“आर्यत्व का धारण मनुष्य को श्रेष्ठ व सफल मनुष्य बनाता है”
ओ३म्
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हम अपने पूर्वजन्मों के अच्छे कर्मों के कारण इस जन्म में मनुष्य योनि में उत्पन्न हुए हैं। दो मनुष्यों व इनकी आत्माओं के कर्म समान नहीं होते। अतः सभी मनुष्यों के परिवेश व इनकी सामाजिक परिस्थितियां भिन्न-भिन्न देखने को मिलती हैं। वैदिक कर्म-फल सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य योनि (कर्म करने व फल भोगने की उभय योनि) में जो कर्म किये जाते हैं उनमें से कुछ कर्मों का भोग मनुष्य अपने जीवन में कर लेता है तथा कुछ कर्मों का फल भोगना शेष रह जाता है। यह शेष व अभुक्त कर्म ही हमारे पुनर्जन्म का आधार होते हैं। शास्त्रीय मान्यता है कि यदि हमारे अच्छे कर्म आधे से अधिक हों तो हमें मनुष्य जन्म मिलता है, अन्यथा हमारा पशु, पक्षी आदि नीच योनियों में जन्म होता हैं जहां मनष्ययोनि की तुलना में सुख नाममात्र तथा दुःख अधिक होते हंै। हम इस जन्म में मनुष्य बने हैं तो हमें इसका कारण ज्ञात होना चाहिये। इसका कारण यही है कि पूर्व मनुष्य जीवन में मृत्यु होते समय तक हमारे जो कर्म भोग के लिए बच गये थे उनमें से आधे से अधिक कर्म अच्छे थे तथा बुरे कर्म आधे से कम थे। इस मनुष्य जन्म में भी यदि हमारे कर्मों का खाता 50 प्रतिशत से अधिक अच्छा होगा तभी हमारा अगला जन्म मनुष्य योनि में हो सकता है। ऐसा न होने पर हमें पशु आदि निम्न योनियों में जन्म मिलेगा। परमात्मा ने मनुष्यों को ज्ञान प्राप्ति व विवेकपूर्वक निर्णय करने के लिए बुद्धि दी है। हम कर्म-फल व्यवस्था का अध्ययन करके व विद्वानों से शंका समाधान करके सत्य व यथार्थ स्थिति को जान सकते हैं।
आर्यत्व क्या है? आर्य श्रेष्ठ मनुष्य को कहते हैं। श्रेष्ठ गुणों को धारण करना ही आर्यत्व को धारण करना है। श्रेष्ठ मनुष्य वेदों को पढ़कर व उनके अनुसार आचरण करने से बनता है। वेदों में मनुष्य के जीवन उत्थान की सभी बाते हैं। यही कारण था कि सृष्टि के आरम्भ से लेकर महाभारत काल तक हमारे देश व विश्व के सभी मनुष्य व विद्वान वेदाध्ययन कर वैदिक मान्यताओं का आचरण करते थे। महाभारतकाल के बाद वेदों का ज्ञान भारत के पंडितों व ब्राह्मणों के आलस्य-प्रमाद के कारण विलुप्त हो गया। वेदों के ज्ञान के विपरीत समाज व देश में मिथ्या विश्वास, आडम्बर तथा असत्य परम्परायें प्रचलित हो गईं। इसका परिणाम देश व मनुष्य के सार्वत्रिक पतन के रूप में सामने आया। आर्यावत्र्त देश और यहां के राजाओं का सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल पर्यन्त अखण्ड चक्रवर्ती राज्य रहा है। इसे महाभारत, रामायण एवं वैदिक शिक्षाओं से सिद्ध किया जा सकता है। संसार का ऐसा कोई देश व समाज नहीं है जिसके पास महाभारत काल का ही कोई ग्रन्थ उपलब्ध हो। इसस पूर्व की बात सोचना तो अपनी बुद्धि के साथ अत्याचार करना होगा। यूरोप व भारत से बाहर के देशों का इतिहास 2500 वर्ष व इससे कुछ वर्ष पूर्व के काल का ही है। इसी से यह निष्कर्ष निकलता है कि भारत का धर्म, संस्कृति व सभ्यता विश्व में सबसे प्राचीन है। यूरोप व भारत के पक्षपातरहित विद्वान इसे स्वीकार भी करते हैं। अतः यह ज्ञात होता है कि वेद सृष्टि के आदिकालीन ग्रन्थ हैं।
स्वामी दयानन्द ने अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में वेदों को सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर से उत्पन्न सिद्ध किया है। जिस निराकार, सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान ईश्वर ने इस सृष्टि वा ब्रह्माण्ड को सत्, रज व तमो गुण वाली मूल प्रकृति से बनाया और पृथिवी पर अग्नि, वायु, जल, आकाश सहित समतल भूमि, पर्वत, समुद्र आदि एवं मनुष्य आदि प्राणियों व वनस्पतियों को बनाया है, उसके लिए मनुष्यों को वेदों का ज्ञान देना कठिन नहीं था। आज भी ईश्वर हमारी आत्मा में प्रेरणा कर हमारा मार्गदर्शन करता है। अच्छे काम करने पर वह हमारा उत्साहवर्धन करता है और बुरे काम करने पर वह हमारी आत्मा में भय, शंका व लज्जा उत्पन्न कर बुरे कामों को करने से मना करता है। अतः वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है। वेदाध्ययन व वेदाचरण से ही मनुष्य के जीवन का सर्वांगीण विकास व उन्नति होती है। जो लोग वेद की उत्पत्ति का सिद्धान्त देखना व समझना चाहें, उन्हें सत्यार्थप्रकाश का सातवां समुल्लास पढ़ना चाहिये। उनकी सभी भ्रान्तियां दूर हो जायेंगी। यहां यह भी लिख देना समीचीन है कि इस ब्रह्माण्ड का स्वामी, रचयिता व पालक एक परमेश्वर ही है। सभी मतों में ईश्वर की जो कल्पना की गई है, वह भिन्न भिन्न ईश्वर नहीं अपितु वेद वर्णित एक परमेश्वर ही है। वेदों की शिक्षाओं से दूर रहने व वेद को न जानने के कारण ही भारत और विश्व में अनेक अविद्याजन्य मत-मतान्तर बने व प्रचलित हुए हैं। ऋषि दयानन्द की मानव जाति पर महती कृपा हुई कि उन्होंने अपना सारा जीवन तपस्या व कठोर साधना में व्यतीत कर वेद के अर्थों व रहस्यों को पता किया और उसे मौखिक प्रचार व अपने लिखित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, संस्कारविधि, व्यवहारभानु, गोकरूणानिधि, पत्र और विज्ञापनों आदि ग्रन्थों द्वारा देश की जनता को सौंप गये हैं। हमारा कर्तव्य है कि हम सूक्ष्मता से उनके विचारों व सिद्धान्तों सहित उनकी वेद विषयक मान्यताओं का गम्भीर चिन्तन करें और सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करें क्योंकि सत्य का ग्रहण और असत्य के त्याग सहित सत्य का पालन व आचरण ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य व सत्य-मानव-धर्म है।
वेदों का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि मनुष्य को आत्मा, परमात्मा और प्रकृति वा सृष्टि को जानना चाहिये। वेद व वैदिक साहित्य इस कार्य में सर्वाधिक सहायक हैं। विज्ञान का अध्ययन कर भी दोनों, अध्यात्म तथा विज्ञान, का समन्वय किया जा सकता है। मनुष्य का मुख्य कर्तव्य अपने शरीर की उन्नति और स्वयं को स्वस्थ, निरोग व बलवान रखना है। हम स्वस्थ व बलवान होंगे तभी हम जीवन में श्रेष्ठ कार्यों को कर सकते हैं। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन रहता है। जिसका शरीर, मन, मस्तिष्क, बुद्धि व आत्मबल अधिक है उसी का जीवन सफल होता है। स्वस्थ रहने के लिए शाकाहारी शुद्ध व पवित्र भोजन सहित अपने मन व विचारों को भी पवित्र रखना चाहिये। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए प्रातः जागरण के बाद शौच से निवृत होकर भ्रमण व व्यायाम आदि करने चाहिये। इसके बाद गृहस्थी मनुष्य का यह दायित्व है कि वह वैदिक विधि से सन्ध्या व ईश्वरोपासना करें। यह ध्यान देने योग्य बात है कि हम जो भी कर्म करें वह सत्य व तर्क से सिद्ध होने के साथ प्रामाणिक होना चाहिये। जो तर्क से सिद्ध न हो, उसका त्याग कर देना ही उत्तम होता है। धर्म की भी वही बातें मान्य होती हैं जो सत्य, तर्क, परहितकारी, प्राणीमात्र का कल्याण करने वाली व उन्हें सुख प्रदान करने वाली होती हैं। मनुष्य को मांसाहार, मदिरा का सेवन, तम्बाकू का सेवन, धूम्रपान, मछली आदि अभक्ष्य पदार्थों के सेवन सहित तामसिक प्रकृति को उत्पन्न करने वाले सभी पदार्थों का त्याग कर देना चाहिये। उसे न केवल स्वयं ही इन बुरे पदार्थों का सेवन बन्द करना है अपितु इसके विरुद्ध जन-जागृति भी उत्पन्न करनी है जिससे दूसरे लोग भी इनका सेवन न करें। कोई करें तो राजनियम से उसके अधिकार भोजन व निवास तक ही सीमित कर देने चाहिये। खेद है कि वैदिक व्यवस्था न होने के कारण वर्तमान में अभक्ष्य पदार्थों का सेवन और लोगों के प्रति अन्याय, अत्याचार, शोषण, भ्रष्टाचार व चरित्रहनन की घटनायें होती रहती हैं और हमारी व्यवस्था इन्हें रोकने में अक्षम है।
मनुष्यों को प्रातःकाल ईश्वरोपासना करने के बाद वायु और जल की शुद्धि सहित आत्मा को भी शुद्ध व पवित्र करने के लिए देवयज्ञ अग्निहोत्र करना चाहिये। सन्ध्या व हवन की जो विधि स्वामी दयानन्द जी ने लिखी है वही उत्तम विधि है। आर्य मनुष्यों को अपने माता-पिता-आचार्यों व वृद्धों के प्रति भी सेवा, आदर व सहयोग की भावना रखनी चाहिये। वह इनकी सभी उचित आज्ञाओं का पालन करें। इसी का नाम पितृ यज्ञ है। विद्वान अतिथियों का सम्मान करना चाहिये जो हमारे ही कल्याण के लिए वेद प्रचार व सेवा का व्रत लेकर समाज में यत्र तत्र भ्रमण करते रहते हैं। आर्य संज्ञा से युक्त मनुष्यों का कर्तव्य है कि वह सभी मनुष्यों व पशु आदि के प्रति दया, करूणा व प्रेम की भावना रखें। किसी को किंचित भी कष्ट नहीं होना चाहिये। इसके साथ ही सबके भोजन व वस्त्र आदि प्रदान करने में सहायक बनने का प्रयत्न करना चाहिये। इसके लिए मनुष्यों को अपनी सामथ्र्यानुसार सुपात्रों को धन आदि का दान करना चाहिये। समाज व देश के प्रति भी कृतज्ञता का भाव रखते हुए इनकी उन्नति में यथासम्भव योगदान करना चाहिये। अपनी आवश्यकतायें कम से कम रखनी चाहिये। इससे मनुष्य जीवन की उन्नति होती है। यह सब, आर्य मनुष्य जो वेदों का अनुमागी होता है, उसके कर्तव्य हैं। इन आचरणों का शायद ही कोई विरोधी हो। यदि है तो फिर वह अज्ञानी व स्वार्थी ही हो सकता है। उनके लिए तो दण्ड का विधान करना उचित है। इन्हीं कर्तव्यों के अनुसार वैदिक राजव्यवस्था के राज नियम व दण्ड व्यवस्था होती थी।
हमने लेख में वैदिक कर्म-फल व्यवस्था की चर्चा की है। हमारी आत्मा अर्थात् हम अजर व अमर हैं। हमारा पुनर्जन्म होना सुनिश्चित है। यदि हम चाहते हैं कि हमारा अगला जन्म भी श्रेष्ठ व सुखमय हो तो हमें उपर्युक्त वैदिक कर्मों को करना होगा अन्यथा हमें पशु आदि नीच योनियों में जाना पड़ेगा। वेदाध्ययन, वेदानुसार कर्तव्य व आचरण करने से मनुष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त होता है। मोक्ष मनुष्य जीवन का अन्तिम लक्ष्य है जिसे सभी मनुष्यों को प्राप्त करना है। हमारे ऋषि मुनि व योगियों को मोक्ष प्राप्त हुआ करता था व अब भी करें तो हो सकता है। हमने ऐसे लोगों को देखा है व उनकी संगति भी की हैं जिनका अपना जीवन पूर्णतया वेदमय था। उन्हें विद्वान वेदमूर्ति की संज्ञा देते थे। ऐसे लोग ही मृत्यु के बाद मोक्ष अर्थात् सब प्रकार के सुखों व आनन्द को प्राप्त होते हैं। उनका जन्म व मरण का बन्धन समाप्त हो जाता है। इसका ज्ञान प्राप्त करने के लिए पाठकों को सत्यार्थप्रकाश का नवम् समुल्लास पढ़ना चाहिये। इस आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि सभी वैदिक गुणों को धारण करने वाली ‘‘आर्य” जाति संसार की सर्वश्रेष्ठ मनुष्य जाति है। मनुष्य जाति तो सबकी एक ही है परन्तु कर्म व सिद्धान्त भेद से आर्य जाति व अन्य जाति कहा जाता है। कोई मनुष्य किसी भी देश, मत व धर्म तथा स्थान पर पैदा होता है, यदि वह वेद सम्मत सभी उत्तम कर्मों को करता है तो वह वस्तुतः आर्य है और वही श्रेष्ठ मनुष्य होता है। वह इस जीवन में भी ईश्वर की व्यवस्था व कृपा से सुख पाता है और मरने के बाद भी मोक्ष रूपी आनन्द की अवस्था को प्राप्त होता है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य