प्रांतीय स्तर पर भी निरंतर जारी रहा स्वतंत्रता संग्राम

freedom fightरामधारी सिंह दिनकर कहते हैं…..

राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में लिखा है-‘‘लड़ाई मारकाट के दृश्य तो हिंदुओं ने बहुत देखे थे। परंतु उन्हें सपने में भी उम्मीद न थी कि संसार में एकाध जाति ऐसी हो सकती है, जो मूर्तियों को तोडऩे और मंदिरों को भ्रष्ट करने में सुख माने। जब मुस्लिम आक्रमण के समय मंदिरों व मूर्तियों पर विपत्ति आयी, तो हिंदुओं का हृदय फट गया और वे इस्लाम से तभी से भडक़े, सो आज तक भडक़े हुए हैं।’’

यदुनाथ सरकार का मत

हिंदुओं ने मुस्लिमों से दूरी क्यों बनाई? इसे तो राष्ट्रकवि दिनकर की उपरोक्त टिप्पणी स्पष्ट करती है और रूढि़वादी मुस्लिमों ने कभी इस देश को अपना क्यों नही माना? इसे श्री यदुनाथ सरकार अपनी पुस्तक ‘ए शॉट हिस्ट्री ऑफ औरंगजेब’ के पृष्ठ संख्या 393 पर इस प्रकार बताते हैं-‘‘रूढि़वादी मुसलमान ने सदैव यही अनुभव किया कि वह भारत में रहता अवश्य है, परंतु भारत का अविभाज्य अंग नही है। उसे अपने हृदय में भारतीय परंपराओं, भाषा और सांस्कृतिक वातावरण को अपनाने की बजाए उन्हें फारस और अरब से आयात करना अच्छा लगता है। भारतीय मुसलमान बौद्घिक रूप से विदेशी था। वह भारतीय पर्यावरण के अनुरूप हृदय को नही बना पाया।’’

जिस समय का हम वर्णन कर रहे हैं, उस समय तो इन दोनों संप्रदायों के लोगों के परस्पर संघर्ष के निश्चित रूप से ये ही कारण थे। सैय्यद वंश तक इन कारणों में कोई परिवर्तन नही आया था। हिंदू यदि विनाश झेलकर भी संघर्ष करने का कीर्तिमान स्थापित कर उसे अपना राष्ट्रधर्म मान रहा था तो मुस्लिम शासक वर्ग विनाश के नये -नये कीर्तिमान स्थापित कर रहा था।

ईडर में पिता-पुत्र ने दी चुनौती

ईडर के राज परिवार और वहां के वीर हिंदुओं ने भी अपनी स्वतंत्रता के लिए भारी संघर्ष किया था। विंध्य और अरावली पहाडिय़ों को मिलाने वाली पहाड़ी के ऊपर ईडर का दुर्ग स्थापित था। यहां का शासक राजा रणमल था। फरीदी के अनुसार गुजरात के सुल्तान अहमद शाह ने यहां के शासक राजा रणमल के पुत्र पूंजा के विरूद्घ दण्डात्मक कार्यवाही करते हुए 1425-26 ई. में इस दुर्ग पर आक्रमण किया। क्योंकि पूंजा मालवा शासक होशंगशाह का समर्थक था और गुजरात के विरूद्घ विद्रोही बन गया था। 1425-26 ई. की सैन्य कार्यवाही में सुल्तान अहमदशाह स्वयं सम्मिलित नही था। परंतु जब पूंजा ने इस सैन्य दल को अपने बाहुबल और पराक्रम से अपने उद्देश्य में सफल न होने दिया तो सुल्तान स्वयं भी एक और सेना लेकर ईडर की ओर चल दिया। पूंजा ने इस सेना का सामना भी बड़ी वीरता से किया और छापामार युद्घ के द्वारा सुल्तान की सेना को तंग करने लगा। सुल्तान अहमदशाह ने युक्ति से काम लिया और 1426-27 ई. में ईडर से 10 कोस की दूरी पर एक दुर्ग घातमती नदी के किनारे बनाकर वहां से आक्रमण करना आरंभ किया। फलस्वरूप पूंजा ने पराजय स्वीकार कर क्षमायाचना की। परंतु सुल्तान ने वह क्षमा याचना नही सुनी। तब पूंजा विलासनगर की पहाडिय़ों की ओर चला गया। पूंजा ने अपना छापामार युद्घ जारी रखा।

पूंजा का आत्म बलिदान

फरीदी से हमें जानकारी मिलती है कि एक दिन मुस्लिम सेना जब अपने घोड़ों के लिए चारे का प्रबंध करने हेतु जंगलों में गयी हुई थी तो पूंजा ने उन पर अचानक आक्रमण किया और उसके पश्चात वहां से पहाडिय़ों की ओर भागने लगा। परंतु उसका घोड़ा एक गहरी खाई में गिर पड़ा और भारत माता की स्वतंत्रता की रक्षार्थ यवनों से कड़ा संघर्ष करने वाला यह महान योद्घा पूंजा परलोकवासी हो गया।

अगले दिन कहा जाता है कि एक लकड़हारा उधर आया और मृत पड़े पंूजा का सिर काटकर उसने वह सुल्तान को जा दिया।

पुत्र हरराय ने भी जारी रखी पिता की परंपरा

पूंजा के पश्चात उसका लडक़ा हरराय ईडर का शासक बना। वह भी अपने पिता की भांति वीरता और साहस से भरा हुआ था। परंतु जिस समय वह अपने राज्य का राजा बना, उस समय की परिस्थितियां बड़ी ही भयानक थीं, पिता का दु:खद अंत हरराय के लिए असहनीय था और उसी समय उसका राज्य भी शत्रु से घिरा हुआ था। इसलिए उसने सुल्तान को एक भारी राशि (तीन लाख चांदी का टंका) प्रतिवर्ष देने की बात कहकर संधि कर ली। सुल्तान बड़ी प्रसन्नता से अपनी राजधानी लौट गया।

वीर हरराय का उद्देश्य भी सुल्तान को एक बार किसी प्रकार लौटा देना ही था। वह शक्ति संचय करना चाहता था, इसलिए जैसे ही उसे लगा कि अब शत्रु का सामना करने में अधिक कठिनाई नही आने वाली तो उसने तुरंत विद्रोह की ध्वजा पुन: उठा ली। उसने सुल्तान के लोगों से किसी भी प्रकार का कर देने से स्पष्ट मना कर दिया। हरराय की इस देशभक्ति को दंडित करने के लिए सुल्तान ने 1429 ई. में पुन: ईडर पर आक्रमण कर दिया। हरराय ने सुल्तान के आने से पहले दुर्ग छोड़ दिया और पहाड़ों की ओर चला गया।

सुल्तान वहां मारकाट एवं लूटपाट कर अपनी राजधानी चला गया। तब हरराय ने पुन: अपनी राजधानी में आकर सत्ता संभाल ली, और विद्रोह का झण्डा ऊंचा कर दिया। तब 1445-46 ई. में पुन: यहां गुजरात के तत्कालीन सुल्तान मुहम्मद शाह ने आक्रमण किया। जिसे अपनी पुत्री देकर हरराय ने संधि कर ली।

पुत्री देना अनुचित था?

हरराय का यह कार्य कई लोगों ने उसके बौद्घिक चातुर्य का प्रतीक कहकर सराहा है। परंतु वास्तव में यह कार्य सराहनीय नही था। अपनी पुत्री को देने का अभिप्राय था कि अपना सम्मान बेच देना। अत: जिस शासक ने अपना सम्मान ही बेच दिया उसे तो स्वाभिमान और स्वतंत्रता प्रेमी कहना भी उचित नही जाना पड़ता।

हम हरराय को अपने पिता की भांति वीर मान सकते हैं, परंतु स्वाभिमानी नही मान सकते। वैसे भी भारत को अयोध्यासिंह उपाध्याय जी के शब्दों में ऐसे नेता की आवश्यकता रही है :-

जिसके हों ऊंचे विचार पक्के मनसूबे।
जो होवे गंभीर भीड़ के पड़े न ऊबे।।
हमें चाहिए आत्म त्याग रत ऐसा नेता।
रहे जाति हित में जिसके रोयें तक डूबे।।

हरराय ऐसा नेता तो नही था, परंतु जितनी देर उसने सुल्तान को चुनौती दी, उस काल को यूं ही भुलाया भी नही जा सकता। इसलिए उसके इस काल का सम्मान करना भी आवश्यक है। क्योंकि मैथिली शरण गुप्त ने कहा है-

थे कर्मवीर कि मृत्यु का भी ध्यान कुछ धरते न थे,
थे युद्घवीर कि काल से भी हम कभी डरते न थे।
थे दानवीर कि देह का भी लोभ हम करते न थे।
थे धर्मवीर कि प्राण के भी मोह पर मरते न थे।।
पर हर राय की स्थिति कुछ ऐसी हो गयी थी-
जीवित वह जो तोड़ चुका हो भय की मकड़ी के जाले को।
निगल उगल कर मौत खा रही मरने से डरने वाले को।।

गागरौन का हिंदू वीर अचलदास

गागरौन दुर्ग का अधिपति राजा उन दिनों अचलदास था। यह किला अजेय था, जिससे यहां का शासक अचलदास कुछ प्रमादी हुआ और किला बिना मरम्मत के क्षतिग्र्रस्त होने लगा, तब ‘मआसिरे महमूद शाही’ के अनुसार कहा जाता है कि ऐसी दुव्र्यवस्था का लाभ उठाकर मालवा के मुस्लिम शासक होशंगशाह ने यहां आक्रमण कर दिया। यह घटना 1423 ई. की है। ‘अचलदास खींचीं दी वचनिका’ के अनुसार मालवा की मुस्लिम सेना में कुछ हिंदू भी थे। अचलदास ने दस दिनों तक मुस्लिम सेना का वीरता पूर्वक सामना किया। उसने मेवाड़ के तत्कालीन शासक मोकल के पास अपना दूत भेजकर उससे सहायता की अपील की। परंतु दुर्भाग्यवश महाराणा मोकल ने उस वीर को किसी भी प्रकार की सहायता नही दी।

महाराणा मोकल का यह कृत्य निंदनीय था

जब लक्ष्मण को शक्तिबाण लगा तो वह मूच्र्छित होकर गिर  पड़े। तब वैद्य सुषेन को बुलाया गया। उसने लक्ष्मण के लिए संजीवनी बूटी लाने हेतु हनुमानजी को पर्वतों पर भेजा। राम हनुमान की प्रतीक्षा कर रहे हैं, और लक्ष्मण के सिर को अपनी गोद में रखकर विलाप कर रहे हैं। तब उनके श्री मुख से तुलसीदास जी ने जो अमृत वचन कहलाये हैं, वह सहोदर के लिए ही नही समय के अनुसार जातीय भाईयों के प्रति भी वैसी ही भावना रखने के लिए हमें प्रेरित करते जान पड़ते हैं। राम कहते हैं-

जो जनतेऊं बन बंधु बिछोहू।
पिता बचन मनतेऊं नही ओहू।।
सुत वित नारि भवन परिवारा।
होहि जाहिं जग बारहिं बारा।।
अस विचारि जिय जागहु ताता।
मिलइ न जगत सहोदर भ्राता।।
तथा  पंख बिनु खग अति दीना।
मनि बिनु फनि करिवर कर हीना।।
असमम जिवन बंधु बिन तोही।
जो जड़ दैव जियावै मोहि।।
जैहऊं अवध कौन मुंह लाई।
नारि हेतु प्रिय भाई गंवाई।।

अर्थात हे भाई! यदि मैं जानता कि वन में तुमसे बिछोह हो जाएगा तो मैं पिता के वचन मानकर वन न आया होता। पुत्र, धन, स्त्री घर परिवार संसार में सब बार-बार होते हैं। परंतु संसार में सहोदर भाई दूसरी बार नही मिलता। अत: हे तात! ऐसा विचार कर तुम फिर होश में आओ। जैसे पंख के बिना पक्षी  अति दीन हो जाता है, जैसे मणि के बिना सर्प और सूंड के बिना हाथी बहुत दु:खी हो जाता है, उसी प्रकार यदि जड़ भाग्य मुझे जीवित रखेगा तो तुम्हारे बिना मेरा जीवन अत्यंत शोकपूर्ण हो जाएगा। स्त्री के लिए अपने प्रियभाई को खोकर मैं कौन सा मुंह लेकर अयोध्या वापस जाऊंगा।’’

महाराणा मोकल ने नही किया रामाज्ञा का पालन

आज जब महाराणा मोकल (जो कि सूर्यवंशी राम के ही वंशज थे) के पास अचलदास का दूत विदेशी धर्मी सुल्तान के विरूद्घ सहायता मांगने गया था, तो उन्हें भाई के दर्द को अपना दर्द मानना समझना चाहिए था। इसलिए कई इतिहासकारों ने महाराणा के इस कृत्य की कड़ी आलोचना उचित ही की है। क्योंकि जब अचलदास को बिना किसी की सहायता के लड़ते-लड़ते दस बारह दिन व्यतीत हो गये, और उसे कहीं से भी सहायता की कोई संभावना नही रही तो उस वीर ने आत्मोत्सर्ग का मार्ग अपनाना ही उस समय अपना धर्म माना। इसलिए अचलदास ने जौहर का आयोजन किया और शत्रु के सामने सिर झुकाने या शत्रु के हाथों सर कटाने की अपेक्षा इसी मार्ग को अपने आत्मोत्सर्ग के लिए उचित मान लिया। अंत में यह वीर योद्घा वीरगति को प्राप्त हो गया और उसका दुर्ग भी मालवा के सुल्तान के अधीन हो गया।

पुत्र पाल्हण ने दुर्ग पुन: छीन लिया

1423 ई से 1438 ई तक अचलदास का दुर्ग विभिन्न मुस्लिम सुल्तानों के अधीन रहा।  परंतु उसके पुत्र पाल्हण के हृदय में दुर्ग को वापिस लेने की आग जल रही थी। इसलिए वह इस दुर्ग को  वापिस लेने के लिए संघर्ष करता रहा। 1438 ई. में अचलदास के पुत्र पाल्हण ने इस दुर्ग को पुन: अपने अधिकार में ले लिया। ‘मआसिरे महमूद शाही’ का लेखक शिहाब हकीम हमें बताता है कि पाल्हण ने मंत्र-तंत्र और धोखे से दुर्ग को (मुस्लिम सुल्तान) दिलशाद के नियंत्रण से छुड़ाकर अपने अधिकार में कर लिया। यह मंत्र तंत्र की बात तो झूठी है, पर इतना हो सकता है कि राजा पाल्हण ने दुर्ग को अपने अधिकार में लाने के लिए छली शत्रु के साथ कोई छल करके ही उसे प्राप्त किया हो।

दो बार राणा कुम्भा ने दिया सहयोग

मेवाड़ के महाराणा मोकल ने सहायता न देकर अचल दास के साथ जो अन्याय किया था उस अन्याय से जन्मे ‘पापबोध’ को इस महाराणा वंश के यशस्वी शासक महाराणा कुम्भा ने समझा और उसने गागरौन को पुन: दिलाने में पाल्हण की सहायता की। राणपुर के जैन मंदिर में 1439 ई. के लगे शिलालेख से हमें ज्ञात होता है कि मेवाड़ के महाराणा कुम्भा ने गागरौन का दुर्ग जीता था। यह भारत के लिए सौभाग्य की ही बात थी कि एक गौरवपूर्ण राजवंश के द्वारा अपनी भूल सुधार कर ली गयी और उसने भारत के गौरवशाली इतिहास में एक अध्याय जोडऩे का प्रशंसनीय कार्य किया।

सात दिन तक चला संघर्ष

1443 ई. मुें सुल्तान महमूद खलजी ने मालवा से चलकर पुन: गागरौन पर आक्रमण कर दिया। तब तक पाल्हण ने संभावित आक्रमण के लिए भारी मात्रा में रसदादि किले में एकत्र कर ली थी। अचलदास ने पुन: कुंभा से सहायता की अपील की। कुम्भा ने अपनी सेना पाल्हण की रक्षार्थ भेज दी। एक सप्ताह तक घोर युद्घ हुआ। बड़ी संख्या में सैनिक मारे गये। सातवें दिन पाल्हण का मंत्री धीरा युद्घ में मारा गया। जिससे पाल्हण भयभीत हो गया और वह रण छोड़ भाग निकला। जिसे मार्ग में कुछ भीलों ने मार दिया।

बिना सेनापति के भी लड़ती रही हिंदू सेना

धीरा और पाल्हण के बिना भी हिंदू सेना वीरता पूर्वक लड़ती रही। अंत में हिंदू वीरों ने पुन: आत्मोत्सर्ग का मार्ग अपनाया और जौहर कर मां भारती के श्री चरणों में अपना शीश समर्पित कर बलिदान हो गये। सुल्तान का दुर्ग पर अधिकार हो गया और खींची राजवंश का सदा के लिए अंत हो गया। इससे पूर्व इसी प्रकार जालौर के हिंदू राज्य का अंत करने में भी मुस्लिम शासकों को सफलता मिल चुकी थी। जिसका उल्लेख हमने यहां नही किया क्योंकि जालौर के किसी शासक ने सैय्यद वंश के काल में ऐसा उल्लेखनीय कार्य नही किया, जिससे भारत के तत्कालीन स्वतंत्रता आंदोलन को बल मिलता प्रतीत हो।

बूंदी करता रहा स्वतंत्रता का उपभोग

‘तबकाते अकबरी’ के अनुसार बूंदी के हाड़ा चौहान शासकों के इस राज्य को विनष्ट करने हेतु मेवाड़ और मालवा के शासक सक्रिय रहे। हाड़ा चौहानों की वीरता का उल्लेख पूर्व पृष्ठों पर भी किया गया है। होशंगशाह की मृत्यु के उपरांत इन वीर हिंदू चौहानों ने अपने साम्राज्य का विस्तार करने का उपयुक्त अवसर समझा। इसलिए मालवा के कुछ क्षेत्र को अपने नियंत्रण में लेने के लिए 1435 ई. में इन लोगों ने विद्रोह कर दिया। अपने लक्ष्य में सफल होते हाड़ा चौहानों को रोकने के लिए होशंगशाह के उत्तराधिकारी सुल्तान मुहम्मद शाह के लिए अनिवार्य हो गया था। अत: सुल्तान ने अपने विश्वसनीय खानजहां के नेतृत्व में एक सेना हाड़ा चौहानों को परास्त करने हेतु भेजी। 8 अक्टूबर 1435 को दोनों सेनाओं में युद्घ हुआ।

राव बैरीलाल का सफल युद्घ संचालन

उस समय हाड़ा चौहानों का शासक राव बैरीलाल था। राव बैरीलाल ने साहस और वीरता का प्रदर्शन करते हुए युद्घ संचालन किया। दोनों सेनाओं में निर्णायक युद्घ हुआ  और जो खानेजहां चौहानों की स्वतंत्रता का अपहरण करने के लिए आगे बढ़ा था उसे अपनी स्वतंत्रता पर संकट मंडराता दिखने लगा। अत: वह परास्त होकर लौट गया। इस प्रकार बूंदी की स्वतंत्रता और वैभव की सुरक्षा करने में राव  बैरीलाल सफल रहा। इसके पश्चात 1443 ई. में सुल्तान ने पुन: अपने पुत्र गयासुद्दीन के नेतृत्व में हाड़ौती अभियान पर भेजा।

इस अभियान की सूचना हमें शिहाब हकीम से मिलती है। परंतु इस अभियान का परिणाम क्या निकला इस पर शिहाब साहब मौन हैं। जिसका अर्थ है कि परिणाम सुल्तान की सेना के प्रतिकूल रहा। ‘तबकाते’ व ‘तारीखे फरिश्ता’ से हमें पता चलता है कि मालवा के सुल्तान महमूद ने 1446 ई. में कोटा के राजा से एक लाख पच्चीस हजार टका प्राप्त किये। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि यह धनराशि हाड़ौती के राव बैरीलाल ने सुल्तान महमूद को हाड़ौती अभियान के समय दी थी। कुछ भी हो परंतु एक बात स्पष्ट है कि हाड़ौती बूंदी के चौहान इस काल में अपने बौद्घिक चातुर्य से या भुजबल से अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने में तो सफल हो ही गये थे।

तब अल्पसंख्यकों की दया के पात्र थे बहुसंख्यक हिंदू

भारतीय इतिहास की यह विचित्र घटना है कि यहां मुस्लिम अल्पसंख्यकों ने अपने शासनकाल में बहुसंख्यकों को अपनी दया का पात्र बनाकर रख दिया था। यद्यपि इसी हीनभावना से या हीन अवस्था से बचने के लिए ही हिंदुओं ने अपना स्वतंत्रता आंदोलन निरंतर जारी रखा। एक इतिहासकार ने भारतीयों की दयनीय अवस्था का वर्णन करते हुए लिखा है कि उस काल में हिंदुओं को ऐसी श्रेणी में डाल दिया गया था जिन्हें सार्वजनिक रूप से अपने धार्मिक रीति रिवाज का पालन करने, वैध रूप से धर्म प्रचार करने, नये मंदिरों का निर्माण करने या बनाने की अनुमति नही थी। वास्तव में उन्हें राज्य का नागरिक नही समझा जाता था। इस प्रकार हिंदुओं के साथ स्वदेश में भी हीन और अछत जैसा व्यवहार किया जाता था।

(संदर्भ : ‘मध्यकालीन भारतीय संस्कृति’- पृष्ठ 5, लेखक: डा. आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव)

विश्व परंपरा कुछ और कहती है

विश्व में सामान्यत: (हिंदुओं को छोडक़र) ऐसा देखा जाता है कि बहुसंख्यक वर्ग अल्पसंख्यक वर्ग पर अत्याचार करता है या उन्हें अपने शोषण का शिकार बनाता है। परंतु यहां इस वैश्विक सिद्घांत के विपरीत धारा प्रवाहित हो रही थी। यहां संघर्ष था अल्पसंख्यक वर्ग द्वारा बहुसंख्यक वर्ग पर शासन करने और उन्हें अपने शोषण और अत्याचारों से सदा शासित रखने का। इस मानसिकता का अंतिम लक्ष्य  बहुसंख्यक को मिटाते-मिटाते पूर्णत: नष्ट कर देना था। उस समय के समाज की यह एक विसंगति भी थी और एक सामाजिक व राजनीतिक  चुनौती भी थी। इस विसंगति को स्थायी बनाये रखने के लिए मुस्लिम शासकों ने भारत में जातिवाद और क्षेत्रवाद की भावनाओं को उकसाने का कार्य किया। हिंदुओं का क्रूरता से सामूहिक नरसंहार किया जाता था।

डा. आशीर्वादीलाल श्री वास्तव अपनी पुस्तक ‘द सल्तनत ऑफ दिल्ली’ के पृष्ठ 378 पर लिखते हैं-‘‘हमारे देश के इतिहास में किसी भी युग में आरंभिक तथा परवर्ती ब्रिटिश युग में भी मानव जीवन का नृशंसता पूर्वक नाश नही किया गया, जितना कि तुर्क, अफगान शासन के इन 250 वर्षों में हुआ।’’

डा. श्रीवास्तव हमें बताते हैं कि भारतीय मुसलमानों की स्थिति भी उस समय शोचनीय थी। उन्हें जातिविभेद का शिकार बनना पड़ता था। उनके प्रति शासन की या मुस्लिम समाज की समानता मात्र इतनी थी कि उन्हें शुक्रवार के दिन की नमाज में एक साथ खड़ा कर लिया जाता था।  अन्यथा किसी भी महत्वपूर्ण पद पर उनकी नियुक्ति नही थी। इस प्रकार उन्हें धर्मांतरण के पश्चात भी जन्नत नही मिली। अत: स्वाभाविक है कि वे कई बार अपने हिंदू वंशजों के साथ विद्रोह में सम्मिलित हो जाते थे। आज भी बहुत से मुसलमान ऐसे हैं जो इस तथ्य को समझते हैं कि उनके पूर्वज हिंदू थे, इसलिए वे भारतीयता से प्रेम करते हैं, पर जो पूर्वजों को भूल गये हैं, उनसे ऐसी प्रत्याशा नही की जा सकती। हमारा मानना है कि भारत के 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संघर्ष में जहां किसी मुस्लिम ने भारतीयों का साथ दिया वहां उसका भी अभिनंदन अपेक्षित है।

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