स्त्रोत- स्वामी दयानन्द सरस्वती के पत्र-व्यवहार का विश्लेषणात्मक अध्ययन]
लेखक- डॉ० भवानीलाल भारतीय
प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ, #डॉ_विवेक_आर्य
सहयोगी- डॉ० ब्रजेश गौतमजी
देश के गृहमंत्री अमित शाह जी ने हिंदी भाषा को राष्ट्रीय भाषा बनाने के लिए आग्रह किया। गृहमंत्री जी का कहना था कि हिंदी को अंग्रेजी के स्थान पर प्राथमिकता देनी चाहिए। उनके इस बयान में कुछ भी गलत नहीं था।
अपने विचारों को दूसरे तक प्रेषित करने में हमें भाषा की आवश्यकता पड़ती है। स्वामी दयानन्द जब धर्म प्रचार के क्षेत्र में आये तब उनके सामने यही समस्या थी कि वे किस भाषा के द्वारा अपने विचारों को अन्यों तक सम्प्रेषित करें। उनकी मातृभाषा गुजराती थी किन्तु उत्तर भारत में उससे विचारों के सम्प्रेषण में सहायता नहीं मिल सकती थी। वे संस्कृत के विद्वान् थे और धारा प्रवाह, अस्खलित वाणी के द्वारा गीर्वाण वाणी में अपने विचारों को अन्यों तक पहुंचा सकते थे। अतः गंगा के तटवर्ती प्रान्तों में जब उन्होंने वैदिक धर्म का उपदेश देने का संकल्प किया तो यह निश्चय कर लिया कि वे संस्कृत में अपनी बात कहेंगे, कथा-प्रवचन सरल संस्कृत में ही किया करेंगे। व्यावहारिक वार्तालाप में भी वे संस्कृत का प्रयोग करते थे। जिन लोगों में उनकी संस्कृत वक्तृता सुनी है वे साक्षी देते रहे कि दयानन्द की संस्कृत इतनी सरल और प्रसाद युक्त होती थी कि सामान्य पठित व्यक्ति को भी उसे समझने में कभी कठिनाई अनुभव नहीं हुई।
भारत की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता (आज का कोलकाता) में जब स्वामीजी लगभग साढ़े तीन मास तक रहे, वार्तालाप तथा व्याख्यान संस्कृत में ही देते रहे। यहां उन्हें नवविधान ब्रह्मसमाज के नेता बाबू केशवचन्द्र सेन ने परामर्श दिया कि अपने विचारों को अधिकतम जनता तक पहुंचाने के लिए हिन्दी में व्याख्यान देना अधिक समीचीन है क्योंकि यह भाषा भारत के जनसाधारण की भाषा है और सर्व सामान्य इसे भलीभांति समझा जाता है। सेन महाशय की यह बात स्वामीजी दयानन्द को औचित्यपूर्ण प्रतीत हुई और कलकत्ता से चल कर जब वे काशी आये तो उन्होंने यहां अपना व्याख्यान हिन्दी में दिया। भाषा को लेकर दयानन्द की दूरदर्शिता इस तथ्य को अनुभव करने में है कि उन्होंने उन्नीसवीं शताब्दी में ही यह अनुभव कर लिया था कि यदि कोई धर्माचार्य तथा समाज सुधारक भारत के अधिकतम लोगों तक अपनी बात पहुंचाना चाहता है तो उसे हिन्दी का सहारा लेना होगा। स्वामीजी ने न केवल वार्तालाप में अपितु लेखन में हिन्दी को अपनाया। कुछ अपवादों को छोड़कर उनके अधिकांश ग्रन्थ साधु हिन्दी में लिखे गए हैं तथा उनका सुदीर्घ पत्राचार भी हिन्दी में ही है।
भाषा विचाराभिव्यक्ति का माध्यम तो है ही, उसके द्वारा शिक्षण का कार्य भी होता है। मुस्लिम शासन में राजभाषा फारसी रही और आभिजात्य वर्ग के बालक भी फारसी पढ़ते थे। साधारण जनता अपने बच्चों को ग्रामीण पाठशालाओं में भेजती जहां नागरी का अभ्यास कराया जाता। उस समय हिन्दी को उपहास में भाखा (भाषा) कहा जाता और वह पण्डिताऊ बोली, प्रायः अशिक्षित जनों की भाषा समझी जाती थी। स्वयं को रोशन खयाल मानने वाले लोगों में उर्दू-फ़ारसी का चलन था और शीन काफ से दुरुस्त उर्दू बोलने वाले सभ्य और तहजीब वाले माने जाते थे। अंग्रेजी राज्य के आ जाने के बाद राजकार्यों में तथा शिक्षण संस्थानों में अंग्रेजी का चलन बढ़ा और जो वर्ग या प्रदेश अंग्रेजी सीखने में जितना सक्षम सिद्ध हुआ उसे समाज में उतनी ही प्रतिष्ठा तथा शासन के गलियारों में उतना ही सम्मान प्राप्त होने लगा। अब राजकीय शिक्षणालयों में शिक्षण का माध्यम भी अंग्रेजी हो गया और हिन्दी का पठन-पाठन ग्रामीण पाठशालाओं तक सीमित रह गया। इस समय सरकार ने विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम निर्धारित करने के लिए जनता के विचार जानने चाहे और इसके लिए मि० (डाक्टर) हण्टर की अध्यक्षता में एक आयोग स्थापित किया। यह आयोग विभिन्न प्रान्तों में जाकर शिक्षा के माध्यम के विषय में लोगों के विचार जानने लगा जिसके आधार पर आगे चलकर शिक्षा में भाषा विषयक नीति का निर्धारित किया जाना था। जब स्वामीजी को हण्टर कमीशन की नियुक्ति की जानकारी मिली तो उन्होंने विभिन्न आर्यसमाजों को एक परिपत्र भेजकर कहा कि वे हण्टर आयोग के समक्ष गवाही दें तथा प्रार्थना पत्र भेजकर शिक्षा में हिन्दी को समुचित स्थान देने के लिए आग्रह करें। सम्बन्धित परिपत्र में कहा गया था-
“यह बात बहुत उत्तम है क्योंकि अभी कलकत्ते में इस विषय की सभा हो रही है। इसलिए जहां तक बने वहां शीघ्र संस्कृत और मध्यदेश की भाषा के प्रचार के वास्ते, बहुत प्रधान पुरुषों की सही कराके कलकत्ते की सभा में भेज दीजिये और भिजवा दीजिये। और मेरठ और देहरादून से पूर्व समाजों में पत्र इस विषय के शीघ्रतर भेज दीजिये।” दयानन्द सरस्वती (मुम्बई) (भाग २ पृ० ५४७)
शिक्षा के माध्यम के रूप में हिन्दी को स्वीकार कराने के साथ साथ स्वामीजी की यह भी चेष्टा थी कि राजकार्य में हिन्दी की प्रवृत्ति हो। उत्तर भारत की अदालतों में उर्दू-फ़ारसी में काम-काज होता था और सरकार के उच्च दफ्तरों में अंग्रेजी का बोलबाला था। हिन्दी में लिखी किसी अर्जी का अफसरों द्वारा स्वीकार किया जाना कठिन था। स्वामीजी की धारणा थी कि जब तक न्याय के दरवाजे तक पहुंचने में अंग्रेजी या फ़ारसी की अनिवार्यता रहेगी तब तक गरीब लोग तो न्याय से वंचित ही रहेंगे। अतः उन्होंने राजकार्य तथा सरकारी दफ्तरों में हिन्दी के प्रवेश के लिए प्रबल आन्दोलन किया। फर्रूखाबाद आर्यसमाज के लाला कालीचरण रामचरण को १४ अगस्त १८८२ को उदयपुर से लिखे अपने पत्र में वे कहते हैं- “गोरक्षार्थ और आर्य भाषा (हिन्दी) के राजकार्य में प्रवृत्त होने के अर्थ शीघ्र प्रयत्न कीजिये” (भाग २, ६०३)। फर्रुखाबाद के बाबू दुर्गाप्रसाद स्वामीजी के प्रीति पात्र व्यक्तियों में अन्यतम थे। १७ अगस्त १८८२ को उदयपुर से स्वामीजी ने इन्हें जो पत्र लिखा उसमें हिन्दी भषा के लिए किये जाने वाले प्रयत्नों की चर्चा मुख्यतया की गई थी। स्वामीजी ने लिखा- “आजकल सर्वत्र अपनी आर्यभाषा के राजकार्य में प्रवृत्त होने के अर्थ (भाषा के प्रचारार्थ जो हण्टर कमीशन हुआ है) उसमें पंजाब हाथा आदि से मेमोरियल भेजे गये हैं। परन्तु मध्य प्रान्त, फर्रूखाबाद, कानपुर, बनारस आदि स्थानों में नहीं भेजे गये, ऐसा ज्ञात हुआ है…इसलिए आपको अति उचित है कि मध्यप्रदेश में सर्वत्र पत्र भेजकर बनारस आदि स्थानों से और जहां जहां परिचय हो सब नगर व ग्रामों से मेमोरियल भिजवाइये। यह काम एक के करने का नहीं है।… जो यह कार्य हुआ तो आशा है कि मुख्य सुधार की नींव पड़ जाएगी।” (भाग २, पृ० ६०५)
रेखांकित वाक्य की महत्ता को समझना आवश्यक है। स्वामीजी की दूरगामी दृष्टि ने यह देख किया था कि यदि भारत की राजभाषा तथा राष्ट्रभाषा हिन्दी हो जाये और व्यवहार में भी सर्वत्र राष्ट्र की इस लोक भाषा का प्रयोग होने लगे तो देश में नवजागृति की लहर उत्पन्न होगी और इससे भविष्य में अनेक सुधार कार्य हो सकेंगे। अतः स्वामीजी ने राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को मान्यता मिलने को मुख्य सुधार की नींव पड़ना माना है। राष्ट्रभाषा के रूप में आर्य भाषा हिन्दी को स्वीकृति तथा गौरक्षा-स्वामीजी की दृष्टि में “बड़े हर्ष के ये दोनों विषय प्रकाशित हुए हैं।” (उपर्युक्त पत्र में) अत्यन्त भावुक होकर स्वामीजी ने आगे लिखा -“बारम्बार ऐसा निश्चय होता है कि ये दो (आर्य भाषा तथा गौरक्षा) सौभाग्यकारक अंकुर आर्यों (भारतवासियों) के कल्याणार्थ उगे हैं। अब हाथ पसार न लेवें (उपर्युक्त कार्यक्रमों को पूरा न करें) तो इससे (बड़े) दौर्भाग्य (की) दूसरी बात क्या होगी?” (भाग २, पृ० ६०६)
स्वामी दयानन्द ने जहां हिन्दी के प्रचार प्रसार के लिए अपने अनुयायियों को अनेक निर्देश दिए वहां उनकी व्यावहारिक बुद्धि यह स्वीकार करती थी कि समय, सुविधा तथा उपयोगिता की दृष्टि से अन्य भाषाओं को भी सीखना उचित है। आज हम जहां राष्ट्रीय शिक्षा नीति में त्रिभाषा सूत्र (Three Language Formula) को स्वीकार करने की बात करते हैं, स्वामीजी ने तो बहुत पहले ही तीन भाषाओं के ज्ञान की आवश्यकता अनुभव की थी। वैदिक यंत्रालय में वे ऐसे व्यक्ति को नियुक्त करना चाहते थे जो हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी में कार्य कर सके (भाग १, पृ० ४२७)। वे स्वयं अंग्रेजी सीखना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने एक बंगाली बाबू बनमाली को अपने समीप रखा भी था। यह दूसरी बात है कि अपने बहु व्यस्त जीवन तथा विभिन्न कार्य योजनाओं में संलिप्त रहने के कारण वे इस कार्य को गति नहीं दे सके।