वेदों के नाम पर यज्ञों का आयोजन करके उसमें पशु बलि देना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं था, परंतु एक काल ऐसा आया था जब इस प्रकार का अत्याचार पशुओं पर निरंतर बढ़ता जा रहा था । मानवता और वेदों की मूल अवधारणा के विरुद्ध अपनाए जा रहे इस प्रकार के अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाने का काम उस समय महावीर स्वामी ने किया। वास्तव में उनकी यह क्रांति उस ब्राह्मणवादी सोच के विरुद्ध की गई क्रांति थी जो अपने आपको जातीय आधार पर श्रेष्ठ मानते थे और अन्य लोगों को हेय समझते थे। उनका ऐसा आचरण ईश्वरीय व्यवस्था के और वेदों में दी गई सामाजिक व्यवस्था के भी विरुद्ध था। इस प्रकार महावीर स्वामी ईश्वर की व्यवस्था को मानवतावादी दृष्टिकोण से विस्थापित करने वाले क्रांतिकारी थे।
महावीर स्वामी का जन्म अब से लगभग ढाई 4 वर्ष पहले चैत्रसुदी त्रयोदशी के दिन बिहार राज्य के वैशाली के कुंडग्राम में लिच्छवी वंश के क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ के यहां पर हुआ था।
वह मूल रूप में क्षत्रिय थे। क्षत्रिय होने के नाते उन्हें अपने पिता कर राज्य भी मिल जाना था, परंतु इसके उपरांत भी वह राज्य से अधिक मानवता की सेवा को प्राथमिकता देते थे । यही कारण था कि उन्होंने राज-पाट को त्यागकर वनों में जाकर साधना करने को प्राथमिकता दी। तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों के विरुद्ध विद्रोह की भावना उनके हृदय में बढ़ती चली गई। उन्होंने दीन हीन लोगों की सेवा करते हुए उन्हें सन्मार्ग दर्शन कराने को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। उस समय लिच्छवी वंश की दूर-दूर तक ख्याति थी । ऐसे महान राजपरिवार में जन्म लेना बड़े सौभाग्य की बात थी, परंतु जिसके भीतर कुछ दूसरे प्रकार की आग लगी होती है, उसे राजपाट बहुत छोटी चीज दिखाई देने लगती है और यही महावीर स्वामी के साथ हो रहा था। उन्होंने ऐश्वर्य के जीवन को त्यागकर सन्यासी भाव से जीवन जीते हुए सार्थक जीवन की साधना को अपने लिए उचित माना।
बाल्यावस्था में महावीर स्वामी का नाम वर्धमान रखा गया था। माता पिता को उनसे यह अपेक्षा थी कि वह राज्य की वृद्धि के कीर्तिमान स्थापित करेंगे और उनके यश को दूर-दूर तक फैलाएंगे । यद्यपि वर्धमान से महावीर बने उस महामानव ने ऐसा करके भी दिखाया । परंतु वह माता और पिता की अपेक्षाओं के कहीं विपरीत था। उनका वह सार्थक जीवन संसार के लिए बहुत उपयोगी हुआ।
किशोरावस्था में आते ही उन्होंने अपनी वीरता का प्रदर्शन करना भी आरंभ कर दिया। उनके जीवन में कई ऐसी घटनाएं घटित हुईं जिनको देखकर लगता है कि वह एक सच्चे क्षत्रिय भी थे । उनका पराक्रमी और शौर्य संपन्न व्यक्तित्व लोगों को प्रभावित करने लगा था। किशोरावस्था में एक बड़े सांप तथा मदमस्त हाथी को वश में कर लेने के कारण लोगों ने उनको महावीर का नाम दिया था। संसार की असारता और संसार के सुखों को दुखों का पर्याय मानकर उनका मन सांसारिक विषय भोग में नहीं लगता था। उनका चिंतन कहीं ना कहीं उस परमानंद की खोज में भटकता रहता था, जिसे मानव जीवन में प्राप्त कर लेना सबसे बड़ा उद्देश्य होता है।
माता पिता ने अपने पुत्र की मानसिकता को समझ लिया था। इसलिए उन्होंने उन्हें सांसारिक विषयों में बांधना उचित समझा। यही कारण था कि पिता ने उनके विवाह की तैयारी कर ली। उनका विवाह एक सुन्दरी राजकुमारी से किया गया। माता-पिता की इच्छा के समक्ष तो महावीर स्वामी ने कुछ नहीं कहा, परंतु वह अपनी परमसुंदरी पत्नी के सौंदर्य में भी भटके नहीं। वे निरंतर अपनी साधना की गति को ऊंचा करने में लगे रहे ।
यह महापुरुषों की पहचान होती है कि वह संसार के आकर्षण से अपने आपको हटाने में सफल हो जाते हैं। महावीर स्वामी भी संसार के किसी आकर्षण में फंसना नहीं चाहते थे। उन्होंने प्रत्येक प्रकार के आकर्षण को पराजित करने का संकल्प लिया।
जब उनके पिताजी का निधन हुआ तो उनका मन और भी अधिक वैराग्य में डूब गया। फलस्वरूप उन्होंने संसार से वैराग्य के मार्ग को अपने लिए चुन लिया।
अपने ज्येष्ठ भाई नन्दिवर्धन के आग्रह पर महावीर स्वामी ने दो वर्ष और किसी प्रकार अपने गृहस्थ जीवन में व्यतीत कर दिए। यद्यपि अब उन्होंने अपने जीवन को दान दक्षिणा जैसे पुण्य कार्यों में व्यतीत करना आरंभ किया । इसमें उन्हें अति आनंद की अनुभूति होती थी । अपने इस आनंद की वृद्धि में वह निरंतर लगे रहे। जिसमें उनके परिवार वालों ने भी किसी प्रकार का अवरोध उत्पन्न नहीं किया। जब उनकी अवस्था लगभग 30 वर्ष की हुई तो उनके भीतर के वैराग्य-भाव ने उन्हें घर छोड़ने के लिए विवश कर दिया । इसलिए वे घर बार कुटुंब और संबंधियों को छोड़कर साधु बन गए।
एकांत व शान्त स्थानों में जाकर उन्होंने तपस्या के मार्ग को अपना लिया। इसी को विद्वान लोग आत्मशुद्धि कहते हैं। आत्म शुद्धि के मार्ग पर बढ़े महावीर स्वामी अब संसार से पूर्णतः विरक्त हो चुके थे। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात उन्होंने संसार के उद्धार के लिए लोगों को समझाना आरंभ किया। उन्होंने लोगों को धर्म के वास्तविक स्वरूप से परिचित कराना आरंभ किया। उनकी शिक्षाओं ने लोगों पर अपना प्रभाव दिखाना आरंभ कर दिया था। उसी का परिणाम था कि उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी थी। यही कारण था कि बड़ी संख्या में लोग उनके शिष्य बनने लगे।
महावीर स्वामी ने मानव के जीवन का अंतिम उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति को स्वीकार किया है । अपने ज्ञान किरणों के द्वारा महावीर स्वामी ने जैन धर्म का प्रवर्तन किया। इस धर्म के पांच मुख्य सिद्धान्त हैं-सत्य, अहिंसा, चोरी न करना, आवश्यकता से अधिक संग्रह न करना और जीवन में शुद्धिकरण। उनका कहना था कि इन पांचों सिद्धांतों पर चलकर ही मनुष्य मोक्ष या निर्वाण प्राप्त कर सकता है। उन्होंने सभी से इस पथ पर चलने का ज्ञानोपदेश दिया। उन्होंने छुआछूत व भेदभाव आदि को मानवता के विरुद्ध अपराध माना।भगवान महावीर स्वामी जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थकर के रूप में आज भी सश्रद्धा और ससम्मान पूज्य और आराध्य हैं।
यद्यपि उनकी मृत्यु 72 वर्ष की आयु में कार्तिक मास की आमावस्या को पापापुर नामक स्थान पर बिहार राज्य में हुई।
आज हम सभी उनकी शिक्षाओं का आनंद लेकर संसार में शांति स्थापित कर सकते हैं मैं यहां पर यह भी कहना उचित मानूँगा कि हमें अपने महापुरुषों के जीवन से प्रेरणा ही ग्रहण करनी चाहिए। उनको लेकर किसी प्रकार के वाद विवाद में नहीं पड़ना चाहिए। यद्यपि तार्किक दृष्टिकोण से शिक्षाओं पर शास्त्रार्थ करना बहुत उचित है, परंतु वह भी किसी महापुरुष को अपमानित करने की सीमा तक नहीं जाना चाहिए।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत