स्वतंत्रता के परमोपासक महाराणा मोकल और कुम्भा
वास्तव में हम 1400 ई. से 1526 ई. तक (जब तक कि बाबर न आ गया था) के काल में उत्तर भारत में अपने-अपने साम्राज्य विस्तार के लिए विभिन्न शक्तियों के मध्य हो रहे संघर्ष की स्थिति देखते हैं। इसी संघर्ष की स्थिति से गुजरात, मालवा और मेवाड़ निकल रहे थे। ये एक दूसरे से आगे निकलने और एक दूसरे की शक्ति को संतुलित करने का प्रयास कर रहे थे। हिंदू शासकों को इस संघर्षमयी स्थिति में भी दोहरा संघर्ष करना पड़ रहा था, एक तो वह अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत थे (यहां अपनी स्वतंत्रता से अभिप्राय उनके अपने राज्य की स्वतंत्रता से है) और दूसरे उसके पश्चात अपना साम्राज्य विस्तार करने का संघर्ष कर रहे थे।
डूंगरपुर (बांगड़) ने भी दिया योगदान
स्वतंत्रता के इस संघर्ष में डूंगरपुर के हिंदू राज्य ने भी अपना योगदान दिया। इस नगर की स्थापना 1358 ई. में डूंगरपुर ने की थी। इसके पश्चात कई वीर और स्वतंत्रता प्रेमी शासक इस वंश में हो चुके थे। जिनमें कर्णसिंह, कन्हड़ देव, प्रताप सिंह, गोपीनाथ इत्यादि सम्मिलित हैं। गोपीनाथ का शासन यहां 1426 ई. से 1448 तक माना गया है। इसके शासन काल में गुजरात के मुस्लिम शासकों ने डूंगरपुर की स्वतंत्रता का हनन करने के लिए दो बार डूंगरपुर पर आक्रमण किया था। इतिहासकारों का निष्पक्ष आंकलन है कि पहले आक्रमण में गुजरात शासक की पराजय हुई तो (उसने 1433 ई. में मिली पराजय के पश्चात) 1446 ई. में पुन: डूंगरपुर पर आक्रमण कर दिया। शांतिनाथ मंदिर की प्रशस्ति 1468 ई. की प्रशस्ति से हमें पता चलता है कि बागड़ प्रदेश के स्वामी गोपीनाथ ने गुजरात के सुल्तान की अपार सेना को नष्ट कर उसकी संपत्ति छीन ली थी।
दूसरी बार में करना पड़ा समझौता
गोपीनाथ को गुजरात के मुस्लिम शासकों द्वारा डूंगरपुर पर किये गये दूसरे आक्रमण के समय उनसे समझौता करना पड़ा था। गोपीनाथ की पराजय से दु:खी होकर मेवाड़ के राणा कुम्भा ने डूंगरपुर के विरूद्घ अभियान ले जाकर उसे अपने प्रभुत्व के अधीन लाने का प्रयास किया था।
मेवाड़ की महानता और भारत का स्वातंत्रय समर
मेवाड़ भारत का मुकुटमणि है। मध्य कालीन भारत के सभी राजवंशों में सर्वाधिक गौरवपूर्ण इतिहास निस्संदेह मेवाड़ का ही है। इसके इतिहास में एक से एक बढक़र कई गौरव पूर्ण शासकों ने शासन किया। जिनका उल्लेख हम प्रसंगवश पूर्व में कर चुके हैं। सैय्यद वंश के काल में यहां के समकालीन शासक राणा लक्ष्य सिंह (1382ई. से1420ई.) राणा मोकल (1420 ई. से 1433 ई.) और राणा कुम्भा (1433 ई. से 1468ई.) रहे थे। महाराणा मोकल ने अपना पराक्रम प्रदर्शन अपने शासनकाल में अपने निकटवर्ती मुस्लिम शासकों की बढ़ती महत्वाकांक्षा को नियंत्रित करने में कई बार किया था।
राणा मोकल का पराक्रम
कुम्भल गढ़ अभिलेख हमें बताता है कि ‘‘मोकल ने सयादलक्ष को नष्ट कर दिया तथा जालंदर वालों को कम्पायमान कर दिया। शाकम्भरी को छीनकर दिल्ली को संशययुक्त कर दिया। इसका अनुमान इतिहासकारों ने ये लगाया है कि उसने शाकम्भरी (अजमेर का निकटवर्ती भू-भाग) को दिल्ली के शासक के आधिपत्य से छीन लिया। उसने नरेना,साम्भर तथा डीडवाना पर भी विजय प्राप्त की।
राणा मोकल का पराक्रमी स्वभाव गुजरात के सुल्तान आहमदशाह के लिए ईष्र्या का कारण बन गया था। इसलिए उसने 1433 ई. में मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। जब उसके आक्रमण की सूचना राणा मोकल को मिली तो वह अपनी मुस्लिम सेना के साथ चित्तौड़ से चल दिया। परंतु कहा जाता है कि मार्ग में उसे ही चाचा मेरा एवं महपा परमार ने मार डाला।
सुल्तान अहमदशाह तब मेवाड़ के कुछ क्षेत्र में अपना आतंक और अत्याचार मचाकर लौट गया। उसने अपने विजित क्षेत्र में मीर सुल्तानी को अपना राज्यपाल नियुक्त कर दिया।
राणा मोकल के जन्म और बचपन का वर्णन
राणा मोकल की जन्म और बचपन की कहानी बड़ी ही रोचक है। उसके जन्म और बचपन की इस कहानी का उल्लेख कर्नल टॉड ने किया है। वह अपनी पुस्तक‘राजस्थान का इतिहास भाग-1’ में लिखता है-‘राणा लाखा (राणा मोकल का पिता) को जब वृद्घावस्था आने को थी तो उस समय राणा लाखा के लडक़े की सगाई का प्रस्ताव मारवाड़ के राजा रणमल्ल ने चित्तौड़ केे इस शासक के पास भेजा।’ रणमल्ल के दूत की बात को सुनकर राणा लाखा ने कहा कि राजकुमार चुंडा कुछ समय में दरबार में आने वाला है, वह स्वयं ही इस विषय में बताएगा। कर्नल टॉड कहते हैं कि राणा लाखा ने अपनी सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहा कि मैं कल्पना भी नही कर सकता कि तुम मेरे जैसे सफेद दाढ़ी मूंछ वाले व्यक्ति के लिए इस प्रकार खेल की सामग्री लाये हो।’’
राजकुमार चुंडा ने प्रस्ताव कर दिया अस्वीकार
राजकुमार चुंडा को जब अपने पिता के वचनों का ज्ञान हुआ तो उसने दरबार में ही कह दिया कि यद्यपि मेरे पिता ने उपहास में ऐसा कहा है, परंतु मैं फिर भी यह उचित नही समझता कि इस संबंध को स्वीकार करूं।’’
चूंडा के इस कथन पर राणा लाखा ने भी अपने पुत्र को समझाने का प्रयास किया। परंतु सारे प्रयास व्यर्थ ही रहे। राणा धर्म संकट में फंस गया। पुत्र मानता नही था और सगाई का नारियल लौटाने से राणा रणमल्ल का अपमान था। तब राणा लाखा ने अपने पुत्र से कहा यदि तुम यह संबंध नही बनाओगे तो मैं यह विवाह करूंगा, परंतु यह स्मरण रखना कि यदि इस रानी से पुत्र हुआ तो वही मेवाड़ का शासक बनेगा। राजकुमार चूंडा ने इस पर भी हां कह दी। राणा लाखा का विवाह राणा रणमल्ल की लडक़ी से हो गया। उससे जो लडक़ा उत्पन्न हुआ उसी का नाम रखा गया-मोकल।
पांच वर्ष की अवस्था में ही राणा ने कर दिया राजतिलक
मोकल जब पांच वर्ष का ही था तो एक बार राणा लाखा को अपनी सेना लेकर युद्घ पर जाना पड़ गया, तब राणा लाखा ने म्लेच्छों से होने वाले इस युद्घ के लिए प्रस्थान करने से पूर्व, अपने पुत्र का राजतिलक करा दिया। तब से राणा मोकल चित्तौड़ का उत्तराधिकारी राजकुमार चुंडा अपने भाई मोकल के प्रति सहिष्णु और सहृदयी रहा। अपने पिता के देहावसान के पश्चात राजकुमार चुंडा अपने भाई मोकल का संरक्षक बनकर राजकार्य चलाने लगा। परंतु मोकल की माता को राजकुमार चुंडा पर संदेह रहता था। राजमाता के इस प्रकार के संदेह का निवारण नही हो सका, तो राजकुमार चुंडा चित्तौड़ छोडक़र मांडू चला गया। वहां के राजा ने उसका सम्मान किया और अपने राज्य का हल्लर नाम का क्षेत्र उसे दे दिया।
ननिहाल पक्ष के मन में आ गया पाप
उधर पांच वर्ष के बालक को चित्तौड़ का शासक बना देखकर मोकल के ननिहाल पक्ष के मन में कुविचार आ गये और चित्तौड़ को हड़पने की इच्छा से राजमाता के पितृपक्ष के अनेक लोग वहां आकर दरबार में रहने लगे और राजकार्यों में हस्तक्षेप भी करने लगे।
राजमाता को हुआ भूल का ज्ञान
राजा के मामा-नाना के बढ़ते अनुचित हस्तक्षेप को देखकर राजमाता को अपनी भूल का ज्ञान हुआ कि उसने चुंडा को यहां से निकालकर अच्छा नही किया। अत: उसने राजकुमार चुंडा के पास वस्तुस्थिति का सारा विवरण भेजकर उससे पुन: चित्तौड़ आने का आग्रह किया। राजकुमार चुंडा ने राजमाता के आग्रह को आदेश मानकर स्वीकार कर लिया।
इसे कहते हैं इतिहास
ये है हमारा इतिहास, जो मानवता के नैतिक पक्ष को भी उभारता है। ये मरे-गिरे लोगों की नीरस कहानी का विवरण नही देता अपितु जीवन को जीवन्तता देता है। यहां पिता की इच्छा के लिए एक ‘भीष्म’ ने अपना जीवन बलिदान नही किया, अपितु खोजेंगे तो अनेकों ‘भीष्म’ राजकुमार चुंडा के रूप में मिल जाएंगे। जिन्होंने नैतिकता के उच्च मानदण्ड स्थापित किये। अपनी आयु से भी कम आयु की अपनी विमाता राजमाता को चुंडा ने माता का सम्मान और अपने पुत्र की आयु के भाई को राजा बनने पर राजोचित सम्मान दिया। यह भी एक प्रकार की देशभक्ति ही है, क्योंकि देशभक्ति का नाम देश के मूल्यों को अपनाना और उनका विस्तार करना होता है। उनके लिए प्राण भी न्यौछावर करने हों तो किये जाएं-देशभक्ति का यह भाव देश के मूल्यों के प्रति समर्पण की अंतिम परिणति होता है। हम इस अंतिम परिणति को ही देशभक्ति मान लेते हैं-जोकि दोषपूर्ण है।
राजकुमार आ गया चित्तौड़
राजकुमार चुंडा एक योजना के अंतर्गत चित्तौड़ में आया। उसने विचार किया कि यदि चित्तौड़ पर चढ़ाई की गयी तो अनर्थ हो जाएगा। इसलिए राजकुमार चुंडा ने अपने विश्वसनीय भीलों के माध्यम से राजमाता के पास संदेश पहुंचवाया और उसे अपनी योजना से अवगत कराया। योजना के अनुसार राजमाता अपने पुत्र मोकल के साथ गोगुन्दा नामक गांव में दीपावली पर्व के उत्सव में सम्मिलित होने चली गयीं। वहीं पर राजकुमार चुंडा माता और भाई से अपने कुछ सैनिकों के साथ मिला और चित्तौड़ की ओर चल दिया। जब ये लोग चित्तौडग़ढ़ के रामपोल द्वार पर पहुंचे तो उन्हें द्वारपालों ने रोक दिया, परंतु चुंडा ने उनसे कहा कि हम गोगुन्दा गांव से राणा को दुर्ग में पहुंचाने के लिए आये हैं और हमारा निवास स्थान धीरे गांव है।
दुर्ग के द्वार पर हुआ संघर्ष
दुर्गपालों ने द्वार तो खोल दिया, पर उनका संदेह निवारण नही हो सका। तब उन्होंने इन अज्ञात सवारों के लिए तलवारें खींच लीं। युद्घ आरंभ हो गया। अनेकों द्वारपालों को मारकर राजकुमार चुंडा आगे बढ़ा।…और उसके एक साथी ने रणमल्ल का वध कर दिया। रणमल्ल स्वयं चित्तौड़ आकर अपने दौहित्र का राज्य हड़पना चाहता था। पर उसकी योजना को राजकुमार चुंडा ने असफल कर दिया।
इसी महाराणा मोकल को एक अन्य फकीर शेख चिश्ती के आशीर्वाद से अपनी निरंजन नाम की रानी के गर्भ से एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम उन्होंने शेख के नाम पर शेखा रखा। इसी शेखा की संतान ‘शेखावत’ कहलाई ।
महाराणा कुंभा और चित्तौड़
महाराणा मोकल के देहावसान के पश्चात चित्तौड़ का शासक उसका पुत्र कुम्भा बना। उसके विषय में गौरीशंकर हीराचंद लिखते हैं-‘‘महाराणा सांगा के साम्राज्य की नींव डालने वाला भी वही (कुम्भा) था। सांगा के बड़े गौरव का उल्लेख उसी के परमशत्रु बाबर ने अपनी दिनचर्या की पुस्तक ‘तुजुके बाबरी’ में भी किया है। जिस कारण वह बहुत प्रसिद्घ हो गया। परंतु कुम्भा के महत्व का वर्णन बहुधा उसके शिलालेखों में ही रह गया। वे भी किसी अंश में तोडफ़ोड़ डाले गये और जो कुछ बचे उनकी ओर किसी ने दृष्टिपात भी नही किया। इसी से कुम्भा का वास्तविक महत्व लोगों की दृष्टि में न आ सका। वस्तुत: कुम्भा भी सांगा के समान युद्घ विजयी, वीर और अपने राज्य को बढ़ाने वाला हुआ…।’’
परमवीर हिंदू शासक था कुम्भा
राणा कुम्भा वास्तव में एक योद्घा और परमवीर हिंदू शासक थे। उनके विषय में राजस्थान के इतिहास में सभी इतिहासकारों ने उनके गौरवपूर्ण व्यक्तित्व पर बड़ी गौरवमयी भाषा में प्रकाश डाला है। हमारा मानना है कि उन जैसे व्यक्तित्व को राजस्थान के इतिहास से निकालकर राष्ट्रीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिए। जिस समय कुम्भा ने राज्य संभाला उस समय गुजरात और मालवा के सुल्तान अपना साम्राज्य विस्तार कर अपनी शक्ति में भी वृद्घि करते जा रहे थे। कई हिंदू राज्यों पर उनकी गिद्घ दृष्टि लगी हुई थी। यहंा तक कि मोकल द्वारा पराजित नागौर का सुल्तान भी अपनी शक्ति बढ़ाने में लगा था। मोकल ने जिस अजमेर को जीत कर अपने राज्य में मिला लिया था अब वह भी राणा परिवार के हाथों से निकल गया था।
अजमेर को पुन: जीत लिया
राणा कुम्भा ने 1439 ई. में हाथ से निकले अजमेर को पुन: जीत लिया। इसकी पुष्टिराणपुर जैन मंदिर के अभिलेख से होती है। ‘पाठरत्नकोश’ और ‘अमरकाव्य’ से हमें ज्ञात होता है कि महाराणा कुम्भा ने नागौर को उसके पिता ने जीतकर अपने आधीन कर मुस्लिम शक्ति को अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश किया था, उसे पुन: अपने पराक्रम से पराभूत कर राणा कुम्भा ने गौरव का इतिहास लिखा। नागौर का सुल्तान चुपचाप अधीनता में आ गया। राणा की अन्य विजयों का उल्लेख भी हमें राणपुर जैन मंदिर के अभिलेख 1439 ई. से मिलता है।
पिता के हत्यारों से लिया प्रतिशोध
कुम्भा एक दूरदर्शी सूझबूझ वाला, गंभीर शासक था, उसने अपने पिता के हत्यारों से प्रतिशोध तुरंत नही लिया था, अपितु उसने पहले अपने आपको स्थापित किया और अपनी शक्ति में पर्याप्त वृद्घि की। इसके पश्चात उसने आगे कार्य करना उचित समझा। राणा मोकल के हत्यारे चाचा का पुत्र एका और महया पंवार ने मेवाड़ से भागकर माण्डू में शरण ले रखी थी। (वीर विनोद खण्ड-1 पृष्ठ 319) इस प्रकार मालवा का सुल्तान महाराणा मोकल के हत्यारों का आश्रय दाता बन गया था। इसलिए उसके साथ राणा कुम्भा का युद्घ अनिवार्य हो गया था।
‘मेडिवल मालवा’ (पृष्ठ 17) से हमें पता चलता है कि कुम्भा का अपना भाई खेमकरण अपने लिए दिये गये बारी सादरी के परगने से असंतुष्ट था। अत: वह भागकर मालवा के सुल्तान से जा मिला था और मालवा के सुल्तान को मेवाड़ पर आक्रमण कर उसका पराभव कराने की ‘जयचंदी’ योजनाओं को पूर्ण करने में लगा हुआ था।
उधर मालवा का सुल्तान भी महाराणा कुम्भा की बढ़ती शक्ति से चिंतित था और उसे यह भी भली प्रकार ज्ञान था कि हिंदूवीर अपने ‘जयचंदों’ को तथा उसके आश्रयदाता को किस प्रकार दंडित करने की क्षमता रखते हैं। इसलिए मेवाड़ से आये ‘जयचंद’ उसके लिए प्रसन्नता का विषय होकर भी भविष्य की आपदा का संकेत दे रहे थे और उसे स्पष्टत: सावधान कर रहे थे कि उसका भविष्य में महाराणा कुम्भा से युद्घ अनिवार्य है। मुस्लिम स्रोतों से हमें जानकारी मिलती है कि राणा कुम्भा और मालवा के सुल्तान के मध्य 1443 ई. और 1446 ई. में दो संघर्ष हुए। जिनके विषय में मुस्लिम लेखकों ने अधिक प्रकाश नही डाला है। जिससे स्पष्ट है कि युद्घ में मुस्लिम सुल्तान को पराजित होना पड़ा था। ‘वीर विनोद’ से हमें पता चलता है कि राणा कुम्भा ने रणमल्ल के द्वारा मालवा के सुल्तान से कहलवाया कि वह राणा मोकल के हत्यारों को तुरंत उसे सौंप दे। इस पर सुल्तान ने कह दिया कि वह युद्घ के लिए उद्यत है, पर शरणागत को नही देगा। सुल्तान महमूद के इस उत्तर को सुनने के पश्चात युद्घ अवश्यम्भावी हो गया।
राणा ने दिया कूटनीतिक क्षमताओं का परिचय
‘वीर विनोद’ से हमें ज्ञात होता है कि राणा कुम्भा ने बड़ी कूटनीतिक बौद्घिक क्षमताओं का परिचय दिया और उसने मुस्लिम सुल्तान महमूद के विरूद्घ गुजरात के सुल्तान का सहयोग भी प्राप्त कर लिया। इस प्रकार एक इतिहास बनाते हुए राणा कुम्भा ने दो मुस्लिम शक्तियों को न केवल अलग-अलग कर दिया, अपितु उनमें से एक का सहयोग भी प्राप्त कर लिया। जिससे मालवा के सुल्तान महमूद को ज्ञान हो गया कि ‘जयचंदों’को आश्रय देने का अर्थ और परिणाम क्या होता है?
कुम्भलगढ़ प्रशस्ति की साक्षी
कुम्भलगढ़ प्रशस्ति से पता चलता है-‘‘कुम्भकर्ण (कुम्भा) ने सारंगपुर में मुस्लिम स्त्रियों को कैद किया, मुहम्मद (महमूद) या महामद छुड़ाया, उस नगर को जलाया और अगस्त (ऋषि) के समान अपने खडग रूपी चुल्लू से वह मालवा समुद्र को पी गया।’’ ऐसे वीर योद्घा किसी भी जाति के लिए गर्व और गौरव का विषय हुआ करते हैं। यदि कुम्भा जैसे लोग किसी यूरोपीयन देश में होते तो निश्चय ही इतिहास के महापुरूषों में उसकी गिनती होती। ‘वीर विनोद’ से ही हमें ज्ञात होता है कि गुजरात के सुल्तान ने कुम्भा को ‘हिंदू सुरत्राण’ की उपाधि दी थी। जो कि राणपुर जैन मंदिर अभिलेख में उत्कीर्ण है।
राजस्थानी ग्रंथों की साक्षी
राजस्थानी ग्रंथों में तो यहां तक लिखा गया है कि महाराणा कुम्भा ने माण्डू का किला घेरकर वहां के सुल्तान को पकडक़र अपने चित्तौड़ के किले में उसे छह माह तक बंदी बनाकर रखा और उसके पश्चात छोड़ दिया था। इस वर्णन को कई इतिहासकारों ने अतिशयोक्ति पूर्ण कहा है। हमारा मानना है कि अपने देश के इतिहास के अनसुलझे रहस्यों को हमें सुलझाना चाहिए। उन पर अतिशयोक्तिपूर्ण होने या न होने का पर्दा हमने क्यों डाल रखा है? इतिहास का गला घोंटने की अपेक्षा उचित होगा कि उसे अपनी भाषा बोलने दिया जाए। जिस देश का इतिहास अपनी भाषा नही बोल सकता, स्मरण रहे कि उस देश के नेता चाहे जितना कहें कि हमारे यहां भाषण और अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता है, पर वास्तव में उनके विषय में यही कहा जा सकता है कि उनके यहां भाषण अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी एक पाखण्ड ही है।
‘तबकाते अकबरी’ की साक्षी
महमूद (मालवा का सुल्तान) ने 30 नवंबर 1442 को अपनी पराजय का प्रतिशोध लेने के लिए मेवाड़ पर आक्रमण किया। उसने कुम्भलमेर दुर्ग पर धावा बोल दिया। राणा कुम्भा के वकील देवा अथवा बेनीराम ने दुर्ग में रहकर मुस्लिम सेना का सामना किया। जिससे महमूद अपने लक्ष्य में असफल रहा। ‘तबकाते अकबरी’ से हमें पता चलता है कि महमूद ने किले के सामने परिकोटे से परिवेष्टित केलवाड़ा के वाणमाता के भव्य मंदिर पर आक्रमण किया। यहां पर उपस्थित हिंदुओं ने सुल्तान की सेना का एक सप्ताह तक वीरता और साहस के साथ सामना किया। कितने ही हिंदूवीर अपना बलिदान देकर वीरगति को प्राप्त हो गये। पर अंत में महमूद को इस मंदिर को तोडऩे और यहां लूटपाट करने में सफलता मिली। इसके पश्चात महमूद ने चित्तौड़ दुर्ग को नियंत्रण में लेने के लिए उस पर आक्रमण कर दिया।
शिहाब हकीम का मत
समकालीन इतिहास लेखक शिहाब हकीम हमें बताता है कि इस आक्रमण के समय राणा चित्तौड़ में नही था। अत: वह आक्रमण की सूचना पाकर लौटा और युद्घ का संचालन करने लगा। सुल्तान को तभी अपने पिता के मरने का समाचार मिला। अत: वह चित्तौड़ से मंदसौर आया और राव को माण्डू भेजा। वर्षा ऋतु के निकट आने पर जब एक दिन मुस्लिम सेना अपना घेरा उठाकर नीचे उतरती जा रही थी तो राणा कुंभा ने अपने दस हजार वीर योद्घाओं के साथ मुस्लिम सेना पर छापामार आक्रमण कर दिया। इस युद्घ में कितने ही हिंदू मारे गये। अगले दिन महमूद ने भी हिंदू राजपूत सेना के साथ ऐसा ही किया, जिसमें पुन: कितने ही हिंदू योद्घा मारे गये।
इस प्रकार हजारों हिंदू योद्घाओं ने अपना बलिदान देकर चित्तौड़ की रक्षा की। महमूद निराश होकर लौटने के लिए विवश हो गया। युद्घ का अनिर्णीत रह जाना भी जिस पक्ष को सर्वाधिक लाभ हुआ उसकी सफलता ही माना जाना चाहिए।
महमूद को हर बार निराशा हाथ लगी
इसके पश्चात भी महमूद ने चित्तौड़ को अपने अधीन लाने के लिए प्रयास किये परंतु वह हर बार निराश होकर वहां से लौटने के लिए विवश हुआ। कुछ भी हो महाराणा कुम्भा ने साहस और पराक्रम का परिचय देते हुए पर्याप्त जनधन हानि को झेलकर भी शत्रु को उसके लक्ष्य में सफल नही होने दिया। यह क्या कम गौरव की बात है? जिनके बलिदानों में गौरव होता है, उन्हें ‘इतिहास अपना गौरव’ बना ही लेता है।