मोस्ले ने इस अदला-बदली के चक्कर में मारे गये लोगों की संख्या लाखों करोड़ों बतायी है। जबकि सरकारी आंकड़ों में इस संख्या को दस लाख बताया गया था।
साइरिल रैडक्लिफ नामक व्यक्ति को उस समय भारत-पाक सीमा (पंजाब और बंगाल) आयोग का अध्यक्ष बनाया गया था। जबकि उस समय पंजाब सीमा आयोग और बंगाल सीमा आयोग नाम से दो आयोग काम कर रहे थे। तो रैडक्लिफ को किसी एक आयोग का अध्यक्ष बनाया जाना ही उचित होता, परंतु उसे दोनों आयोगों का अध्यक्ष बनाया गया। क्योंकि उसमें एक विशेष योग्यता थी और वह योग्यता उसके सार्वजनिक जीवन में लोकप्रिय और निष्पक्ष होने की नही थी, अपितु केवल यह थी कि लंदन में जिन्ना ने जब अपनी वकालत आरंभ की थी तो उस समय यह व्यक्ति उसका कनिष्ठ परामर्शदाता था। उस समय के समाचार पत्रों में ऐसा समाचार रह-रहकर छपा था, परंतु उस समाचार का खण्डन नही किया गया था। रैडक्लिफ का इंग्लैंड के सार्वजनिक जीवन में कोई विशेष योगदान भी नही था। वैसे ऐसे अधिकांश लोग रहे हैं, जिनका ब्रिटेन में या इंग्लैंड में कोई विशेष सम्मान या स्थान नही था, पर उन्होंने भारत में आकर नाम कमाया। आज भी कितने ही लार्ड, गर्वनर जनरल या वायसराय ऐसे हैं, जिन्हें ब्रिटेन के इतिहास में कोई खोज नही सकता। पर भारत में उनकी ‘चरणवंदना’ अभी तक जारी है। ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं कि 1857 ई. तक जितने अंग्रेज गवर्नर यहां आये वे सभी कंपनी के गवर्नर (व्यवस्थापक या संचालक) थे, भारत के नही। अगले 90 वर्ष (1857 से 1947 तक) ही भारत पर ब्रिटिश ताज का यहां के कुछ क्षेत्रों पर राज रहा। पर इतिहास में हमें झूठ पढ़ाया जाता है कि भारत में अंग्रेजों ने दो सौ वर्ष तक शासन किया। यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि अंग्रेजों ने दिल्ली मराठों से ली थी ना कि मुगलों से। उससे पूर्व 1757 से 1857 तक दिल्ली पर मराठों का निष्कंटक शासन रहा। मुगल सम्राटों की ताकत को अंग्रेजों ने नही मराठों ने निचोड़ा था और मुगल बादशाहों को प्रभावशून्य बनाकर लालकिले तक सीमित कर दिया था। 1857 से 1947 के बीच के 90 वर्षों में भी भारत काा वायसराय ब्रिटेन के मंत्रिमंडल में नियुक्त भारतमंत्री के आधीन रहता था। इसलिए उस का भी कोई बड़ा योगदान ब्रिटेन के इतिहास में नही माना जाता। क्योंकि वह अपनी सरकार का एक नौकर होता था, पर यहां आकर वह एक स्वामी बन जाता था। हमने हर वायसराय को अपना स्वामी (जनगणमन अधिनायक) मानकर उसके गीत गाये हैं, पर ब्रिटेन ने अपने नौकर की सेवाएं लीं और उसकी सेवाओं के बदले उसे पेंशन देकर घर भेज दिया। इससे आगे कुछ नही।
ऐसा ही एक मामूली सा नौकर रैडक्लिफ था। पर उसे जिन्ना चाहता था। बस यही उसकी योग्यता थी। जिसके कारण उसे भारत पाक सीमा आयोग का अध्यक्ष बना दिया गया था। उसकी नियुक्ति पर कांग्रेस ने कोई प्रतिक्रिया नही दी और ना ही किसी प्रकार का विरोध व्यक्त किया। कांग्रेस की यह चुप्पी देश के लिए घातक बनी। इस संबंध में पंजाब के प्रसिद्घ शिक्षाशास्त्री और लेखक प्रो. ए.एन. बाली ने बड़ा सुंदर और स्पष्ट लिखा है-
‘‘पहले तो कांग्रेसी नेताओं ने भारी भूल यह की कि उन्होंने बंगाल और पंजाब के लिए एक ही सीमा आयोग की बात को मान लिया। दूसरे तीन सदस्यों वाले आयोग के स्थान पर एक सदस्य वाले आयोग को स्वीकार कर लिया। तीसरे उसने सर साइरिल रैडक्लिफ नामक एक नितांत संदिग्ध व्यक्ति को मान्यता प्रदान की। रैडक्लिफ की न तो विधि के क्षेत्र में धाक थी और ना ही इंग्लैंड के सार्वजनिक जीवन में उसका कोई विशेष योगदान था। जब उनके नाम का प्रस्ताव किया गया तो पंडित नेहरू ने उनके पूर्व चरित्र के विषय में कोई छानबीन नही की। जब जिन्ना ने झटपट उसके नाम को स्वीकार कर लिया तो तभी पंडित नेहरू के मन में इस बात से संदेह उत्पन्न हो जाना चाहिए था। किंतु शायद उनकी दृष्टि में यह इतना साधारण सा विषय था, जिस पर गंभीरता से विचार करने की कोई आवश्यकता नही थी। दिल्ली के एक दैनिक पत्र में कहा गया था कि वर्षों पूर्व जब जिन्ना ने लंदन में अपनी वकालत आरंभ की थी तो रैडक्लिफ उनके कनिष्ठ परामर्शदाता थे। इस समाचार पत्र का कभी खण्डन नही किया गया। चौथी भूल यह थी कि मध्यस्थल के पंचनिर्णय के विरूद्घ ब्रिटिश सरकार से पुनरागृह करने के अधिकार को समाप्त किये जाने की बात मान ली गयी थी।’’ रैडक्लिफ की तुच्छ मानसिकता के कारण उस समय करोड़ों लोगों को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा था। उसने अंतिम क्षणों तक सीमाओं का रहस्य खोलकर नही दिया था। लोग सीमाओं की अस्पष्टता के कारण अपने-अपने घरों में बैठे रहे। लोगों को कई स्थानों के लिए तो पक्का विश्वास था कि वह तो पाकिस्तान में जाने वाला है ही नही। लाहौर ऐसे स्थानों में से एक था। इसकी केवल पच्चीस प्रतिशत जनसंख्या मुस्लिम थी। इसलिए महरचंद महाजन जैसे वरिष्ठ नेता को यह विश्वास नही था कि लाहौर पाकिस्तान में जा रहा है। इसलिए वह वहीं जमे रहे। उनके साथ सारा हिंदू समाज वहीं जमा रहा। महाजन पंजाब सीमा आयोग के सदस्य भी थे, उनके साथ ही एक अन्य सदस्य तेज सिंह थे। वह भी लाहौर से हटे नही। इसका कारण यह था कि रैडक्लिफ इन जैसे सभी सदस्यों की बात को सुनता तो था, पर सुनने पर ऐसी रहस्यमयी चुप्पी साध लेता था कि इन सदस्यों को तो लगता था कि तुम्हारी बात मान ली गयी है पर वास्तव में बात मानी नही जाती थी। लोगों को 17 अगस्त 1947 को ज्ञान हुआ कि लाहौर पाकिस्तान में जा रहा है-तब क्या था? लोगों को केवल अपनी मौत ही पल्ले पडऩी थी और वही हुआ भी।
‘‘यह जब्र भी देखा है तवारीख की नजरों ने,
लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पाई।’’
यदि नेहरू और कांग्रेस रैडक्लिफ की नियुक्ति पर विरोध करते तो समय रहते कोई अच्छा परिणाम मिल सकता था और करोड़ों लोगों को मरने से बचाया जा सकता था। पर जब नायक आपराधिक तटस्थता अपना ले तो नायक और ‘नालायक’ में अंतर ही क्या रह जाता है?