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आज का चिंतन

देव पूजा, संगतिकरण और दान

यज्ञ में देव पूजा संगतिकरण और दान का विधान है। देव पूजा जहां ब्राह्मण वर्ण से संबंधित है, वहीं संगतिकरण क्षत्रिय वर्ण से और दान वैश्य वर्ण के लोगों से संबंधित है। देव पूजा ज्ञान प्रधान होने से ब्राह्मण वर्ण पर यह कार्य आरोपित करती है कि उन्हें समाज से अज्ञान नाम के शत्रु को मिटाकर ज्ञान का प्रचार प्रसार करना है। जबकि क्षत्रिय देश और समाज में संगठनीकरण की प्रक्रिया को मजबूत कर अन्याय नाम के शत्रु को समाज और राष्ट्र से दूर भगाने का महत्वपूर्ण कार्य करता है। इसी प्रकार वैश्य वर्ण धनादि से लोगों की सेवा कर राष्ट्र व समाज से अभाव नाम के शत्रु को दूर भगाता है। इस प्रकार यज्ञ परिवार से संसार में व्यवस्था को स्थापित किए रखने की एक सर्वश्रेष्ठ प्रक्रिया का नाम है। जो समाज यज्ञ के इस रहस्य को समझ जाता है वह परमपिता परमेश्वर के धर्म चक्र अर्थात मर्यादा पथ के साथ अपने आपको जोड़कर उसकी व्यवस्था का एक हिस्सा बन जाने में गर्व अनुभव करता है।
परमपिता परमेश्वर की व्यवस्था के साथ जुड़कर कार्य करना संसार में केवल वैदिक धर्म ही सिखाता है । इससे अलग जितने भी मत मतांतर हैं वह सब मनुष्य को परस्पर लड़ाने का काम करते हैं । अपने इसी मौलिक चिंतन के कारण वैदिक धर्म ही वास्तव में धर्म है, अन्य सभी मजहब कहे जा सकते हैं।
महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के अन्त में ‘स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश’ नाम से अपनी मान्यताओं व सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया है जो सभी वेदों पर आधारित होने से सार्वभौमिक, सार्वकालिक एवं सर्वमान्य आर्य–श्रेष्ठ–सिद्धान्त हैं। वह लिखते हैं कि ‘जो मतमतान्तर के परस्पर विरुद्ध झगड़े हैं, उनको मैं प्रसन्न नहीं करता। क्योंकि इन्हीं मत वालों ने अपने मतों का प्रचार कर मनुष्यों को फंसा के परस्पर शत्रु बना दिये हैं। इस बात को काट सर्व सत्य का प्रचार कर सब को ऐक्यमत में (स्थिर) करा द्वेष छुड़ा परस्पर में दृढ़ प्रीतियुक्त करा के सब से सब को सुख लाभ पहुंचाने के लिये मेरा प्रयत्न और अभिप्राय है। सर्वशक्तिमान् परमात्मा की कृपा सहाय और आप्तजनों की सहानुभूति से यह (ईश्वरप्रदत्त वेदा का ज्ञान) सिद्धान्त सर्वत्र भूगोल (संसार व विश्व) में शीघ्र प्रवृत्त हो जावे जिस से सब लोग सहज से धर्म्मार्थ, काम, मोक्ष की सिद्धि करके सदा उन्नत और आनन्दित होते रहें। यही मेरा मुख्य प्रयोजन (उद्देश्य व इच्छा) है।’ आर्यावर्त्त देश का उल्लेख कर महर्षि दयानन्द ने यह भी लिखा है कि इस भूमि का नाम आर्यावर्त्त इसलिये है कि इस में आदि सृष्टि से आर्य लोग निवास करते हैं परन्तु इस की अवधि उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पश्चिम में अटक और पूर्व में ब्रह्मपुत्रा नदी है। इन चारों के बीच में जितना प्रदेश है उस को ‘आर्यावर्त्त’ कहते हैं और जो इस आर्यावर्त्त देश में सदा से रहते हैं उन को भी आर्य कहते हैं। महर्षि दयानन्द के विश्व के लिए कल्याणकारी इन विचारों पर विचार करना और इन्हें मानना सभी मनुष्यों का कर्तव्य है।
महर्षि दयानंद का यह हम पर उपकार ही था कि उन्होंने हमें आर्य बनने का संकल्प दिलवाया । यह कुछ उसी प्रकार था जैसे गुरु गोविंद सिंह ने अपने शिष्यों को नाम के पीछे सिंह लगाने लिए प्रेरित किया था। उसका परिणाम यह हुआ कि उनके सभी शिष्य शत्रु के लिए सिंह बन गए । यही प्रभाव महर्षि दयानन्द के द्वारा हमें आर्य नाम देने का हुआ। लोगों ने वैदिक संस्कृति और वेद के उपदेश को अंगीकार कर देश को आजाद कराने का संकल्प लिया। यज्ञ वेदी में मिलने वाली भौतिक अग्नि राष्ट्र रुपी विशाल यज्ञ वेदी की अग्नि बन गई। जिसने आत्मिक चेतना को झकझोर कर रख दिया और संपूर्ण राष्ट्र क्रांति के लिए मचल उठा । यह होती है यज्ञ की अग्नि की अंतिम परिणति। राष्ट्रवाद की यज्ञ की वेदी बनाने में देव पूजा संगतिकरण और दान की पवित्र भावना ने बड़ी अहम भूमिका निभाई । यही कारण था कि देश के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी वर्ण मिलकर राष्ट्र जागरण के पवित्र कार्य में लग गए।

ज्ञानेंद्र गांधी
( प्रांतीय उपाध्यक्ष : आर्य प्रतिनिधि सभा उत्तर प्रदेश लखनऊ)

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