हैं। उन्होंने अभी एक व्याख्यान भी दिया, जिसमें उन्होंने खबरपालिका (मीडिया) को खरी—खरी सुना डाली।
उन्होंने कहा कि हमारे देश के टीवी चैनल खबरों के नाम पर राजनीतिक पहलवानों का दंगल परोसते हैं। रात 8 बजे से 11 बजे तक के ‘प्राइम टाइम’ में गैर—सरकारी चैनल अपने आपको मनोरंजन चैनल में बदल डालते हैं। वे खबरें दिखाने की बजाय तू—तू—मैं—मैं दिखाते हैं। खबरों के बीच वे अलग—अलग पार्टियों के नेताओं से जोर-आजमाइश करवाते हैं। मैं इसे मुर्गा-लड़ाई या तीतर-बटेर पत्रकारिता कहता हूं। किसी भी विषय के कार्य-कारण और परिणामों की गंभीर विवेचना करवाने की बजाय उन बहसों में आरोपों-प्रत्यारोपों का बाजार गर्म हो जाता है। साधारण श्रोताओं के हाथ कुछ नहीं लगता।
जिसे चैनलवाले ‘मनोरंजन’ कहते हैं, वह ‘मनोभंजन’ होता है। करोड़ों श्रोताओं को उलझाकर उनका समय नष्ट करना और अपनी टीआरपी बढ़ाना—यही काम रह गया है, हमारे चैनलों का। इसीलिए देश के अनेक जिम्मेदार और गंभीर लोग केवल उसी समय टीवी देखते हैं, जब वे स्वयं पर्दे पर होते हैं। मैं तो तब भी प्राय: नहीं देखता हूं। हमारे चैनलों पर वह अमेरिकी नाम खूब फबता है— ‘इडियट बॉक्स’ याने ‘मूरख बक्सा’। इनके देखने वालों से ज्यादा दिखानेवाले अपने आपके लिए ‘मूरख’ का खिताब जीत लेते हैं।
सूर्यप्रकाश की इस बात से मैं पूर्णरुपेण सहमत हूं कि टीवी और रेडियो पर सरकारी नियंत्रण बिल्कुल नहीं होना चाहिए। आत्मानुशासन से बेहतर कोई चीज़ नहीं है लेकिन आजकल प्रसार भारती का क्या हाल है? क्या वह वाकई स्वायत्त है? आज तक किसी भी सरकार ने उसे आजादी नहीं दी हैं। यदि यह स्पष्ट बहुमत की सरकार भी प्रसार भारती को अपनी जेब में डाले रहेगी तो इसकी विश्वसनीयता हमेशा की तरह खटाई में पड़ी रहेगी और दूसरे घटिया चैनलों और नौटंकीबाज़ एंकरों की तूती बोलती रहेगी।