देख दशा यह बुढिय़ा की, अब अपनी तबियत घबराती।
चलने की तैयारी कर ले, कहती मौत निकट आती।

राजा, ऋषि, योगी ना छोड़े, तेरी तो क्या हस्ती है।
सृजन को दूं बदल विनाश में, मेरी तो ये मस्ती है।

हर बसर के कर्म का, रखती हूं मैं लेखा।
निकट है काल की रेखा।

देखा अगणित कलियों को, जो बदल गयी थी फूल में,
मुरझाती है मिट जाती है, मिल जाती है धूल में।

सोचा चलना है, नही रहना, व्यर्थ पड़ा हूं भूल में।
परिवर्तन और विवर्तन का क्रम, इस सृष्टि के मूल में।

मुझे अचंभा होता है, जब शाख की कलियां हंसती हैं।
भूल रही है अंतिम हश्र को, और आवाजें कसती हैं।

सोच रही सौंदर्य हमारा, ऐसा ही रह जाएगा।
मंडराएंगे अलि कली पर, निष्ठुर काल न आएगा।

अरी भूल में पड़ी कली तू, क्यों ज्यादा
मदमाती है?
कौन बचा है? कौन बचेगा? मृत्यु सब को खाती है।

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