*”धर्म क्या है, और अधर्म क्या है?” यह बड़ा जटिल प्रश्न है। लाखों करोड़ों वर्षों से लोग इस प्रश्न में उलझे हुए हैं। बहुत कम लोग ही इसे समझ पाते हैं, कि धर्म क्या है? और अधर्म क्या है?”*
*”वेदों और ऋषियों के ग्रंथों के अनुसार धर्म उस आचरण का नाम है, जो कार्य हमें करने चाहिएं। जिनके करने से अपना और दूसरों का सुख बढ़ता है। जैसे सत्य बोलना, न्याय से व्यवहार करना, सेवा परोपकार करना, रोगियों की सहायता करना, प्राणियों की रक्षा करना, ईश्वर की भक्ति ध्यान उपासना करना इत्यादि। अधर्म वह है, जो कार्य हमें नहीं करना चाहिए। जिन कार्यों के करने से हमारा और दूसरों का दुख बढ़ता है। जैसे झूठ बोलना, चोरी करना, अन्याय अत्याचार करना, व्यभिचार करना, दूसरों का शोषण करना, प्राणियों को मार-मार कर खाना, अंडे खाना, शराब सुल्फा गांजा आदि नशीली वस्तुओं का प्रयोग करना इत्यादि।”* इस प्रकार से ऋषियों ने वेदों के आधार पर धर्म और अधर्म की यह परिभाषा समझाई है।
धर्म की पहचान के संबंध में एक बहुत मोटी बात यह है, कि *”जब भी आप दूसरों के साथ व्यवहार करें, तो व्यवहार करने से पहले इतना अवश्य सोचें”, कि “जो व्यवहार मैं दूसरे व्यक्ति के साथ करने जा रहा हूं, यदि वही व्यवहार दूसरा व्यक्ति मेरे साथ करे, तो मुझे और सब को कैसा लगेगा? यदि मुझे और सब को अच्छा लगेगा, तो समझ लीजिए, उसे करना धर्म है।” “और जो व्यवहार दूसरा व्यक्ति आपके साथ करे, परंतु आप को तथा अन्यों को वह अच्छा नहीं लगता, अपमानजनक या दुखदायक लगता है, तो समझ लीजिए, कि आपको भी ऐसा व्यवहार अन्यों के साथ नहीं करना चाहिए। यदि करेंगे, तो वह अधर्म कहलाएगा।”*
उदाहरण के लिए, ऐसा सोचिए, कि *”यदि कोई व्यक्ति आप पर व्यर्थ आक्रमण करे, तो आपको अच्छा नहीं लगता।” इसका अर्थ है, कि दूसरे व्यक्ति पर व्यर्थ आक्रमण करना ठीक नहीं है। “इसी प्रकार से यदि कोई दूसरा व्यक्ति आप पर व्यर्थ आक्रमण करे, और आप उसे सदा सहन करते रहें, यह भी आपको अच्छा नहीं लगता। तो
दूसरे व्यक्ति का व्यर्थ आक्रमण सदा ही सहते रहना भी ठीक नहीं है। यह अधर्म है।” “यदि दूसरा व्यक्ति आप पर व्यर्थ आक्रमण करे, और आप उससे अपनी रक्षा करें, ऐसा करना आपके लिए हितकारी तथा सुखदायक होगा। तो समझ लीजिए, कि यही धर्म है।”*
अब सारी बात का सार यह हुआ, कि *”आप भले ही दूसरे पर आक्रमण न करें, परंतु कम से कम दूसरे के अनुचित आक्रमण से अपनी रक्षा तो अवश्य ही करें। क्योंकि ऐसा करना आपके लिए हितकारी तथा सुखदायक होगा। इसे अपना धर्म मानें, और ऐसा करें, तभी आपका कल्याण होगा।”* ईश्वर ने वेदों में, तथा ऋषियों ने वेदों के आधार पर अपने ग्रंथों में ऐसा ही बताया है।
—– *स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, रोजड़, गुजरात।*