देश को आवश्यकता है आपातकाल की
बुढ़ापे में यादों की जुगालियां आदमी को तड़पाती भी हैं और कभी-कभी इसे बेचैन कर देती हैं कि वह यादों के बिस्तर पर उछल पड़ता है। देश का प्रधानमंत्री बनने की प्रतीक्षा में जीवन बिता देने वाले भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की मानसिकता इस समय समझी जा सकती है। उन्होंने देश में इस समय आपातकाल की आशंका व्यक्त की है। लोगों ने उनकी टिप्पणी के अपने-अपने अर्थ निकाले हैं।
वैसे आडवाणी जी की टिप्पणी के संदर्भ में हमें देश की परिस्थितियों को समझने की आवश्यकता है। जो आडवाणी रामरथ यात्रा लेकर चले और हिंदुत्व की आंधी मचाकर दो सम्प्रदायों को आमने-सामने लाकर साम्प्रदायिक माहौल को बिगाडऩे में सहायक हुए उन्होंने ही बाद में राममंदिर निर्माण को अपने एजेंडा में न बताकर हिन्दू मतदाता के साथ जिस प्रकार छल किया, वह सारा मतदाता आज भी ऐसे दोगले चरित्र के नेताओं को लेकर यही कहता है कि देश में आपातकाल लगना चाहिए, जिससे ऐसे दोगले नेताओं की दोगली बातों पर प्रतिबंध लग सके। देश का साम्प्रदायिक माहौल बिगाडऩे, जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद, प्रांतवाद और न जाने ऐसे कितने ही वाद इस देश में नेता नाम का जीव ही फैलाता है, जिससे देश का मतदाता खिन्न है, और वह नेताओं के खिलाफ आपातकाल की मांग करता है।
देश की किसी सब्जी मंडी जाकर खड़े होइये आपको दो ढाई रूपये किलो खरबूजा, ढाई तीन रूपये किलो तरबूज, साढ़े तीन चार रूपये किलो तोरई, दस, बारह रूपये किलो आम मिल जाते हैं। पर जब ये ही चीजें उपभोक्ता तक पहुंचती हैं तो खरबूजा 25 से 40 रूपये किलो तरबूज 20-25 रूपये किलो, तोरई पंद्रह बीस रूपये किलो और आम पचास से सौ रूपये किलो हो जाता है। तब लोगों को आपातकाल की सुखद यादें आती हैं और व्यक्ति सोचता है कि इस लूट पर प्रतिबंध लगाने के लिए देश में आपातकाल लगना चाहिए। देश के ‘बिगड़े दिमागों’ अकल सिखाने के लिए लोग आपातकाल को एक अच्छा कारगर हथियार समझ रहे हैं, जिसकी लोग प्रशंसा करते हैं। हम जिस इमारत को बनाने चले थे वह इमारत हम नही बना पाए, जिस इबारत को हमें लिखना था-वह इबारत हम नही लिख पाये, और जो इबादत हमें करनी चाहिए थी, वह इबादत हम नही कर पाये। इमारत, इबारत और इबादत की भव्यता और दिव्यता को प्रकट करने के लिए हमें नये संकल्प और नई साधना शक्ति से भरपूर होकर आगे बढऩा होगा।
हमारे नेता देश में ऐसा स्वार्थपूर्ण माहौल बनाते रहे हैं कि जिससे देश में उनके प्रति अविश्वसनीयता का माहौल बना है। आडवाणी स्वयं ऐसे ही नेताओं में रहे हैं, जिनके प्रति लोगों ने अपना अविश्वास ्रप्रकट किया, और उन्हें उपेक्षित कर कहीं दूर पटक दिया था। आज उन्हें इस बात पर सोचना चाहिए कि उनके साथ लोगों ने ऐसा व्यवहार क्यों किया? वह प्रधानमंत्री बन सकते थे यदि वह अपने कहे हुए वचन का पालन करने वाले नेता होते। उनके बारे में पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने एक बार कहा था कि जब आडवाणी रामरथ यात्रा लेकर चले थे तो उनसे उन्होंने कहा था कि आपको अयोध्या में राम मंदिर बनवाना है तो हम बनवा देते हैं। तब आडवाणी ने कहा था कि हमें सत्ता के निकट जाने के लिए जैसे-तैसे तो एक मुद्दा मिला है और उसे भी यूं ही गंवा दें, यह नही हो सकता। आडवाणी की ‘हार्ड-वाणी’ के कारण देश में हिन्दुत्व को एक ऐसी परिभाषा मिली जिसे साम्प्रदायिक हिंदुत्व कहा जाने लगा, हिंदुत्व के इस नई परिभाषा ने समाज में भाजपा के समर्थन में हिन्दू मतों का धु्रवीकरण तो किया परंतु उसका परिणाम अच्छा नही आया। आज लोग मुस्लिम विरोध का अर्थ हिंदुत्व से लगाते हैं। यह एक वैचारिक आपातकाल है। जिसके पुरोधा आडवाणी हैं। कुल मिलाकर कहने का अभिप्राय यह है कि देश में राजनीति की विकृति को पैदा करने और विसंगतियों को हवा देने में मददगार रहे आडवाणी भी यदि देश में नेताओं की अपरिपक्व सोच के कारण पुन: आपातकाल की आशंका व्यक्त कर रहे हैं, तो इस स्थिति को लाने में वह स्वयं भी कितने जिम्मेदार रहे हैं, यह भी विचार कर रहे हैं। साथ ही यह भी विचार कर लें कि देश की जनता आपातकाल चाहती क्यों है?
मुख्य संपादक, उगता भारत