परमपिता परमेश्वर की असीम अनुकंपा से हमें यह मानव का चोला मिला है ।जो लोग इस चोले को पाकर इतराते हैं और इसका दुरुपयोग करते हैं वे अंत में पछताते हैं । अच्छी बात यही है कि हम संसार से जाने से पहले सावधान हो जाएं। यजुर्वेद के इस मंत्र में ऐसी ही चेतावनी मनुष्य मात्र को दी गई है :
वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम्।
ओ३म् क्रतो स्मर क्लिबे स्मर कृतं स्मर।।15।।
अन्वयः-हे क्रतो! त्वं शरीरत्यागसमये (ओ३म्) स्मर, क्लिबे परमात्मनं स्वस्वरूपं च स्मर, कृतं स्मर। अत्रस्थो वायुरनिलमनिलोऽमृतं धरति। अथेदं शरीरं भस्मान्तं भवतीति विजानीत।।15।।
भाषार्थ-हे (क्रतो) कर्म करने वाले जीव! देहान्त के समय (ओ३म्) ओ३म्, यह जिसका निज नाम है उस ईश्वर को (स्मर) चारों तरफ देख, (क्लिबे) अपने सामर्थ्य की प्राप्ति के लिए परमात्मा और अपने स्वरूप को (स्मर) याद कर, (कृतम्) और जो कुछ जीवन में किया है उसको (स्मर) स्मरण कर।
मृत्यु और परमपिता परमेश्वर को सदा याद रखना चाहिए। जबी जीवन इस पवित्र भावना के साथ गुजरने लगता है तो संसार में रहकर कोई भी दुष्ट भाव मन में पैदा नहीं होता और ना ही संसार की सुव्यवस्था में हम किसी प्रकार बाधक होते हैं। परमपिता परमेश्वर की बनी हुई व्यवस्था सुचारू रूप से चलती रहती है।
मंत्र में विद्यमान (वायुः) धनंजयादि रूप वायु (अनिलम्) कारण रूप वायु को और अनिल (अमृतम्) नाशरहित कारण को धारण करता है।
(अथ) और (इदम्) यह (शरीरम्) चेष्टादि का आश्रय, विनाशी शरीर (भस्तान्तम्) अन्त में भस्म होने वाला होता है, ऐसा जानो।।40/15।।
जो भस्म होने वाला है उस पर अधिक घमंड नहीं करना चाहिए। उसके बारे में मानकर चलना चाहिए कि यह एक दिन साथ छोड़ जाएगा। जिसके बारे में पहले से यह पूर्ण जानकारी है कि यह सदा साथ नहीं रहेगा, उससे अधिक मोह नहीं करना चाहिए। जीवन यात्रा के लिए मिली चीज हमारी नहीं है। ऐसा पवित्र भाव मन में रहना चाहिए।
भावार्थ-जैसे मृत्यु के समय चित्त की वृत्ति होती है, और शरीर से आत्मा का पृथक् भाव होता है, वैसी ही चित्त की वृत्ति तथा शरीर-आत्मा के सम्बन्ध को जीवनकाल में भी सब मनुष्य जानें।
इस शरीर की भस्मान्त-क्रिया (अन्त्येष्टि) करनी चाहिए, इस दहन-क्रिया के पश्चात् कोई भी संस्कार नहीं करना चाहिये।
हमारे देश में शरीर का भस्म कर देना ही उचित है। क्योंकि यहां पर भस्म करने की सारी सामग्री सहजता से उपलब्ध हो जाती है। अरब जैसे शुष्क क्षेत्रों में जहां भस्म करने की सारी सामग्री उपलब्ध होना बड़ा कठिन है, वहां के लिए दफन करने की व्यवस्था की गई है।
जीवन काल में एक परमेश्वर की ही आज्ञा का पालन, उपासना तथा अपनी शक्ति की वृद्धि करनी चाहिए।
किया हुआ कर्म कभी निष्फल नहीं होता, ऐसा मानकर धर्म में रुचि और अधर्म में अप्रीति रखनी चाहिए।।40/15।।
भाष्यसार-देहान्त के समय क्या करें-कर्म करने वाला जीव देहान्त अर्थात् शरीरत्याग के समय में ‘ओ३म्’ नाम का स्मरण करे। अपने सामर्थ्य की प्राप्ति के लिए परमात्मा को और अपने स्वरूप को स्मरण करे। जो कुछ जीवन में किया है उसको स्मरण करे।
मेजर वीरसिंह आर्य