1981 में किये गये अध्ययनों से विशेषज्ञों को जानकारी मिली कि काशी के प्रमुख तीर्थ स्थलों में से एक में जैव रासायनिक ऑक्सीजन की मांग तथा मल कोलिफॉर्म की गणना कम थी। पटना में गंगा के दाहिने तट से लिये गये नमूनों के 1983 में किये गये अध्ययन पुष्टिï करते हैं कि एशसरिकेया खोली और ब्रिबकोलरी जीव सोन तथा गण्डक नदियों, उसी क्षेत्र में खुदे हुए कुओं और नलकूपों से लिये गये पानी की अपेक्षा गंगा के पानी में दो से तीन गुना तेजी से मर जाते हैं।
इस प्रकार दुनिया की सबसे पवित्र समझी जाने वाली गंगा नदी अब दुनिया की सबसे अधिक प्रदूषित नदी बन चुकी है। एक अध्ययन के अनुसार पानी में मौजूद कोलिफॉर्म का स्तर पीने के प्रयोजन के लिए पचास से नीचे, नहाने के लिए पांच सौ से नीचे तथा कृषि उपयोग के लिए पांच हजार से कम होना चाहिए। हरिद्वार में गंगा में कोलिफॉर्म का वर्तमान स्तर 55 सौ पहुंच चुका है। इस प्रकार गंगा का पानी पीने लायक तो दूर नहाने और कृषि उपयोग के लिए भी उपयुक्त नही रहा है।
हरिद्वार में गंगाजल में इतना अधिक कोलिफॉर्म है कि उससे ऑक्सीजन और जैव रासायनिक ऑक्सीजन का स्तर निर्धारित मानकों के अनुरूप नही है। गंगा में कोलिफॉर्म के उच्च स्तर का मुख्य कारण इसके गौ मुख में शुरूआती बिंदु से इसके ऋषिकेश के माध्यम से हरिद्वार पहुंचने तक मानव मल मूत्र और मल जल का नदी में सीधा निपटान है। हरिद्वार तक इसके मार्ग में पडऩे वाले लगभग बारह नगरपालिका कस्बों के नालों से लगभग 8 करोड़ 90 लाख लीटर मल-जल प्रतिदिन गंगा में गिरता है। मई और अक्टूबर के बीच लगभग 15 लाख लोग चार धाम यात्रा पर प्रतिवर्ष राज्य में आते हैं, तो उस समय मल-जल की मात्रा और भी अधिक बढ़ जाती है। इसके अतिरिक्त हरिद्वार में अधजले मानव शरीर तथा श्रीनगर के अस्पताल से हानिकारक चिकित्सकीय अपशिष्टï भी गंगा के प्रदूषण के स्तर को बढ़ाने में योगदान दे रहे हैं। जिससे इस नदी के अस्तित्व को संकट उत्पन्न हो गया है। कोलिफार्म अणु की आकृति के जीवाणु हैं, जो सामान्य रूप से मानव और पशुओं की आंतों में पाये जाते हैं, और भोजन और जलापूर्ति में पाये जाने पर एक गंभीर संदूषक बन जाते हैं।
पर्यावरण जीव विज्ञान प्रयोगशाला, प्राणि विज्ञान विभाग, पटना विश्वविद्यालय द्वारा एक अध्ययन में वाराणसी शहर में गंगा नदी में पारे की उपस्थिति देखी गयी है। जो चिंताजनक स्थिति तक बढ़ी हुई है, 1986, 1992 के दौरान भारतीय विषाक्तता अनुसंधान केन्द्र लखनऊ द्वारा किये गये अध्ययन से पता चला कि ऋषिकेश, इलाहाबाद जिला और दक्षिणेश्वर में गंगा नदी के जल में पारे की वार्षिक सघनता बहुत ही चिंताजनक थी।
दिसंबर 2009 में गंगा की सफाई के लिए विश्वबैंक 6 हजार लाख उधार देने पर सहमत हुआ था। यह धन भारत सरकार की 2 हजार बीस तक गंगा में अनुपचारित अपशिष्टï के निर्वहन का अंत करने की पहल का हिस्सा है।
इससे पहले 1989 तक इसके पानी को पीने योग्य बनाने सहित नदी को साफ करने के प्रयास विफल रहे थे। नदी में प्रदूषण भार को कम करने के लिए 1985 में श्री राजीव गांधी द्वारा गंगा कार्य योजना का विकास प्रारंभ किया गया था। परंतु भारी राशि खर्च करने के पश्चात भी हम गंगा को प्रदूषण मुक्त करने में असफल रहे। फलस्वरूप इस योजना को 31 मार्च 2000 को बंद कर दिया गया।
अब नरेन्द्र मोदी की सरकार फिर से गंगा को प्रदूषण मुक्त करने और इसकी पवित्रता को सर्वग्राह्य बनाने के लिए कार्य कर रही है। यह एक स्वागत योग्य कदम है। परंतु हमें ध्यान रखना होगा कि कोई भी सरकारी योजना या नैतिक उपदेश तब तक सफल नही होते हैं जब तक उन्हें जन-जन की आवाज ना बना दिया जाए। अब से पचास वर्ष पहले तक भी जल को एक देवता मानकर पूजने की परंपरा इतनी मजबूती से भारतीय समाज में प्रचलित थी, कि लोग नदी जल में या ठहरे हुए जलों में थकना भी इतना भी अपराध मानते थे। जबकि आज कल लोग जल को जितना अधिक प्रदूषित किया जा सके, उतना ही अच्छा मानते हैं। मोदी यदि हमारे समाज के पचास वर्ष पुराने संस्कारों को जगाने में सफल हो गये तो गंगा सहित देश की प्रत्येक नदी को शुद्घ और प्रदूषण मुक्त किया जाना संभव हो जाएगा।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।