यह बात तो सही है कि सरकारी विज्ञापन पर किसका चित्र का लगे किसका न लगे,यह सरकार का विवेक है, पर विवेक भी विवेकपूर्ण होगा इस बात की क्या गारंटी है। ऐसा विचार करना ही विवेक पर प्रश्नचिन्ह लगा देता है कि सोनिया गांधी जिनके पास कोई संवैधानिक पद नहीं था, को प्रधानमंत्री के साथ सरकारी विज्ञापन पर क्यों बैठाया जाने लगा? लोकतंत्र की अपनी सीमायें हैं और अपनी मर्यादाएं हैं। लोकतंत्र की सबसे पहली मर्यादा है कि यह लोगों को लोकतंत्र ही दिखाई दे, किसी पार्टी या किसी पार्टी के ‘पूज्य परिवार’ की जागीर नहीं। इसलिए सरकारी नीतियों की मर्यादा और सीमा यही है कि लोकतंत्र के स्वरूप को लोकतंत्र की आत्मा संविधान का कही से हनन न हो। प्रधानमंत्री एक संवैधानिक पद है, जिससे राष्ट्र की गरिमा का बोध होता है। जबकि राष्ट्रपति हमारे संविधान का प्रमुख संरक्षक है। इसलिए सरकारी नीतियों में, सरकारी विज्ञापनों के माध्यम से यह संकेत और संदेश कदापि नहीं जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री के समान हैसियत का कोई और व्यक्ति भी है। कांग्रेस ने मनमोहन सिंह को सोनिया गांधी के कहने पर बेशक प्रधानमंत्री बनाया, परंतु प्रधानमंत्री बनते ही वह ‘कांग्रेस के प्रधानमंत्री’ न होकर ‘भारत के प्रधानमंत्री’ बन गये थे। ऐसे में वह राष्ट्र की गरिमा का प्रतीक बन गये थे, जिसका अभिप्राय है कि वह दलीय भावना और दलीय परिस्थितियों से ऊपर उठ गये। अत: उनके साथ सोनिया गांधी के चित्र का लगे होने का अभिप्राय था कि वह देश के प्रधानमंत्री न होकर कांग्रेस के प्रधानमंत्री थे और इसलिए कांग्रेस व देश में सोनिया गांधी उनसे बड़ी हैसियत रखती थीं।
विनम्र मनमोहन सिंह ने अपनी इस स्थिति को अपने लिए स्वीकार्य बना लिया। जिसका परिणाम यह आया कि प्रधानमंत्री जैसे संवैधानिक पद का अवमूल्यन हुआ। इस अवमूल्यन का दुष्प्रभाव विदेशों में भी देखने को मिला । जब लोगों ने भारतीय प्रधानमंत्री को अधिक भाव नहीं दिया था या कुछ ऐसा अहसास कराने का प्रयास किया कि भारत का प्रधानमंत्री किसी एक महिला का ‘अधीनस्थ कर्मचारी है।’ इससे भारत की विश्व मंचों पर भी किरकिरी हुई और भारत की आवाज को लोगों ने हल्के में लेना आरंभ कर दिया।
अब भारत के सर्वोच्च न्यायाल ने निर्देश दिया है कि सरकारी विज्ञापनों पर केवल राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश के चित्र ही प्रकाशित किये जायें। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया है कि इन विज्ञापनों को राजनैतिक दलों के नेताओं के प्रचार का माध्यम नहीं बनाया जाना चाहिए। और न ही किसी मंत्री या नेता की व्यक्तिगत छवि को बनाने के माध्यम के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिए। क्योंकि सरकार का कोई कार्य या योजना किसी व्यक्ति का व्यक्तिगत विषय नहीं हो सकता।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्देश का पालन कड़ाई से होना चाहिए। न्यायालय का यह निर्देश वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना में सहायक होगा और इससे लोकतांत्रिक संस्थानों की स्वीकार्यता बढ़ेगी। इस देश में मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम को भगवान के रूप में पूजा जाता है, परंतु भगवान राम की मर्यादाओं का लोग सम्मान नहीं करते। गली मौहल्ले के लोग भी या पार्टी के कार्यकर्ता अपने प्रदेश के या अपनी पार्टी के मुख्यमंत्री या अपनी पार्टी के प्रधानमंत्री के साथ विज्ञापनों पर अपने चित्र लगाकर लोकतांत्रिक संवैधानिक मर्यादाओं का हनन करते हैं, जबकि यह गलत है। यदि मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री को लोग इन पदों पर जाते ही उन्हें अपनी किसी पार्टी विशेष से न बांधकर देखें तो ही अच्छा होगा। तब पार्टी कार्यकर्ताओं को भी अपने प्रधानमंत्री अथवा मुख्यमंत्री की रचनात्मक आलोचना करने का अधिकार प्राप्त हो जाएगा। जैसा कि आजादी के बाद के प्रारम्भिक वर्षों में देखा भी गया था। जब लोग संसद में अपनी ही पार्टी के प्रधानमंत्री की नीतियों की आलोचना कर लिया करते थे। यह स्थिति स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपराओं की प्रतीक थी।
तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री एम. करूणानिधि ने माननीय सर्वोच्च न्यायालय के उक्त निर्देशों पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा है कि-‘‘सरकारी विज्ञापनों में मुख्यमंत्री के चित्रों पर प्रतिबंध लगाने का उच्चतम न्यायालय का निर्देश राज्य के अधिकारों का हनन है।’’ उनका मानना है कि संविधान प्रधानमंत्री के समान स्तर प्रदान करता है। श्री करूणानिधि के अनुसार उच्च न्यायालय का यह निर्देश कि सरकारी विज्ञापनों में मुख्यमंत्री के चित्रों का प्रयोग न होकर राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और प्रधान न्यायाधीश के चित्र होने चाहिए, यह राज्यों के अधिकारों का हनन होता है। उनका यह भी कहना है कि भारत के संविधान के अनुसार संघीय व्यवस्था में प्रधानमंत्री और राज्य में मुख्यमंत्री का पद समान स्तर का है।
श्री करूणानिधि की अपनी व्यवस्था है और अपनी मान्यता है, जिसे प्रस्तुत करने के लिए वह स्वतंत्र हैं, जबकि शीर्ष अदालत की अपनी धारणा है और शीर्ष अदालत की उस धारणा और मान्यता का सही अर्थों और सही संदर्भों में अर्थ निकालना हम सबके लिए अनिवार्य है। इसमें दो मत नहीं हैं कि जो अधिकार केन्द्र में कुछ परिस्थतियों में प्रधानमंत्री के सुरक्षित होते हैं वही प्रदेश में मुख्यमंत्री के पास सुरक्षित होते हैं। परंतु इसके उपरांत भी प्रदेश प्रदेश है। और मुख्यमंत्री केवल मुख्यमंत्री है। उसकी सोच सीमित हो सकती है, दृष्टिकोण लघु हो सकता है। इसलिए उसे हटाने के लिए संविधान में धारा 356 की व्यवस्था की गयी है, जबकि प्रधानमंत्री को चलता करने के लिए कोई धारा 356 संविधान में नहीं है। यह अलग बात है कि किन्ही विशेष परिस्थितियों में देश में आपातकाल की घोषणा की जा सकती है, और यह प्रधानमंत्री को संवैधानिक प्रक्रिया के तहत हटाया भी जा सकता है, परंतु हटने वाला कोई व्यक्ति होता है प्रधानमंत्री नहीं, और यह भी कि आपातकाल में भी देश का नेता प्रधानमंत्री ही होता है। इसका अभिप्राय है कि एक प्रधानमंत्री से अत्यंत परिपक्व बुद्धि का होने और उसके द्वारा विशाल हृदयता का प्रदर्शन करने की अपेक्षा की जाती है कि जो व्यक्ति प्रधानमंत्री बन गया वह इन दोनों गुणों से भली प्रकार सुशोभित हुआ। प्रदेश का मुख्यमंत्री राष्ट्रीय नेता नहीं हो सकता क्योंकि वह अपने राज्य से बाहर की बात नहीं सोच सकता, उसके राज्य की सीमाएं उसके क्षेत्राधिकार का निर्धारण करती हैं,और उसे बता देती हैं कि तुझे कहां तक उडऩा है? जबकि देश के प्रधानमंत्री की सीमाएं देश की सीमाओं से भी बाहर जाती हैं। जब उसे विश्वमंचों पर देश के नायक के रूप में अपनी बात कहने का अवसर मिलता है। पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी और अटल जी ने अनेकों अवसरों पर विश्वमंचों पर देश का सम्मान बढ़ाया था, तब लोगों को लगता था कि उनके पास कोई नेता है। आज उसी परंपरा को नरेन्द्र मोदी आगे बढ़ा रहे हैं। उन्होंने चीन में या उससे पूर्व अन्य देशों में जाकर जो सम्मान अर्जित किया है उससे देश का मस्तक ऊंचा हुआ है। उन्होंने चीन की धरती से ठीक ही कहा है कि चीन के राष्ट्रपति ने प्रोटोकॉल तोडक़र जिस प्रकार उनका सम्मान किया है वह मेरे देश के सवा अरब लोगों को दिया गया सम्मान है। जिस किसी ने भी मोदी के यह शब्द सुने उसी ने प्रसन्नता का अनुभव किया। हर व्यक्ति ने मोदी से अधिक स्वयं को गौरवान्वित अनुभव किया। कोई व्यक्ति मुख्यमंत्री रहते हुए प्रधानमंत्री बनने की सोच सकता है, और समय आने पर जनता की इच्छा से प्रधानमंत्री बन भी सकता है, यह एक अलग बात है। पर मुख्यमंत्री रहते हुए वह प्रधानमंत्री का समकक्ष नहीं हो सकता। इसलिए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और देश के मुख्य न्यायाधीश को ही सरकारी विज्ञापनों में स्थान देकर उचित और न्यायसंगत निर्देश दिया है। हमारा राष्ट्रपति पूरे देश का सम्मान इसलिए प्राप्त करता है कि वह दलीय भावनाओं से ऊपर होता है। पूरा देश उसे अपना समादरणीय मानकर सम्मानित करता है। इसी प्रकार मुख्य न्यायाधीश को लोग न्यायमूर्ति के रूप में सम्मानित करते हैं। राष्ट्रपति का काम सृष्टा (ब्रह्मा) का है,प्रधानमंत्री का काम पालनकर्ता (विष्णु) का है और मुख्य न्यायाधीश का काम संहारकत्र्ता (महेश) का है ।
यहां संहारकर्ता का अभिप्राय दुष्ट अन्यायी और नीच लोगों को दंडित करने से है । ब्रह्मा, विष्णु, महेश के पूजक इस देश की परंपराओं के निहित अर्थों का सम्मान होना चाहिए । गायत्री मंत्र का भू:-उत्पत्तिकर्ता (ब्रह्मा) भुव:-पालन कर्ता (विष्णु-जैसे परिवार में पिता होता है और वह निष्पक्ष भाव से सबका पालन पोषण करता है वैसे ही राष्ट्र में प्रधानमंत्री होता है ) और स्व:-सुखप्रदाता (महेश) भी यही संकेत करता है कि राष्ट्र में तीनों शीर्ष शक्तियों का सम्मान करते चलो और वे तीनों शक्तियां अपनी मर्यादा का पालन करें तो राष्ट्र, समृद्धि, उन्नति को प्राप्त कर अपनी अखण्डता की रक्षा कर सकता है।