पृथ्वी सूक्त – पृथ्वी की स्तुति में अथर्ववेद की ऋचाएं
सत्यं बृहदृतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति ।
सा नो भूतस्य भव्यस्य पत्न्युरुं लोकं पृथिवी नः कृणोतु ॥१॥
मातृ पृथ्वी के लिए नमस्कार! सत्य (सत्यम), ब्रह्मांडीय दैवीय नियमों ( ऋतम), सर्वशक्तिमान परब्रहम में विद्यमान आध्यात्मिक शक्ति, ऋषियों मुनियों द्वारा समर्पण भाव से किये गये यज्ञ और तप,–इन सब ने धरती माता को युगों –युगों से संरक्षित और संधारित किया है। वह (पृथ्वी) जो हमारे लिए भूत और भविष्य की सह्चरी है, साक्षी है,- हमारी आत्मा को इस लोक से उस दिव्य ब्रह्मांडीय जीवन (अपनी पवित्रता और व्यापकता के माध्यम से) की ओर ले जाये।
असंबाधं बध्यतो मानवानां यस्या उद्वतः प्रवतः समं बहु ।
नानावीर्या ओषधीर्या बिभर्ति पृथिवी नः प्रथतां राध्यतां नः ॥२॥
वह धरती मां जो अपने पर्वत, ढलान और मैदानों के माध्यम से मनुष्यों तथा समस्त जीवों के लिए निर्बाध स्वतंत्रता (दोनों बाहरी और आंतरिक दोनों) प्रदान करती है, वह कई पौधों और विभिन्न क्षमता के औषधीय जड़ी बूटी को जनम देती है, उन्हे परिपोषित करती है , वह हमें समृद्ध करे और स्वस्थ बनाये।
यस्यां समुद्र उत सिन्धुरापो यस्यामन्नं कृष्टयः संबभूवुः ।
यस्यामिदं जिन्वति प्राणदेजत्सा नो भूमिः पूर्वपेये दधातु ॥३ ॥
समुद्र और नदियों का जल जिसमें गूथा हुआ है, इसमें खेती करने से अन्न प्राप्त होता है, जिस पर सभी जीवन जीवित हैं, वह पृथ्वी माता हमें जीवन का अमृत प्रदान करे।
यस्यां पूर्वे पूर्वजना विचक्रिरे यस्यां देवा असुरानभ्यवर्तयन् ।
गवामश्वानां वयसश्च विष्ठा भगं वर्चः पृथिवी नो दधातु ॥४॥
इस पर आदिकाल से हमारे पूर्वज विचरण करते रहे, इस पर देवों (सात्विक शक्तियों) ने असुरों(तामसिक शक्तियों) को पराजित किया। इस पर गाय, घोडा, पक्षी,( अन्य जीव –जंतु) पनपे। वह माता पृथ्वी हमें समृद्धि और वैभव प्रदान करे।
संकलन: महेंद्र सिंह आर्य
प्रधान : आर्य प्रतिनिधि सभा जनपद गौतम बुद्ध नगर