वास्तव में इंदिरा गांधी उस समय इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस आदेश से भयभीत हो गयीं थीं जिसमें उन्हें आगामी छह माह के लिए किसी भी पद पर न बने रहने के लिए निर्देशित किया गया था। उस समय न्यायालय ने उनके चुनाव को अवैध घोषित कर दिया था। न्यायालय का यह आदेश हमारी न्यायपालिका की मजबूती को स्पष्ट करने वाला एक लोकतांत्रिक आदेश था, परंतु इंदिरा गांधी के बचकाने और तानाशाही पूर्ण नेतृत्व को यह लोकतांत्रिक आदेश स्वीकार्य नही था। इसलिए श्रीमती गांधी ने लोकतंत्र और न्यायपालिका का गला घोंटने के लिए देश में आपातकाल की घोषणा कर दी, जिसमें देश के नागरिकों के मौलिक अधिकारों को छीन लिया गया, और शासन कठोर होकर ‘नादिरशाही’ ढंग से शासन करने लगा।
न्यायालय के आदेश से भयभीत इंदिरा गांधी ने शीघ्रता में निर्णय लिया और जिस आजादी के लिए कांग्रेस कहती रही थी कि बड़ी कीमतें देकर यह नेमत हमने पाई है, उसी आजादी की नेमत को इंदिरा गांधी ने अपने पैरों तले कुचल दिया। इस प्रकार आजादी को लाने में कांग्रेस का जितना भी योगदान था उससे कई गुना बड़ा पाप इंदिरा गांधी ने लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन करके कर दिखाया। 25-26 जून की रात्रि में तत्कालीन राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद से इंदिरा गांधी स्वयं जाकर मिलीं, और उन्हें देश में आपातकाल की घोषणा करने के लिए बाध्य किया। फखरूद्दीन अली अहमद नही चाहते थे कि उनके हाथों से लोकतंत्र का गला घोंटने का पापकृत्य किया जाए, परंतु उनकी अपनी सीमाएं थीं और उनके सामने एक तानाशाही महिला बैठी थी जो उस समय किसी भी सीमा तक जा सकती थी, इसलिए राष्ट्रपति ने भारी मन से देश में आपातकाल की घोषणा करने संबंधी प्रपत्रों पर हस्ताक्षर कर दिये। राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा अपने साथ किये गये दुव्र्यव्यहार और आपातकाल संबंधी प्रपत्रों पर जबरन लिये गये इस प्रकार के हस्ताक्षरों की सारी प्रक्रिया से अत्यंत आहत हुए थे। कुछ कालोपरांत राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद का पद पर रहते हुए देहांत हो गया। इस प्रकार एक लोकतांत्रिक व्यक्ति का अलोकतांत्रिक ढंग से कत्ल हो गया, पर आज के समकालीन इतिहास में इस घटना को दबाकर रख दिया गया, और इतना गहरा दबा दिया गया कि कभी इस घटना का रहस्य लोगों के सामने नही आ पाएगा।
इंदिरा गांधी ने उस समय के विपक्षी नेताओं को उठवाकर जेलों में डालना आरंभ करा दिया। इन नेताओं में अटल बिहारी वाजपेयी, मोरारजी देसाई, आचार्य कृपलानी, करूणानिधि, हरकिशन सिंह सुरजीत, लालकृष्ण आडवाणी, चंद्रशेखर, चौधरी चरण सिंह, प्रकाश सिंह बादल, चौधरी देवीलाल, मुलायम सिंह यादव, नीलम संजीवा रेड्डी, भैरों सिंह शेखावत, ओमप्रकाश चौटाला जैसे अनेकों नेता सम्मिलित थे।
प्रेस पर इस कदर आतंक का साया बैठाया गया था, कि कोई भी समाचार बिना सेंसर बोर्ड को दिखाये छापा नही जा सकता था। बहुत से समाचार पत्रों ने इंदिरा गांधी के रंग में रंग जाना मंजूर कर लिया, लेकिन बहुत से ‘कलम के सिपाही’ उस समय भी ऐसे रहे जिन्होंने कलम से सौदा नही किया। उन्होंने अपने ढंग से लेख लिखने आरंभ किये, और भारत की चेतना को उस काल में भी चेतनित रखने का प्रशंसनीय कार्य किया। इंदिरा गांधी ने नई पुस्तकों के प्रकाशन तक पर रोक लगा दी थी, जितना भर भी साहित्य उस समय छप रहा था वह गांधी नेहरू परिवार की प्रशंसा और कांग्रेस के समर्थन में छप रहा था। आपातकाल के इस संक्षिप्त काल में देश के इतिहास की नसों में बड़ा घातक विष चढ़ा दिया गया। लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन करते हुए उन्हें शांतिपूर्ण सभा आयोजित न करने के लिए भी कड़े निर्देश जारी कर दिये गये थे। चारों ओर पुलिस का डंडा चलता था, उस डंडे के पीछे से इंदिरा गांधी का निर्मम हृदय आदेश करता था, और सारा देश एक निर्मम महिला के अत्याचारों का शिकार हो रहा था।
हमें अपेक्षा करनी चाहिए कि आने वाले दिनों में आपातकाल का यह निर्मम क्रम पुन: नही दोहराया जाएगा। परंतु इसके लिए शासक वर्ग का परिपक्व और धैर्यशील होना आवश्यक है। हम अपनी लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को जितना स्वस्थ बना लेंगे, उतने ही अनुपात में उम्मीद की जा सकेगी, कि 1975 की यह पीड़ादायक घटना भविष्य में पुन: नही दोहराई जाएगी।
मुख्य संपादक, उगता भारत