कैसे बढ़ता है मधुमेह
१-गुरु, स्निग्ध, अम्ल, लवण, नूतन अन्नपान का सेवन
२-दही दूध, मिष्ठान्न का सेवन
३-गुड वा चीनी के बने पौष्टिक वा कफ-मेदोवर्धक पदाथों का अधिक सेवन
४-आरामतलबी तथा श्रम का कार्य ना करना !
५-समयानुसार वामन, विरेचन आदि संशोधनों का ना करना !
६-पैदल चलने की आदत ना होना!
७-मन मं उत्साह न होना
८-अधिक मात्रा में भोजन करना
९-शरीर का अतिस्निग्ध और अतिस्थूल होना!
१०- व्यायाम ना करना इत्यादि
मधुमेह के लक्षण
१-आयुर्वेद में वर्णित सभी तरह के प्रमेह,उचित समय पर समुचित चिकित्सा नहीं किये जाने पर ‘मधुमेह ‘ का रूप धारण कर लेते हैं !
२-स्वप्रकोपक कारणों से प्रकुपित वायु जब रुक्षता क कारण कषाय से मिलकर मधुर स्वभाव वाले ओज को मूत्राशय मं ले आती है तब मधुमेह को उत्पन्न करती है !
३-कफ और पित्त जब न्यून होते हैं तब बढ़ा हुआ वात धातुओं (वसा-मज्जा-ओज-लसीका) को खींचकर मूत्राशय में ले जाता है और वातज प्रमेहों को उत्पन्न करता है !
४- जब प्रमेहजनक निदानों से शरीर में कफ पित्त मेड और मांस की वृद्धि अधिक रूप मं हो जाती है तो इनके बढ़ने से रुकी हुयी वायु कुपित होकर, ओज को लेकर जब मूत्राशय में प्रविष्ट होती है तब कृच्छसाध्य मधुमेह की उत्पत्ति होती है !
मधुमेह में निकलनेवाला अपरोज मधुर स्वभाव का होता है इसलिए मूत्र में चींटियाँ लगती हैं .
मूतराभिधावन्ति पिपीलिकाश्च’
विकृतावस्था में सभी प्रमेहों में मधु के समान मधुर मूत्र आता है और शरीर भी प्रायः मधुर हो जाता है, इन सभी कारणों से सभी प्रमेह प्रायः मधुसंज्ञक हो जाते हैं !
पूर्व रूप :
- पसीना अधिक आना, शरीर से गंध का अधिक आना, अंगों में शिथिलता
- शय्या और आसन पर सोने अथवा बैठने की इच्छा, छाती-नेत्र-जीभ-कान में मेल जमना
- शरीर में मोटापा होना, केश व नख का अधिक बढ़ जाना
- शीतल द्रव्यों का प्रिय लगना, गला और तालु का सूखना, मुख माधुर्य
- हाथ पैर में जलन होना
- मूत्र में चीटियों का लगना
कैसे पहचानें इसे:
- वात प्रकोप के कारण मधुमेह का रोगी, कषाय, पाण्डु और रुक्ष मूत्र का
त्याग करता है (यह असाध्य होता है). मूत्र त्याग की आवृति का अधिक होना
- अत्यधिक प्यास का व भूख लगना
- दृष्टि दौर्बल्य होना
- अत्यधिक थकान का होना
- त्वचा का रुक्ष हो जाना
- रक्ताल्पता होना, कब्ज़ तथा जननांगों के इर्द-गिर्द खुजली होना
- शरीर पर उत्पन्न वृणों का धीमी गति से भरना
.
चिकित्सा सूत्र :
- निदान का दृढ़ता पूर्वक परित्याग करना चाहिए
- स्थूल तथा बलवान रोगी की संतर्पण जन्य चिकित्सा करनी चाहिए तथा कृष
तथा दुर्बल रोगी की अप्तर्पण जन्य चिकित्सा करनी चाहिए
- स्थूल रोगी का संशोधन और कृष रोगी का संशमन उपचार करें
- विधिवत स्नान तथा संध्या-सवेरे टहलना आवश्यक है.
- आलस्य को शत्रु समझ उसका परित्याग करें
- भोजन में चीनी, आलू, चावल और मिठाई को छोड़ दें
- औषध एवं आहार में तिक्तरस प्रधान द्रव्यों का प्रयोग करें
- संयमित एवं लघु भोजन करें
- सूर्या की धुप व खुली वायु में कुछ श्रम का कार्य अवश्य करें
- मधुर-अम्ल-लवण रसों का त्याग कर रुक्ष एवं कटु-टिकट-कषाय रसों का
सेवन करना हितकर है
चिकित्सा :
- स्वरस – बिल्वपत्र, त्रिकोलपत्र, निम्बपत्र, कच्ची हल्दी, कच्चा आंवला
फल, करेला फल, गूलर की गीली छाल, जामुन की गीली छाल और प्याज आदि में से
जो सुलभ हो उसका स्वरस 10 से 20 ग्राम मात्र में सवेरे संध्या पीना चाहिए
- चूर्ण – जामुन की गुठली, गुड़मार, लामज्जक, पूतिकरञ्ज के बीज की नींगी, त्रिफला निर्बीज, दरियार का बीज, गूलर की छाल और आम की गुठली को समभागमें लेकर चूर्ण बनाकर तीन-तीन ग्राम सवेरे संध्या जल से ले
- विजयसार (सप्तरंगी लकड़ी) – इसके सौ ग्राम के टुकड़े को ताम्बे के पात्र में जल भरकर रातभर रख दे और यह जल पीने के काम में लें
- क्वाथ (त्रिफलादि क्वाथ) – 20 ग्राम सुबह शाम पीना चाहिए. यह बहुमूत्र में उपयोगी है
- वसंतकुसुमाकर रास 200 मिली ग्राम, हल्दी का चूर्ण 1 ग्राम और आंवले काचूर्ण 1 ग्राम शुद्ध मधु के साथ सवेरे शाम दें
- चंद्रप्रभावती १ ग्राम सवेरे शाम दूध के साथ दें
पथ्य :
- पैदल चलना, व्यायाम करना एवं शारीरिक श्रम करना लाभकर है
- सावाँ, दांगुन, कोदो, जौ, चना, मूंग, अरहर, परवंल, करेला, चौलाई,
पालक, प्याज, लहसुन, कच्चा केला, जामुन, कसेरू, कमलकन्द, कुंदरू, जांगल पशु-पक्षियों का माँस, कबूतर-खरगोश-तीतर-मयूर-हरिण आदि के माँस का सेवन पथ्य है
अपथ्य :
निदानोक्त विषयों का त्याग करें ! मूत्रवेगावरोध, रक्तमोक्षण, आरामदेह गद्दे अथवा कुर्सी पर सोये-बैठे रहना , दिन में सोना, नया अन्न, दही मिठाई, मधुर अम्ल-लवण पदार्थों का सेवन, अनूप मांस, मैथुन, पिष्टान्न,और विरुद्ध भोजन , ये सब अपथ्य हैं !