वैसे तो यजुर्वेद का प्रत्येक मंत्र ही अपने आप में विशिष्टता लिए हुए है। परंतु मेरा मानना है कि यजुर्वेद के 22 वें अध्याय का 33 वां मंत्र पूरे यजुर्वेद का निचोड़ है । यदि जीवन में इस मंत्र की भावना को अंगीकार कर लिया जाए तो निश्चित ही आशातीत सफलता प्राप्त होती है । यह मंत्र इस प्रकार है :
आयु॑र्य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒म स्वाहा॑ प्रा॒णो य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒म स्वाहा॑ऽपा॒नो य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒म स्वाहा॑ व्या॒नो य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒म स्वाहो॑दा॒नो य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒म स्वाहा॒ समा॒नो य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒म स्वाहा॒ चक्षु॑र्य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒म स्वाहा॒ श्रोत्रं॑ य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒म स्वाहा॒ वाग्य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒म स्वाहा॒ मनो॑ य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒म स्वाहा॒ऽऽत्मा य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒म स्वाहा॑ ब्र॒ह्मा य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒म स्वाहा॒ ज्योति॑र्य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒म स्वाहा॒ स्वर्य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒म स्वाहा॑ पृ॒ष्ठं य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒म स्वाहा॑ य॒ज्ञो य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒म स्वाहा॑॥ यजु0 22/३३॥
महर्षि दयानंद जी महाराज इस मंत्र की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि
“हे मनुष्यो! तुम को ऐसी इच्छा करनी चाहिये कि हमारी (आयुः) आयु कि जिससे हम जीते हैं, वह (स्वाहा) अच्छी क्रिया से (यज्ञेन) परमेश्वर और विद्वानों के सत्कार से मिले हुए कर्म, विद्या देने आदि के साथ (कल्पताम्) समर्पित हो (प्राणः) जीवाने का मूल मुख्य कारण पवन (स्वाहा) अच्छी क्रिया और (यज्ञेन) योगाभ्यास आदि के साथ (कल्पताम्) समर्पित हो (अपानः) जिससे दुःख को दूर करता है, वह पवन (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (यज्ञेन) श्रेष्ठ काम के साथ (कल्पताम्) समर्पित हो (व्यानः) सब सन्धियों में व्याप्त अर्थात् शरीर को चलाने कर्म कराने आदि का जो निमित्त है, वह पवन (स्वाहा) अच्छी क्रिया से (यज्ञेन) उत्तम काम के साथ (कल्पताम्) समर्पित हो (उदानः) जिससे बली होता है, वह पवन (स्वाहा) अच्छी क्रिया से (यज्ञेन) उत्तम कर्म के साथ (कल्पताम्) समर्पित हो (समानः) जिससे अङ्ग-अङ्ग में अन्न पहुंचाया जाता है, वह पवन (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (यज्ञेन) यज्ञ के साथ (कल्पताम्) समर्पित हो (चक्षुः) नेत्र (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (यज्ञेन) सत्कर्म के साथ (कल्पताम्) समर्पित हो (श्रोत्रम्) कान आदि इन्द्रियाँ, जो कि पदार्थों का ज्ञान कराती हैं (स्वाहा) अच्छी क्रिया से (यज्ञेन) सत्कर्म के साथ (कल्पताम्) समर्पित हों (वाक्) वाणी आदि कर्मेन्द्रियाँ (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (यज्ञेन) अच्छे काम के साथ (कल्पताम्) समर्पित हों (मनः) मन अर्थात् अन्तःकरण (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (यज्ञेन) सत्कर्म के साथ (कल्पताम्) समर्पित हो (आत्मा) जीव (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (यज्ञेन) सत्कर्म के साथ (कल्पताम्) समर्पित हो (ब्रह्मा) चार वेदों का जानने वाला (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (यज्ञेन) यज्ञादि सत्कर्म के साथ (कल्पताम्) समर्थ हो (ज्योतिः) ज्ञान का प्रकाश (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (यज्ञेन) यज्ञ के साथ (कल्पताम्) समर्पित हो (स्वः) सुख (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (यज्ञेन) यज्ञ के साथ (कल्पताम्) समर्पित हो (पृष्ठम्) पूछना वा जो बचा हुआ पदार्थ हो वह (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (यज्ञेन) यज्ञ के साथ (कल्पताम्) समर्पित हो (यज्ञः) यज्ञ अर्थात् व्यापक परमात्मा (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (यज्ञेन) अपने साथ (कल्पताम्) समर्पित हो॥३३॥”
भावार्थ – मनुष्यों को चाहिये कि जितना अपना जीवन शरीर, प्राण, अन्तःकरण, दशों इन्द्रियाँ और सब से उत्तम सामग्री हो, उसको यज्ञ के लिये समर्पित करें, जिससे पापरहित कृतकृत्य होके परमात्मा को प्राप्त होकर इस जन्म और द्वितीय जन्म में सुख को प्राप्त होवें॥३३॥
स्वामी वेदानंद तीर्थ जी स्वाध्याय संदेशों में इस मंत्र की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि सबसे पहले यहां आयु को यज्ञ से सफल करने की कामना की गई है अर्थात सारा का सारा जीवन यज्ञमय हो। अनंतर जीवन के साधन भूत पांचों प्राणों को यज्ञ से समर्थ करने की प्रार्थना की गई है। भीतर से बाहर आने वाले प्राणवायु को प्राण, बाहर से भीतर आने वाले प्राणवायु को अपान, जो प्राणवायु नाभिस्थ होकर सर्व शरीर में रस पहुंचाता है उसे समान, जिससे कंठस्थ अन्नपान खींचा जाता है और बल पराक्रम होता है, वह प्राणवायु उदान, जिससे समस्त शरीर में जीव चेष्टा आदि कर्म करता है वह प्राणवायु व्यान है। यह पांचों प्राण मिलकर प्राणमयकोश बनाते हैं अर्थात प्राणमयकोश भी यज्ञ से उचित संगतिकरण से, प्राणायाम से समर्थ हो। इसके बाद चक्षु और श्रोत्र इंद्रियों की यज्ञ से सफलता मांगी है।
….. अनंतर वाणी की समर्थता, बलवत्ता की अभिलाषा की गई है। यदि अग्नि यज्ञ आदि क्रियाओं में नियंत्रित रहे तो महाकल्याण हो सकता है अन्यथा सब कुछ भस्म हो जाता है। वाणी की देवपूजा हितोपदेश में सब चलता है। मन का यज्ञ है ज्ञानेंद्रियों तथा कर्म इंद्रियों को आत्मा के कार्य में नियुक्त रखकर स्वयं भी आत्मा की कार्य सिद्धि करना। स्वार्थ से रहित होना आयु प्राण आदि को परम गुरु परमेश्वर के अर्पण करना। आत्मा का यज्ञ है आत्मा का ज्ञान संपन्न होकर अपने ज्ञान का प्रसार करना। ब्रह्म ज्ञान की सफलता है आध्यात्मिक मार्ग पर चलते चलते जो ज्योति प्राप्त होती है उससे आगे चलते जाना उस ज्योति की सफलता है। उस ज्योति मार्ग के आक्रमण से, उसकी ओर कदम रखने से वह आनंद प्राप्त होता है। आनंद प्राप्ति के साथ दूसरों को आनंद का उपयोग करवाना ही स्व: की यज्ञ द्वारा सफलता है। आनंद के आधार की भी सफलता यज्ञ में है।
यज्ञ में स्वाहा करके स्वार्थ त्याग की घोषणा करनी होती है।
इस प्रकार पता चलता है कि जब जीवन प्राणायाम, परोपकार, इंद्रिय निग्रह, दम ,आत्मज्ञान, परमात्मबोध आदि से परिपूर्ण हो जाता है तो वह अत्यंत पवित्र बन जाता है। इसीलिए यजुर्वेद के इस मंत्र को इस वेद का निचोड़ कहा जाना उचित है।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।