श्री सायण, उव्वट, महीधर ने जिस प्रकार वेदों के अश्लील परक अर्थ किए। उससे ईश्वरीय वाणी के रूप में स्थापित रहे वेदों की महिमा का बहुत अधिक हनन हुआ। इन अश्लील परक अर्थों को पकड़कर दूसरे मत, पंथ व संप्रदायों के लोगों ने हमारे पवित्र धर्म ग्रंथों का उपहास किया और उन्हें अपने मत को वैदिक धर्म से श्रेष्ठ घोषित करने का अवसर उपलब्ध हुआ। इस प्रकार के गलत अर्थों के करने से भारत में अज्ञान अंधकार फैला। लोगों में मतभेद पैदा हुए। सामाजिक विसंगतियों और रूढ़ियों ने जन्म लिया। अश्व महिषी संगम, गोमांस आदि खाने तक के सम्पूर्ण वाममार्ग के सिद्धान्तों को प्रदर्शित किया। परिणामस्वरूप समाज में वैदिक सिद्धांतों की महिमा समाप्त हो गई और सर्वत्र अज्ञानता का साम्राज्य स्थापित हो गया।
।वेदभाष्यकारों के विषय में वैदिक गवेषक श्री पं० भगवद्दत्तजी देहली ने भी बहुत ही सराहनीय विवेचन किया है। आर्यसमाज के संस्थापक योगिराज महर्षि दयानन्दजी महाराज ने जब वेदों का अर्थ किया तो उनके किए गए अर्थों से सर्वत्र नई ऊर्जा का संचार हुआ। जिन लोगों तक उनके किए गए अर्थ पहुंचे उन सभी के भीतर नवचेतना की अनुभूति होने लगी। लोगों के ह्रदय झंकृत हुए ।मस्तिष्क क्रांति भाव से भर गये। सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक सभी क्षेत्रों में नई ऊर्जा से भरा हुआ भारत परतंत्रता की बेड़ियों को काटने के लिए उठ खड़ा हुआ। महर्षि दयानंद को समग्र क्रांति का अग्रदूत कहा जाता है। उन्होंने यज्ञ की परंपरा को वैदिक अर्थों के अनुसार पुनः स्थापित किया और लोगों को बताया कि यज्ञ याग से ही उनका जीवन कल्याणकारी हो सकता है।
ऋषि दयानंद ने वेदों को प्रभु की वाणी, नित्य और स्वतःप्रमाण कहा है और अपने ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’, ‘सत्यार्थप्रकाश’ आदि ग्रन्थों में भी लिखा है। आपका अर्थ त्रिविध प्रक्रिया के अनुसार है जिस प्रक्रिया को श्री स्कन्दस्वामी ने भी अपने निरुक्त भाष्य में स्पष्ट स्वीकार किया है। इनके भाष्य की प्रशंसा बड़े-बड़े दिग्गज विद्वानों ने मुक्त कण्ठ से की है।
योगिराज श्री अरविन्द घोष जी ने स्पष्ट लिखा है-
महर्षि दयानन्द जी की इस धारणा में कि वेद धर्म और पदार्थ विद्या के भंडार हैं, कोई अयुक्त वा अनहोनी बात नहीं है। मैं उनकी उत्तम धारण में अपना विश्वास और जोड़ना चाहता हूं कि वेदों में पदार्थ विद्या की अन्य ऐसी सच्चाइयां भी हैं जिनको आजकल का संसार यत्किंचित् भी नहीं जान पाया है। एक बार वेदों की स्थिति स्वामी दयानन्द के अभिमतानुसार समासीन हो जाने दो तो फिर देखोगे कि सायणाचार्य का केवल रूढ़िपरक और कपोल-कल्पित अनेक ईश्वरवाद पर आश्रित वेदों के भाष्य का भवन अपने आप गिर जाएगा और उसी के साथ-साथ पाश्चात्य विद्वानों का केवल भौतिक पदार्थ और प्राकृतिक पूजनपरक भाष्य भी धराशायी हो जाएगा और वेद एक उच्च तथा गौरवास्पद ईश्वरीय ज्ञान पुस्तक के रूप में हमारे पास शोभनीय होगा।”
यजुर्वेद में यज्ञ की महिमा के संदर्भ में महर्षि दयानन्दजी महाराज के वेदभाष्य से कतिपय उदाहरण दिये जाते हैं-
(१) यजुर्वेद अ० १ मन्त्र २१ के भावार्थ में ‘विद्वत्सङ्ग विद्योन्नितिर्होमशिल्पाख्यैर्यज्ञैर्वायुवृष्टिजलशुद्धयश्च सदैव कार्य्या इति’ – विद्वानों का सङ्ग तथा विद्या की उन्नति से वा होम शिल्प कार्यरूपी यज्ञों से वायु और वर्षा जल की शुद्धि सदा करनी चाहिए।
(२) यजु० अ० ५ मन्त्र २ में ‘उर्वशी’ शब्द का यौगिक अर्थ करते हैं- ‘ययोरूणि बहूनि सुखान्यश्नुवते सा यज्ञक्रिया’ – बहुत सुखों को प्राप्त करानेवाली यज्ञ क्रिया है।
पौराणिक भाष्यकार यहां ‘उर्वशी’ से ‘अप्सरा’ का ग्रहण करते हैं जो भ्रममात्र है।
देखिए ऋग्वेद ७/३३/१० में ‘उर्वशी’ को ‘विद्युतोज्योति:’ – ‘विद्युत की ज्योति’ कहा है। ऋग्वेद १०/९५/१७ में ‘उर्वशी’ को वाणी कहा है।
निरुक्तसमुच्चय (४/१४) में ‘उर्वशी’ को ‘विद्युत’ बतलाया है। ‘विद्युत उर्वशी’ इति दुर्गाचार्य: (निरुक्तभाष्य ५/१४)
महीधर ने यजु० ५/२ का अश्लील अर्थ करते हुए लिखा है- ‘यथोर्वशी पुरूरवोनृपस्य भोगायाधस्ताच्छेते…’ अर्थात् ‘जैसे उर्वशी, पुरुरवा राजा के भोग के लिए नीचे सोती है।
इनका अर्थ सर्वथा ही त्याज्य है क्योंकि महीधर वाममार्गी थे।
(३) यजु० अ० ५ मन्त्र ३ में यज्ञ शब्द का अर्थ- ‘अध्ययनाध्यापनाख्यं कर्म’ – पढ़ने-पढ़ाने रूप यज्ञ।
राजर्षि मनु जी ने भी लिखा है- ‘अध्यापनं ब्रह्मयज्ञ:’ (मनुस्मृति ३/७०)। इसकी व्याख्या करते हुए श्री कुल्लूक भट्ट लिखते हैं- ‘अध्यापनशब्देनाध्य्यनमपि गृह्यते जपोऽहुत: इति वक्ष्यमाणत्वात्। अतोऽध्यापनमध्ययनं च ब्रह्मयज्ञ:।’
इससे महर्षि दयानन्द जी कृत – ‘अध्ययनाध्यापनरूप’ अर्थ का स्पष्ट समर्थन होता है।
(४) यजु० ७/३५ में ‘सोमं’ शब्द का अर्थ- ‘सकलगुणैश्वर्य्यकल्याणकर्माध्य्यनाध्यापनाख्यं यज्ञम्’ – समस्त अच्छे गुण, ऐश्वर्य और सुख करने वाले पठनपाठन-रूपी यज्ञ को।
इसी प्रकार इसी मन्त्र में ‘सुयज्ञा:’ शब्द का अर्थ- ‘शोभनोऽध्य्यनाध्यापनाख्यो यज्ञो येषां त इव’ – ‘अच्छे पढ़ने-पढ़ाने वाले विद्वानों के समान।’
(५) यजु० ११/७ में तथा ९/१ में ‘यज्ञं’- ‘सर्वेषां सुखजनकं राजधर्मम्’ – ‘सब को सुख देने वाले राजधर्म का’ (यजु० ९/१ में)। और ‘यज्ञम्’- ‘सुखानां सङ्गमकं व्यवहारम्’ – ‘सुखों के प्राप्त कराने हारे व्यवहार वह सब यज्ञ है’ (यजु० ११/७ में)।
(६) यजु० अ० ११ मन्त्र ८ में ‘यज्ञम्’ – ‘विद्या और धर्म का संयोग कराने हारे यज्ञ को।’
(७) यजु० अ० १८ मन्त्र १६ में ‘यज्ञेन’- ‘विद्यैश्वर्य्योन्नतिकरणेन’ – ‘यज्ञ उस साधन को कहते हैं, जिससे विद्या और ऐश्वर्य की उन्नति हो।’
(८) यजु० अ० १८ मन्त्र ९ में ‘यज्ञेन’- ‘सर्वरसपदार्थवर्द्धकेन कर्मणा’ – ‘यज्ञ उस कर्म को कहते हैं जो सर्व रसों और पदार्थों को बढ़ावे।’
(९) यजु० अ० १८ मन्त्र २६ में ‘यज्ञेन’- ‘पशुपालनविधिना’ – ‘जिस विधि से पशुपालन हो उस विधि का नाम यज्ञ है।’
(१०) यजु० अ० १८ मन्त्र २७ ‘यज्ञेन’- ‘पशुशिक्षाख्येन’ – ‘पशु शिक्षा भी यज्ञ है।’
यह लेख हमने श्री शिवपाल सिंह कुशवाहा जी के लेख को आधार बनाकर तैयार किया है)
सादर-
गजेंद्र सिंह आर्य
राष्ट्रीय वैदिक प्रवक्ता, पूर्व प्राचार्य
गांव – जलालपुर, पोस्ट सूरजपुर मखैना, अनूपशहर, बुलंदशहर -२०३३९०
उत्तर प्रदेश
चल दूरभाष – ९७८३८९७५११