उलझा दिया था बहलोल लोदी को चुनौतियों के जंजाल में
अमेरिका में कुछ समय पूर्व सिकंदर पर एक फिल्म बनायी गयी थी। जिसमें दर्शाया गया था कि सिकंदर झेलम के किनारे पोरस से अपमानजनक ढंग से पराजित हुआ था। सिकंदर की वीरता से तो यूनानी हतप्रभ थे। साथ ही उन्हें जिस बात ने सर्वाधिक प्रभावित और भयभीत किया था वह थी-पोरस की हस्ति सेना में प्रत्येक हाथी की सूंड में तलवार का बंधा होना, जिसे हाथी बड़ी मस्ती से शत्रु सेना पर चलाते थे। ऐसे सधे-सधाये हाथी जो शत्रु से युद्घ भी करते हों, अब से पहले यूनानियों ने कहीं नही देखे थे। परिणाम स्वरूप वे इतने भयभीत हुए कि भारत में प्रवेश करते-करते ही उनका साहस भंग हो गया।
भारतीयों की विद्वत्ता से सिकंदर हुआ प्रभावित
यह भी कहा जाता है कि एक विद्वान से सिकंदर ने जब यह पूछा कि पहले दिन हुआ या रात? तब उस विद्वान ने उत्तर दिया-‘‘ निश्चित ही दिन रात के एक दिन पूर्व हुआ था।’’ सिकंदर ने अपना दूसरा प्रश्न किया-‘‘सबसे बुद्घिमान जानवर कौन सा है?’’ उस विद्वान ने उत्तर दिया-‘‘वह जानवर जो आदमी से बचना जानता है?’’
सिकंदर उस विद्वान के ऐसे अटपटे उत्तरों को सुनकर आग बबूला हो गया था। अत: वह बोला-‘‘यह किस प्रकार के उत्तर हैं? कैसी विद्वत्ता है? विद्वान ब्राह्मण ने कहा-‘‘विचित्र प्रश्नों के उत्तर भी विचित्र ही होते हैं?’’ एक और विद्वान से सिकंदर ने पूछा-‘‘मेरा राज्य पृथ्वी पर कैसा रहेगा?’’ वह विद्वान एक सूखा चर्म अपने साथ लेकर आया था, जो सब ओर से मुड़ा हुआ था। विद्वान ने उत्तर दिया-‘इस चर्म को स्पष्ट करके बिछाकर उस पर बैठो।’ जब सिकंदर बैठ गया तो कभी कोई कोना ऊंचा हो जाता, तो कभी कोई और। वह शुष्क चर्म सपाट नही बिछाया जा सका। विद्वान ने उत्तर दिया कि जैसे यह चर्म तुमसे सपाट नही बिछाया जा सका, वैसे ही तुम्हारा राज्य भी कभी एक ओर बढ़ेगा तो दूसरी ओर से उखड़ेगा।’’
(संदर्भ : भारतीय इतिहास के गौरव क्षण)
भारतीय विद्वानों ने सिकंदर कर दिया था परास्त
ऐसे संवादों से बनता है इतिहास। जहां शुष्क क्षात्रबल को ब्रह्मबल निस्तेज करने की सामथ्र्य रखता है। हमारे विद्वानों ने अहंकारी सिकंदर के प्रश्नों का उत्तर देकर ही उसे परास्त कर दिया था। जिस देश का एक-एक विद्वान इतना निर्भीक हो कि उसके समक्ष विश्व विजेता बनने का संकल्प और सपना लेकर चलने वाला सिकंदर भी अपना अहंकार त्यागने के लिए बाध्य हो जाए-उस देश के मर्यादित क्षात्रबल को भला कौन परास्त कर सकता था? इसलिए अमेरिका ने उस फिल्म में सत्य का निरूपण किया कि सिकंदर झेलम तट पर पराजित हुआ था। हमारा इतिहास चाहे जो कहे पर प्रमाण कुछ और ही बताते हैं। जिन्हें विश्व मान रहा है।
हमारी जीवंतता अभी भी बनी हुई थी
पोरस का वह भारत जिसके कण-कण में रोमांच था, साहस था, तेज था, निर्भीकता थी और अदम्य शौर्य था, सैय्यद लोदी के काल तक आते-आते कई क्षेत्रों में ेनिश्चित रूप से पराभव को प्राप्त हुआ, परंतु इसका अभिप्राय यह नही था कि वह पराभव हमें मृत्यु तक ले गया था। हम जीवित थे और हमारी जीवन्तता का प्रमाण हमारे हिंदू वीर हर पग पर दे रहे थे।
सिकंदर से कह दिया गया था…..
संसार के ज्ञात इतिहास में संभवत: सिकंदर ऐसा पहला बादशाह था जो विश्व में अपना राज्य आतंक और अत्याचार के बल पर स्थापित करने के लिए घर से निकला था। उसने स्पष्ट आज्ञा दे दी थी कि जो कोई मेरी अधीनता स्वीकार न करे उसके नगर को और गांवों को जला दिया जाए। जब भारत में यह सूचना मिली तो उस समय भी हमारे राजा पोरस के दूत ने जाकर सिकंदर को जो पत्र दिया था उसमें लिखा था-‘‘हम भारतीय पराधीनता से मृत्यु को बड़ा समझते हैं, हम आपका स्वागत करने को प्रस्तुत हैं, पर वह फूलों से नही, नग्न खडग़ों के द्वारा होगा।’’
धन्य है भारतभूमि
जितना इतिहास (712ई. से सैय्यद वंश तक) हमने पढ़ा है उसने सिद्घ कर दिया है कि पोरस के दूत की इस घोषणा को उस समय ही नही अपितु उसके सदियों व्यतीत हो जाने के उपरांत भी भारतीय वीरों ने अपनी इस प्रतिज्ञा को कितनी ही बार सत्य प्रमाणित किया। आग से नगरों ग्रामों के जलने की बात तो छोडिय़े अपने जलने की भी चिंता लोगों ने नही की,…केवल स्वतंत्रता के लिए।…केवल धर्म की रक्षा के लिए…केवल संस्कृति की रक्षा के लिए!!! धन्य है मेरी भारत भूमि जिसने अपने-पहले आक्रांता के समय जो शपथ ली थी उसे शताब्दियों तक निभाया। विश्व इतिहास का यह स्वर्णिम अध्याय है। इसी क्रम में अब हम आगे बढ़ते हैं। सैय्यद वंश के पश्चात भारत में दिल्ली सल्तनत का अगला वंश लोदी वंश के रूप में हमारे सामने आता है।
इतिहास लेखन की अनोखी सीख
लोदी वंश पर चर्चा करने से पूर्व हम इस बात पर प्रकाश डालेंगे कि छद्म धर्मनिरपेक्षता की नीति हमारे लिए इतिहास लेखन में किस प्रकार बाधक रही है। इस पर पी.एन. ओक महोदय ने अपनी पुस्तक ‘भारत में मुस्लिम सुल्तान’ के पृष्ठ 365-66 पर बड़े रोचक ढंग से दिया है। जिसे हम साभार यहां यथावत प्रस्तुत कर रहे हैं, वह कहते हैं-‘‘महाराष्ट्र प्रांत के एक भूतपूर्व शिक्षामंत्री ने विख्यात शिक्षकों का एक सम्मेलन बुलाया तथ साम्प्रदायिक एकता बनाये रखने के लिए किस प्रकार इतिहास लिखा जाए? इसकी आवश्यकता पर एक राजनीतिक उपदेश दिया। आमंत्रित व्यक्तियों में कुछ ऊंचे स्तर धर्म निरपेक्ष इतिहासकार भी थे। उनमें से दो इतिहासकार असाधारण रूप से शांत और मौन थे। उन दोनों की इस चुप्पी से व्यथित होकर मंत्रीजी ने पूछा कि क्या आप लोग इतिहास लेखन के इस विवेकपूर्ण और विरोधहीन आधार से सहमत नही हैं?’’
इन दो मौन ‘योगियों’ में से एक ने मंत्री जी से स्पष्ट कह दिया कि इतिहास इतिहास है, इसमें गोलमाल या मिलावट नही की जा सकती और न राजनीति के लिए इसे तोड़ा-मरोड़ा ही जा सकता है।
मंत्री जी अवाक रह गये। उसका प्रस्ताव जैसा कि उनका विचार था सर्वसम्मति से स्वीकृत नही हुआ। बौखला कर मंत्री जी दूसरे असहमत इतिहासकार की ओर मुड़े। कुछ हिचकिचाते हुए दूसरे इतिहासकार ने उत्तर दिया कि आपकी मांग नितांत असंभव या विवेकहीन नही है। निश्चय ही इतिहास तत्कालीन सरकार की इच्छा के अनुसार लिखा जा सकता है। ऐसी घटनाएं सदा से घटती चली आयी हैं।
इतिहासकार ने मंत्री को कर दिया निरूत्तर
एक स्वतंत्र इतिहासकार से जिसका मौन खतरे की घंटी था अनपेक्षित सहमति पा जाने पर मंत्री जी गदगद हो गये। उन्होंने उन इतिहासकार से इतिहास के शिक्षकों एवं प्राचायों की सभा में इतिहास लेखन की दिशा निर्देश के लिए कुछ कहने का आग्रह किया।
इतिहासकार ने बोलना आरंभ किया-‘‘बहनों और भाइयों, अगर आपसे सरकार चाहती है कि आप इतिहास इस प्रकार लिखें या इस प्रकार पढ़ायें, जिससे साम्प्रदायिक एकता और मैत्री उत्पन्न की जा सके, तो यह कोई कठिन कार्य नही है। मैं आपको इसका एक प्रैक्टिकल उदाहरण दूंगा। अगर आपको उस घटना का वर्णन करना है, जिसमें शिवाजी ने मूर्ख बनाकर और अपने काबू में लाकर हत्यारे अफजल खां को मारा था तो आप अपने पाठकों और छात्रों को यह घटना इस प्रकार बतायें कि अफजल खां तथा शिवाजी के पिता गहरे मित्र थे। साथ ही वे दोनों साम्प्रदायिक मैत्री के लिए बड़े उत्सुक भी थे। जब उन दोनों के पुत्र जवान हुए तो दोनों पिता जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी अपने पुत्रों की भेंट करा देने के लिए चिंतित हुए, ताकि पारिवारिक मित्रता आगे बढ़ सके। शिवाजी मेजबान बनने के लिए तैयार हो गये। उनको यह बताया गया कि अफजल खां जरा भारी शरीर का लंबा तगड़ा आदमी था। शिवाजी जरा दुबले पतले और नाटे थे। अत: उन्होंने अफजल खां को गुदगुदी करने के लिए और अट्टहास तक हंसी मजाक करने के लिए बघनख पहन लिया। वे दोनों एक सजे सजाए शामियाने में मिले। गहरे दोस्त होने के साथ-साथ वे दोनों अपने-अपने सम्प्रदायों के नेता भी थे। इसलिए दोनों ने एक दूसरे का आलिंगन किया। शिवाजी के बचपन की चंचलता गयी नही थी। उन्होंने अफजल खां को जो गुदगुदाना आरंभ किया तो गुदगुदाते ही रहे। प्रथम मिलन की नम्रता के कारण अफजल हंसी से अट्टहास करता रहा। पर शरीर से भारी होने के कारण साथ ही साम्प्रदायिक मैत्री का डोज जरा अधिक हो जाने के कारण बेचारे अफजल खां को दिल का दौरा पड़ गया। वह वहीं जमीन पर ढेर हो गया। शिवाजी ने बड़ी धूमधाम से उसे दफना दिया। इसलिए बहनों और भाईयों अफजल खां की कब्र तथा इसी कारण से भारत के प्रत्येक मुसलमान की कब्र साम्प्रदायिक मैत्री का नमूना है। अगर सरकार की इच्छा है तो इस प्रकार इतिहास लिखा जा सकता है, और हमें लिखना ही चाहिए।
मंत्रीजी यह सुनकर सन्न हो गये। उनकी बुद्घि खो गयी। उन्होंने मीटिंग निरस्त कर दी।’’
वास्तव में इसी धर्मनिरपेक्षता की छदमवादी सोच के कारण ही हमारा इतिहास हमारे समक्ष शुद्घ और यथार्थ स्वरूप में प्रस्तुत नही किया गया।
लोदी वंश का प्रथम सुल्तान बहलोल लोदी
लोदी वंश का प्रथम प्रमुख सुल्तान बहलोल लोदी था। मुस्लिम सल्तनत के खण्डहर पर उसने पुन: एक नई सल्तनत खड़ी करने का सपना संजोया। यद्यपि इस काल तक भारतवर्ष के कितने ही बड़े नगर और राजधानी दिल्ली केवल उल्लुओं की निवास स्थली बनकर रह गयी थी। कितने ही गांव उजाड़ दिये गये थे। भारतवर्ष में आज भी लगभग दो लाख गांव ऐसे हैं, जिनके नाम राजस्व अभिलेखों में तो मिलते हैं पर वे अब अस्तित्व में नही हैं। उनके खण्डहर बताते हैं कि इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों ने कभी यहां या तो आत्महत्या की है, अथवा हत्यारों ने अपने क्रूर हाथों से इनकी हत्या कर दी है। यद्यपि कुछ गांव ऐसे भी हैं जो किसी प्राकृतिक आपदा से नष्ट हो गये, परंतु अधिकांश गांव आत्महत्या या हत्या से नष्ट हुए या किये गये। मध्यकालीन इतिहास में मुस्लिम आक्रांताओं ने यह सारा खेल रचा।
अपने पूर्ववत्र्तियों के मार्ग पर ही चला बहलोल लोदी
जब बहलोल लोदी दिल्ली की सल्तनत का स्वामी बना तो उसके पास निर्माण के लिए बहुत कुछ था। वह नष्ट हुए शहरों और गांवों में उल्लुओं के स्थान पर नागरिकों को बसा सकता था। पर उसने निर्माण का यह मार्ग नही अपनाया। उसने अपने पूर्ववत्र्तियों की भांति विध्वंस का मार्ग ही अपनाया। यह भी एक दुखद तथ्य है कि बहलोल के पास उस समय विध्वंस के लिए कुछ नही था। उल्लू वास बने नगरों और ग्रामों का और क्या विध्वंस हो सकता था पर बहलोल की यह अनिवार्य विवशता थी कि उसे विध्वंस का ही मार्ग चुनना पड़ा।
भारत की एक सल्तनत विभिन्न स्थानीय सल्तनतों में विभक्त हो चुकी थी। कितने ही मुस्लिम सुल्तान अब खड़े हो गये थे, जो दिल्ली के लिए एक चुनौती बन गये थे और जो हर क्षण दिल्ली की सल्तनत के विनाश की कामना करते रहते थे। सुल्तान को भारत के इन छुटपुट सुल्तानों की शत्रुता का सामना भी करना था। पर इससे हिंदुस्तान को कोई लाभ मिलने वाला नही था। क्योंकि इन सुल्तानों के परस्पर के युद्घ के लिए भी भारत भूमि को ही रक्त से सनना था, जिसे वह चाहती नही थी।
कई सुल्तानों से मिली चुनौती
बहलोल लोदी ने कई सुल्तानों से युद्घ किया और उन्हें दिल्ली की सल्तनत के नीचे लाने के कई सफल असफल प्रयास किये। जिनका उल्लेख करना यहां प्रासंगिक नही मानते। पर सुल्तान बहलोल लोदी जब अपने इन सफल असफल अभियानों में लगा हुआ था तो उसने इटावा को भी अपने नियंत्रण में लाने का प्रयास किया था। उस समय यहां का शासक जौनपुरी मुहम्मद शर्की था। जब बहलोल यहां पहुंचा तो इस शासक ने उसका सामना किया।
रायकरण और बहलोल लोदी
कहते हैं कि बहलोल ने उससे समझौता कर लिया था। यहीं पर उसे शमशाबाद की अपने राज्य की भूमि को एक हिंदू शासक राय कर्ण को भी सौंपना पड़ गया था। जौनपुर के शासक मुहम्मद शर्की को किसी हिंदू को इतना सम्मानित किया जाना अच्छा नही लगा। अत: उसने शमसाबाद को नष्ट करने के लिए उसकी ओर प्रस्थान कर दिया। पर वह मार्ग में ही मृत्यु को प्यारा हो गया। ईश्वर ने राय कर्ण की रक्षा की, अन्यथा हर आक्रांता की भांति इस आक्रांता से भी कितने ही हिंदुओं की हत्या हो जाना अवश्यम्भावी था।
मुहम्मद शर्की की अचानक हुई मृत्यु के उपरांत जौनपुर का शासक उसका पुत्र मुहम्मद शाह बना। जिसने शासन की बागडोर संभालते ही बहलोल से समझौता कर लिया। इस समझौते में भी राय कर्ण के राज्य की सीमाओं को नही छेड़ा गया। दिखाने के लिए रायकर्ण के राज्य की सीमाओं का इस समझौते में सम्मान किया गया। पर मुहम्मदशाह के हृदय में पिता वाली आग ही जल रही थी, जो इस हिंदू राज्य को यथाशीघ्र अपने भीषण लपटों से जलाकर खाक कर देना चाहती थी। इसलिए उसने अपनी कुटिल योजनाओं पर काम करना जारी रखा और समझौता करके भी राय कर्ण के राज्य पर उसने आक्रमण कर दिया। बहलोल लोदी एक दुर्बल सुल्तान था और साथ ही एक धर्मांध व्यक्ति भी। अत: जब उसने देखा कि मुहम्मद शाह एक ऐसे हिंदू शासक का शिकार कर रहा है जो उसी के द्वारा नियुक्त किया गया था, तो उसने अपनी धर्मांधता का परिचय देते हुए उस घटना के प्रति पूर्णत: उदासीनता अपना ली।
भई गांव का मुकद्दम राय प्रताप
इतिहास को बनाने वाले अक्सर इतिहास को अपने हाथों कुचल भी दिया करते हैं। पर इसी समय इस बने बनाये इतिहास के भव्य भवन को भूमिसात होते देखकर एक व्यक्ति ऐसा भी था कि जिसके हृदय में सबसे अधिक पीड़ा अनुभव हुई। यह था पश्चिमी उत्तर प्रदेश के भईगांव का मुकद्दम राय प्रताप। यह कम्पिल तथा पटियाली नगरों को भी अपने अधीन कर चुका था। बहलोल लोदी ने जब रायकर्ण के साथ ‘अन्याय’ पूर्ण उदासीनता का प्रदर्शन किया तो इस हिंदू शासक ने अपने हिंदू शासक का साथ देना उचित समझा। यद्यपि वह बहलोल के प्रति पूर्व में मैत्री भाव का प्रदर्शन कर चुका था।
पुत्र को भी खो दिया
इसके पश्चात वह बहलोल को त्यागकर जौनपुर के सुल्तान मुहम्मद शाह का मित्र भी बन गया था। रायप्रताप के लडक़े नरसिंह की रायप्रताप की अपने हिंदू भाई की सहायता करने के अपराध में बहलोल लोदी के कुतुबखां और ददिया खां जैसे लोगों ने हत्या कर दी थी।
रायकर्ण ने भगा दिया जूनाखां को
इस काल में जब मुस्लिम सुल्तानों से दिल्ली के सुल्तान की कटुता अपने शीर्ष पर थी और सर्वत्र अशांति और कलह का वातावरण था, तब वीर राय कर्ण ने अपने राज्य के अपहत्र्ता जूनाखां को मार भगाने में सफलता प्राप्त कर ली। राय कर्ण का अपनी राजधानी शमसाबाद पर पुन: अधिकार हो गया।
बिगड़ गया शक्ति संतुलन
मुहम्मद शाह की मृत्यु के पश्चात जौनपुर उसका पुत्र हुसैन शाह शर्की जौनपुर का शासक बना। रायप्रताप ने अपने पुत्र की हत्या के प्रतिशोध में बहलोल लोदी का साथ छोड़ दिया था। अत: जब बहलोल लोदी ने शमशाबाद पर आक्रमण किया तो राय प्रताप हुसैन शाह शर्की की ओर आ गया। रायप्रताप ने शक्ति संतुलन बिगाड़ दिया उसने हुसैन शाह शर्की के साथ आ मिलने से शर्की का साथ अन्य कई मुस्लिम शासकों ने भी दिया, जिससे बहलोल लोदी बिना युद्घ किये ही दिल्ली लौट गया।
राय सकत सिंह ने किया इटावा को स्वतंत्र घोषित
लोदी काल में इटावा की शक्ति का पतन हुआ। वहां के हिंदू शासक राय सुमेरू आदि अब नही रहे थे। अत: इतिहासकारों का मानना है कि 1432-33 ई. के पश्चात कोई उल्लेखनीय हिंदू प्रतिरोध इटावा की भूमि पर नही हुआ। बहलोल लोदी ने अपने शासनकाल में इटावा प्रदेश के कुछ परगने राय दादू को दे दिये थे। जिनका स्वामी राय दादू जीवन पर्यन्त बना रहा। परंतु उपलब्ध साक्ष्यों के अवलोकन से सिद्घ होता है कि राय दादू के देहावसान के पश्चात उसके लडक़े सकत सिंह उपनाम शक्तिसिंह से बहलोल लोदी का उचित समन्वय स्थापित नही रह सका। सकत सिंह का एक नाम ‘तारीखेशाही’ में सारंग भी माना गया है। हरिहर निवास द्विवेदी इस सारंग नाम को सकत सिंह के साथ स्थापित करने पर बल देते हैं। ‘तारीखेशाही’ में तोमर मानसिंह के विद्रोह के समय राय सारंग के विद्रोह का भी उल्लेख मिलता है। अत: इस सकत सिंह नामक शासक ने भी अपने आपको स्वतंत्र घोषित कर दिया। बहलोल लोदी ने इसके विद्रोह का तो दमन कर ही दिया। साथ ही उससे इटावा का प्रदेश भी छीन लिया।
भदौरिया हिंदू राजपूत भी करते रहे संघर्ष
बिदासर ठाकुर बहादुर सिंह क्षत्रिय जाति की सूची (हस्तलिखित, श्रीनट नागर शोध संस्थान सीतामऊ, पृष्ठ 83) के अनुसार पृथ्वीराज चौहान के भतीजे कानजी के पुत्र कजलदेव के पुत्र सालरदेव ने भदावर बसाया था। सालरदेव के 6 पुत्रों में से भदौरिया शाखा है। कान जी के अन्य पुत्रों ने मैनपुरी, प्रताप नगर, राजोर तथा एटा में राज्य स्थापित किया था।
आगरा के निकट के राजपूत अपने आपको भदौरिया शाखा का मानते हैं। इन लोगों ने अपनी स्वतंत्रता को अपने साहस एवं शौर्य से निरंतर सुरक्षित रखा। अकबर के काल में इस क्षेत्र पर मुगल बादशाहत की पताका फहराई।
यहां के भदौरिया राजपूतों ने हुसैन शाह शर्की को लूट पीटकर ‘मरते में दो लात और मारने’ वाली ‘कहावत चरितार्थ’ की थी। शर्की 1480 ई. में बहलोल लोदी से परास्त होकर ग्वालियर की ओर भाग रहा था, जहां से वह जौनपुर जाना चाहता था। मार्ग में उसने यमुना नदी पार कर जब भदौरिया राजपूतों के इस क्षेत्र में प्रवेश किया तो यहां के साहसी राजपूतों ने उसके शिविर पर छापा मारकर उसे लूट लिया। पहले से ही पराजित शर्की यमुना नदी को पार करते समय अपने कई परिजनों को खो ुचुका था, अब भदौरिया राजपूतों ने उसकी स्थिति और भी दयनीय कर दी थी। भदौरिया राजपूतों ने एक लुटेरे को अनुभूति करा दी कि लूट के पश्चात लुटे हुए व्यक्ति की मनोव्यथा क्या होती है?
बघेल शासक ने शर्की को दिया सम्बल
जब शर्की आपत्तियों से घिरा हुआ था भदौरिया राजपूतों की लूट से उसकी कमर टूट चुकी थी, तभी उसकी रक्षार्थ बघेल शासक भैदचंद सामने आया। भैदचंद ने शर्की और बहलोल लोदी के बीच की शत्रुता को और हवा देने तथा शत्रु के शत्रु को जीवित रखने के लिए अनूठी योजना बनायी, जिसका उसे लाभ मिला। उसने शर्की को उस समय शरण दे दी जब वह नदी पार कर ग्वालियर की ओर भाग रहा था और उसका पीछा बहलोल लोदी कर रहा था। लोदी को जब ज्ञात हुआ कि शर्की को बघेल शासक ने शरण दे दी है तो वह बघेल शासक का सामना किये बिना ही लौट गया। इस प्रकार बघेल शासकों की योजना सफल रही। इस घटना से बघेल शासक की रणनीति समझी जा सकती है। अपने शत्रु-शत्रु से भिड़ाये रखने के लिए शत्रु के शत्रु को जीवित रख जौनपुर पहुंचाने में सहायता की। यदि शर्की को वह मरवा देता या स्वयं मार देता तो इससे एक शत्रु तो समाप्त होता पर दूसरा प्रबल हो जाता। फलस्वरूप प्रबल हुए शत्रु लोदी का अगला शिकार बघेल शासक ही बनता। बघेल शासक की इस नीति से लोदी बघेल शासक पर कभी आक्रमण करने का साहस नही कर पाया। जिससे बघेल की स्वतंत्रता बनी रही। बहलोल लोदी अपमान का घूंट पीकर रह गया, वह बघेल शासक की राजनीति और रणनीति के मृगजाल में उलझ कर रह गया था। बघेल शासक ने शर्की को ग्वालियर पहुंचाने के लिए सैनिक और आर्थिक सहायता भी उपलब्ध करायी थी।
ग्वालियर नरेश कीर्ति सिंह भी चला इसी राह पर
इसी नीति का अनुकरण ग्वालियर के शासक कीर्ति सिंह (करन सिंह) ने भी किया। उसने भी शर्की की सहायता की और उसे अपने यहां शरण दी। कीर्तिसिंह के पश्चात ग्वालियर का शासक तोमर मानसिंह बना था। ‘तारीखे शाही’ के अनुसार इस तोमर शासक ने अपनी स्वतंत्रता के लिए लोदी के विरूद्घ विद्रोह किया था।
इस प्रकार हम देखते हैं कि बहलोल लोदी ने दिल्ली पर तो अधिकार कर लिया था, पर अपने पूर्ववर्ती हर मुस्लिम शासक की भांति वह भारतीयों के हृदय पर अधिकार करने में असफल रहा। उसे भी चुनौतियां मिलती रहीं और वह उनमें इस प्रकार उलझकर रह गया कि जितना उनका पार पाना चाहता था उतना ही उनमें फंसता जाता था। शत्रु को ऐश्वर्यविहीन और सुखविहीन बनाये रखना भी एक प्रकार की सफलता ही होती है, ऐसी स्थिति शांति की नही अपितु क्रांति और संघर्ष की प्रतीक हुआ करती है, और ये क्रांति और संघर्ष ही थे जिन्होंने अपनी मद्घम गति से ही सही भारत की अन्तश्चेतना को इस काल में चेतनित बनाये रखा।
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत