मानव शरीर में एक अंग है मन। यह स्मृत्ति यन्त्र होने के साथ ही कल्पना और मनन का भी स्थान है। ये कल्पना और मनन मन की स्मरण शक्ति के ही कारण हैं। ईश्वर प्रदत्त मन पर नियन्त्रण रखने वाला एक यन्त्र बुद्धि मन के संकल्प-विकल्प को नियन्त्रण में रखने का कार्य करती है। मन जीवात्मा की इच्छाओं की पूर्ति के लिये कल्पनाएँ अर्थात योजनायें बनाता है और बुद्धि उन योजनाओं को धर्म-अधर्म की दृष्टि से जाँच-पड़ताल करती है,और वह जीवात्मा को सम्मति देती है कि मन की अमुक कल्पना धर्मानुकूल है और अमुक कल्पना अधर्मयुक्त। और जब बुद्धि की चेतावनी की अवहेलना की जाती है तो मन की चंचलता को उच्छृंखलता करने का अवसर सुलभ हो जाता है। अतः जातीय उत्थान अथवा राष्ट्रोत्थान के लिए जातीय अथवा राष्ट्र के घटकों में बुद्धि को इतना बलवान बनाया जाए कि वह आत्मा की कामनाओं को उचित दिशा देने में समर्थ हो। इसके साथ ही आत्मा के स्वभाव को बदला जाए जिससे वह इच्छाओं और कामनाओं में बह न सके ।यह शिक्षा का विषय है। पाठशालाओं, विद्यालयों,महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में इस प्रकार की शिक्षा का प्रबन्ध होना चाहिए।
शिक्षा वस्तुतः जीवात्मा का स्वभाव बनाने, मन को शिव संकल्प करने और बुद्धि को सुदृढ़ करने का नाम है। इनके साथ ही इन्द्रियों को मन और बुद्धि के अधीन कार्य करने अभ्यास कराने का नाम है।भाषा, इतिहास, भूगोल, गणित इत्यादि विषय उक्त अवयवों को सन्मार्ग पर चलाने में सहायता देने के लिए होते हैं। स्वतः ये शिक्षा में किसी प्रकार का योगदान नहीं करते ।
ज्ञान-विज्ञान मन, बुद्धि और जीवात्मा को ठीक मार्ग पर ले जाने में सहायक तो हो सकता है, परन्तु यथार्थ ज्ञान और विज्ञान से तकनीकी शिक्षा ज्ञान-विज्ञान नहीं कहाती। तकनीकी शिक्षा वास्तव में ज्ञान से पेशा कराना है, जैसे किसी स्त्री से वेश्यावृति कराना। स्त्री कर्म का उचित उद्देश्य से भी होता है, परन्तु यही कर्म वेश्यावृत्ति भी हो सकता है, जबकि इसके वास्तविक प्रयोग को छोड़कर इसे धनोपार्जन का साधन बना लिया जाए। ठीक यही बात ज्ञान-विज्ञान में तकनीकी ज्ञान की है। ज्ञान-विज्ञान का धर्मयुक्त प्रयोग भी है, परन्तु जब वासना-तृप्ति के लिए इस ज्ञान- विज्ञान की प्राप्ति का प्रयोग किया जाए तो यह वेश्यावृत्ति के समान हो जाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि तकनीकी उन्नति जीवन को सुखमय बनाने के लिए वेश्यावृत्ति है, परन्तु यदि जीवन के धर्मयुक्त कार्यों में सहायता के लिए इसका प्रयोग किया जाए तो यह सत्ती-साध्वी महिला के व्यवहार के समान हो जायेगा । शिक्षा में ज्ञान-विज्ञानं के योगदान का अभिप्राय यह है कि प्राणियों, वस्तुओं और प्राकृतिक शक्तियों का वास्तविक ज्ञान प्राप्त किया जाए और उस ज्ञान का उपयोग जीवन की आवश्यकताओं को व्यवहार में लाने के लिए हो।
ध्यातव्य है कि मन शिव संकल्प करने वाला हो, बुद्धि को प्रबल युक्ति करने योग्य बनाने से और जीवात्मा का विवेक पूर्ण स्वभाव बनाने से मन की चंचलता को स्थिर बनाया जा सकता है। साहित्य, कला और व्यवहार सब शिक्षा के अनुरूप होनी चाहिए, इस कार्य से जाति अथवा राष्ट्र के अस्तित्व की रक्षा हो सकती है। इस महती कार्य के लिए सर्वप्रथम योग्य शिक्षकों को तैयार करने के पश्चात इसी में मन्दिरों, सभा स्थलों,धर्मिक पर्वों, जातीय अथवा राष्ट्रीय महापुरुषों के जीवन चरित्रों तथा उनके मतों के मानने अथवा न मानने का उपयोग शामिल है। भारतीय राष्ट्र के घटकों अर्थात देश के बहुसंख्यक समाज को उसकी वर्तमान पतितावस्था से निकालने के लिए प्रथम कर्म है इसके धार्मिक स्थलों, प्रतीक स्थलों, धार्मिक पर्वों, जातीय अथवा राष्ट्रीय महापुरुषों की कृतियों और लेखों तथा उनके जीवन से सम्बंधित स्थानों का पुनरूद्धार करना।
देश की वर्तमान अवस्था ऐसी हो गई है कि हम कोई भी व्यक्तिगत अथवा जातीय अर्थात सामाजिक-सामूहिक कार्य बिना राज्य की सहमति के कर ही नहीं सकते। यही कारण है कि विश्व हिन्दू परिषद, विराट हिन्दू समाज,हिन्दू जागृति संगठन एवं बहुसंख्यकों के अन्य संस्थाओं के अध्यक्षों को भारत सरकार के समक्ष यह याचना करनी पड़ती है कि देश के बहुसंख्यकों के जातीय एवं सामाजिक, धार्मिक पर्वों के आयोजनों के लिए अनुमति दी जाए अथवा उन अवसरों पर सरकारी अवकाश के दिनों में वृद्धि की जाए, परन्तु सरकार धर्मनिरपेक्ष अर्थात सेकुलर होने के साथ-साथ दूकानदार, ठेकेदार और व्यापार-वृत्ति वाली भी है। जब सरकार वर्ष के अवकाश के दिन न्यूनाधिक करती है तो, जब देश के बहुसंख्यक हिन्दुओं को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, या रामनवमी या फिर दशहरे की का अवकाश दिया जाता है, तो उसकी ही भान्ति मुसलमानों, ईसाईयों, पारसियों, बौद्धों, जैनों आदि- आदि के किस-किस पर्व पर अवकाश में वृद्धि की जा सकती है, इस पर विचार करने लगती है , और हाल के वर्षों में तो हिन्दुओं के पर्वों में अवकाश को न्यून कर दिया गया है और दूसरी ओर अल्पसंख्यकों की अवकाश में वृद्धि कर दी गई है।
एक ओर तो सरकार मुसलमानों को अतिरिक्त रूप से प्रत्येक शुक्रवार को आधा दिन और कुछेक मामलों में प्रतिदिन कार्यालय अवधि में तीन बार नमाज अदा करने के लिए अवकाश देती नजर आती है और दूसरी ओर सरकार अपने कर्मचारियों के एक-एक घंटे के अवकाश के विषय में भी विचार करती है कि इससे कितनी आर्थिक हानि होने की सम्भावना है? सरकार यह भी अनुभव करती है कि जातीय अथवा राष्ट्रीय जीवन में एक भी अवकाश का दिन बढाने पर राष्ट्रीय आय में कितनी कमी होगी अथवा सरकार इस बात का विचार करने और निर्णय लेने में एक सौ एक बाधाएं देखती हैंl कारण स्पष्ट है कि सरकार एक दूकानदार, भिन्न-भिन्न समाजों की पत्नी और सबसे बड़ी बात यह है कि पत्नी बने रहने की लालसा में जोड़-तोड़ लगाने वाली चतुर नारी का रूप ग्रहण कर चुकी है। वस्तुतः प्रजातांत्रिक सरकार तो वेश्या के समान ही होती है। ऐसी प्रजातांत्रिक सरकार पर उस पति का आतंक होता है जो सर्वाधिक आक्रान्त और उत्पात मचाने की क्षमता रखता है। यह है वर्तमान प्रजातांत्रिक पद्धत्ति का स्वरुप। इसलिए होना यह चाहिए कि जातीय अथवा राष्ट्रीय निर्माण-कार्यों को इस प्रजातांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष अर्थात सेकुलर और दूकानदार सरकार से स्वतंत्र किया जाए। व्यक्तिगत अथवा जातीय, सामूहिक, धार्मिक आयोजन अथवा समारोह आयोजित किये जाएँ अथवा नहीं या फिर जातीय अथवा सामजिक धार्मिक पर्व के दिन सरकारी कार्य चलेगा अथवा नही, इसका निर्णय यह वेश्या सरकार नहीं कर सकती। इसका निर्णय करने का अधिकार जातीय, धार्मिक एवं बौद्धिक नेताओं को दिया जाना चाहिएl उनके निर्णय से सरकार को यदि किसी प्रकार कि असुविधा हो तो सरकार को चाहिए कि वह उन नेताओं से सम्पर्क स्थापित कर अपनी असुविधा का बखान करे और उसे दूर करने का निवेदन करे न कि विश्व हिन्दू परिषद, विराट हिन्दू सम्मलेन, हिन्दू जागृति संगठन, हिन्दू जागरण मंच अथवा किसी भी हिन्दुत्ववादी संगठन के नेता सरकार से आग्रह करें।
पुरातन भारतीय ग्रंथों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि जातीय अथवा धार्मिक निर्माण कार्य राजनीतिक कार्य नहीं हैं । जाति के हिताहित कार्य को छद्म धर्मनिरपेक्ष अर्थात सेकुलर, व्यापारी, दूकानदार, कारखानेदार अथवा मूर्खों, अनपढों के मतों की भिक्षा मांगने वालों के हाथों में सौंपना उचित नहीं समझा जा सकता। जातीय निर्माण अर्थात राष्ट्रोत्थान के कार्यों के लिए राष्ट्र के सभी घटकों के मन बुद्धि और जीवात्मा के सुशिक्षित कर्मों से सुसंपन्न होना आवश्यक है और उनको ठीक दिशा देने के लिए एक ऐसा सामाजिक संस्था होना चाहिए जो स्वयं धर्म निरपेक्ष, सबसे बड़े सेवकों की स्वामी,सबसे अधिक धनोपार्जन का संयंत्र और अनपढ़, सामान्य बुद्धि, आचार-विचार के लोगों के मत से प्रभावित न हो। इसका अभिप्राय यह है कि शिक्षा, धर्मस्थान, समाजों और जातीय धार्मिक पर्वों का प्रबंध विद्वानों के अधीन होना चाहिए।
समाज में किसी एक सम्प्रदाय के लिये कोई प्रयास अथवा उपाय नहीं कर बहुसंख्यक समाज के जागृति और समुन्नयन के लिये करना उत्तम होगा। भारतीय समाज में अनेक मत-मतान्तर हैं। इसमें यह आवश्यक है कि बहुसंख्यक समाज की साँझी मान्यताओं का विरोध कहीं नहीं हो। साँझी मान्यताओं के समर्थन के साथ अपने-अपने इष्टदेव तथा सम्प्रदाय की बात भी होती रहेl इस्लाम और ईसाईयत के अनुयायियों की बात तो हम नहीं करते लेकिन हिन्दू समाज से इसका विरोध नहीं हो सकता क्योंकि हिन्दुओं के सब सम्प्रदाय वेदमूलक हैंl इस प्रकार यह स्पष्ट है कि मन, बुद्धि और आत्मा सम्बन्धी शिक्षा पूर्णरूप से देश के राज्य से असम्बद्ध होना ही राष्ट्र के लिये श्रेयस्कर होगाl