मानसून की अस्थिरता के कारण सूखे की आशंका
प्राकृतिक अर्थात मौसमीय मार सिर्फ किसानों को नहीं वरन समस्त देश अथवा संसार को रूलाने की क्षमता रखती है और समय-समय पर इसने सबों को रूलाया भी है ।यह एक सर्वविदित तथ्य है कि कभी सूखा, कभी बाढ़ और अन्य प्राकृतिक आपदायें न केवल फसलों को क्षति पहुँचाते है, बल्कि गाँव के गाँव और शहर के शहर को उजाड़ देते हैं और गाँव, शहर, राज्य और देश की अर्थव्यवस्था की तस्वीर ही बिगाड़ देते हैं। जब प्रतिवर्ष एक ही स्थान पर सूखा अथवा बाढ़ आती है और सरकार उसके निदान के लिए कोई सार्थक और प्रभावी पहल नहीं करती तो सम्बंधित क्षेत्र के समाज की वह क्षति अर्थात नुकसान स्थायी हो जाता है ।इस वर्ष अभी तक देश में भीषण गर्मी का दौर जारी है और देश में सामान्य से कम वर्षा होने अर्थात मानसून की अस्थिरता के कारण सूखे की आशंका व्यक्त की जा रही है। एक ओर जहाँ सूर्यदेव भीषण अग्नि बरसा रहे हैं, वहीं मानसून को लेकर बेचैनी मायूसी में तब्दील होती जा रही है। पन्द्रह जून तक देश में सर्वत्र मानसून आने के पूर्वानुमान ध्वस्त हो चुके हैं और अब जनता से लेकर सरकार के माथे तक पर चिन्ता के बल पडऩे आरम्भ हो गए हैं। कारण यह है कि अभी किसान गेहूँ व अन्य रवि की फसल में हुए नुकसान से उबरे भी नहीं हैं कि एक और बड़े खतरे की चेतावनी आ गई है। भारतीय मौसम विभाग ने इस वर्ष मानसून सामान्य से कम रहने की आशंका जतलाई है। मौसम विभाग के इस वर्ष के प्रथम पूर्वानुमान के मुताबिक लम्बी अवधि के औसत के अनुसार मानसून के दौरान औसत की 93 फीसदी बारिश होगी। जो सामान्य से कम है। परिपाटी के अनुसार दूसरा पूर्वानुमान जून में होता है, जो काफी सटीक होता है। मौसम विभाग ने 2014 के अपने पहले अनुमान में मानसून के सामान्य से 95 फीसदी रहने का अनुमान लगाया था, लेकिन बारिश 88 फीसदी ही हुई थी।बांग्लादेश में सम्पन्न साउथ एशियन क्लामेट फोरकॉस्ट की बैठक के निष्कर्षों में भी दक्षिण एशिया में मानसून सामान्य से कम रहने की बात बतलाई गई है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद नई दिल्ली की निदेशक डॉ रविन्द्र कौर ने बतलाया कि बैठक में नतीजा निकला कि दक्षिण एशिया में मानसून सामान्य से कम रहेगा, और इस बार अल-नीनो का प्रभाव पडऩे की आशंका ज्यादा है ।मौसम विज्ञान के अनुसार प्रशान्त महासागर क्षेत्र में अलनीनो का प्रभाव इस बार दक्षिण एशिया के देशों में भारत, पाकिस्तान व श्रीलंका में वर्षा को बिगाड़ सकता है और आशंका है कि सूखे की स्थिति खेती में आ सकती है.। इस बीच एक अमेरिकी एजेंसी एक्यूवेदर ने भी भारत में भीषण सूखा पडऩे की आशंका जताई है। एजेंसी का आकलन है कि प्रशांत महासागर में बन रही परिस्थितियों के चलते इस बार मानसून कमजोर रहेगा। महासागर से कई बड़े तूफान उठने वाले हैं जो मानसून को भटका देंगे। इसका असर न केवल भारत बल्कि पाकिस्तान पर भी पड़ेगा।
मौसम विभाग का कहना है कि मानसून सामान्य से कम रहने का सर्वाधिक असर देश के उत्तरी, पश्चिमी और मध्य भारत की कृषि पर पड़ेगा, लेकिन आगे होने वाली कम वर्षा को ध्यान में रखते हुए किसान इसके अनुरूप खेती की तैयारी कर सकते हैं। समस्या के त्वरित निदान के लिए वैज्ञानिकों की सलाह है कि ऐसे में किसान कम समय में पैदा होने वाली धान की फसलें लगायें और फसलोपज में होने वाली क्षति को कम करने की कोशिश करें, परन्तु देश के कृषि परम्परा के जानकार अनुमान व्यक्त करने लगे हैं कि कम बारिश के अनुमान की वजह से सम्भव है कि इस साल धान की फसल की बुआई ही कम हो। ऐसे लोगों का कहना है कि भले ही केन्द्र व राज्य सरकारें मौसम की मार से निपटने के लिए युद्धस्तर पर तैयारी कर रही है,लेकिन खराब मानसून की आशंका का ढिंढोरा पीटने से इसका सीधा खराब असर देश के किसानों के मन:स्थिति, मनोदशा व मनोविज्ञान पर हुआ है और किसानों के साथ ही देश की जनता में घबराहट बनी हुई है। किसान कम वारिश की स्थिति में जान-बुझकर धान की बुआई का जोखिम क्यों लेगा?
उल्लेखनीय है कि केन्द्र सरकार के द्वारा मौसम की मार से निपटने के लिए युद्धस्तर पर की जाने वाली तैयारियों के मद्देनजर आर्थिक मामलों की कैबिनेट कमेटी ने अकेले चीनी मिल मालिकों के लिए छह हजार करोड़ रुपए के ब्याज मुक्त कर्ज का ऐलान और अनाजों की जमाखोरी रोकने और जरूरी अनाजों का आयात बढ़ाने का भी फैसला किया है। परन्तु प्रश्न उत्पन्न होता है कि मौसम की मार से निपटने की जो तैयारी सरकार के स्तर से की गई है, उसका देश के किसानों को क्या फायदा होगा, और होगा तो कितना होगा? क्या देश का किसान इस भरोसे में, विश्वास में आ गया है कि सरकार उसका ख्याल रख रही है और अगर इस वर्ष भी मानसून ने धोखा दिया तब भी उनके सामने कोई संकट नहीं आएगा? दरअसल किसान इस बार पूर्व की वर्षों के अपेक्षा ज्यादा आशंकित हैं। कारण यह है कि इस बार खराब मानसून होने का हल्ला समय के पूर्व ही आरम्भ हुआ है और घर-घर तक पहुँच गया है। चौबीसों घंटे चलने वाले खबरिया चैनलों तथा हाल में केन्द्र सरकार के द्वारा शुरू किए गये किसान चैनल से लोगों को सारी सूचनायें शीघ्रातिशीघ्र मिल रहीं हैं और देश की जनता के कान यह सुन-सुन कर पक चुके हैं कि मानसून की रफ्तार बहुत धीमी है और यह तेजी से आगे नहीं बढ़ रहा है। मानसून की अस्थिरता के कारण किसान खरीफ की फसल को लेकर आशंका में है और कयाश लगाया जा रहा है कि कम बारिश के अनुमान की वजह से इस वर्ष धान की फसल की बुवाई करने का जोखिम उठाने की कोशिश नहीं करेगा।
ध्यातव्य है कि है धान की सर्वाधिक खेती उत्तर, पूर्वी और मध्य भारत के राज्यों में अधिक होती है और इन्हीं राज्यों में बारिश कम होने का अनुमान जतलाया गया है। किसानों को पता है कि अगर बारिश कम होगी तो उनके पास सिंचाई का दूसरा साधन उपलब्ध नहीं है। वैकल्पिक साधन इतना महँगा है कि हर किसान उसका इस्तेमाल नहीं कर सकता। इसलिए बुआई की क्षेत्रफल घट सकती है। जो किसान बुआई करेंगे उनकी भी निर्भरता मानसून की वर्षा पर ही होगी। हालाँकि सरकार यह भरोसा दिला रही है कि कम बारिश हुई तो वैकल्पिक साधनों से सिंचाई करने में सरकार किसानों की मदद करेगी। किसानों के लिए बिजली और डीजल की अलग सब्सिडी पर भी विचार हो सकता है। सरकार की सक्रियता और तैयारियों से किसानों को इतना भरोसा मिला है कि उन्हें खाद, बीज समय पर मिल जाएगा। हो सकता है कि कर्ज भी थोड़ी आसानी से मिल जाए और बीमा रकम के दावे का निपटारा भी जल्दी हो। सरकार जरूरी अनाज आयात करने वाली है, ताकि अनाज की कमी देश में पैदा न हो। चूँकि रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने मौसम विभाग के हवाले से ही कहा है कि कम बारिश के बाद महँगाई बढ़ सकती है इसलिए सरकार को कीमतों की भी चिन्ता करनी है। खराब मानसून की वजह देश के अर्थव्यवस्था पर भी बुरा असर पडऩे की संभावना है। ऐसे में सिर्फ भारतीय मौसम विभाग के इस वक्तव्य से उम्मीद जगती है जिसमें कहा गया है कि जब पिछले वर्ष 12 फीसदी कम बारिश हुई थी तो हालात को सम्भाल लिया गया था, तब इस वर्ष भी ऐसा किया जा सकता है। किन्तु भावी सूखे की हालात को देखते हुए सरकार एवं अन्य संस्थाओं को अभी से ही भविष्य की रणनीति बनानी शुरू कर देनी चाहिए वरना सूखे से हालात और बुरे हो सकते हैं। जनता को भी भविष्य के अनुमानित खतरे को भांपते हुए जल संचय करना चाहिए और अपने आस-पास पर्यावरण संरक्षण के कार्य को बढ़ावा देना चाहिए ताकि इस सम्भावित सूखे की स्थिति से निपटा जा सके। इस समय सूखे की आशंका के मध्य कच्चे तेल के दाम भी बढ़ रहे हैं। जिससे अर्थव्यवस्था पर दोहरी मार पड़ेगी और जनता बेहाल हो जाएगी।
इस स्थिति के त्वरित निदान के साथ ही इनका स्थायी समाधान का प्रबन्ध भी होना चाहिए, ताकि ऐसी प्राकृतिक विपदायें फसल के साथ ही जान-माल को ज्यादा नुकसान न पहुँचा पायें। भूकम्प, सूखा, बाढ़, सुनामी, कटरीना आदि प्राकृतिक आपदायें कई बार इतनी विकराल होती हैं कि संसार की कोई भी शक्ति अथवा सरकार उनका मुकाबला नहीं कर सकती। नेपाल ही नहीं, चीन, जापान और अमरीका भी अकसर प्रकृति के प्रकोप के आगे बेबस नजर आते हैं, लेकिन नुकसान हो जाने के बाद की सक्रियता और राहत भी जनता में एक खास तरह का संदेश देती है। इसलिए सरकार को प्राकृतिक आपदाओं के दौरान उत्पन्न होने वाली सम्भावित खतरों से निपटने के लिए सदैव तत्पर रहना ही श्रेयस्कर है।