हमें समझने होंगे ग्लोबल वार्मिंग संकट के सबक
रवि शंकर
जलवायु परिवर्तन को लेकर भारत के लोग बाकी दुनिया खासकर धनी देशों के मुकाबले अधिक सजग और चिंतित हैं। इस मामले में भारतीय अपने पड़ोसी देशों चीन और पाकिस्तान से अधिक जागरूक हैं। इस बात की पुष्टि संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क संधि (यूएनएफसीसीसी) की पहल पर हुए एक विश्वव्यापी सर्वेक्षण में हुई है। इस सर्वे के अनुसार दुनियाभर में 78.53 प्रतिशत लोग जलवायु परिवर्तन को लेकर बेहद चिंतित हैं जबकि भारत में यह आंकड़ा 83.65 प्रतिशत है। दूसरी ओर दुनिया के सात धनी और विकसित देशों कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान, ब्रिटेन और अमेरिका (जी-7) में 73.59 प्रतिशत ही लोग जलवायु परिवर्तन को लेकर बेहद चिंतित हैं। सबसे चौंकाने वाला तथ्य यह है कि चीन में मात्र 32 प्रतिशत लोग ही जलवायु परिवर्तन को लेकर अधिक चिंतित हैं, वहीं पाकिस्तान में ऐसे लोगों का प्रतिशत 68 है।
करीब एक साथ 75 देशों में हुआ है यह विश्वव्यापी सर्वेक्षण। इस साल दिसंबर में फ्रांस की राजधानी पेरिस में होने वाले संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन से ठीक पहले दुनिया भर में नागरिकों से परामर्श की अब तक की यह सबसे बड़ी कवायद है। इसी माह छह जून को हुए इस सर्वे में शामिल लोगों में से 78 प्रतिशत ने कहा कि उच्च आय वाले देशों को निम्न आय वाले देशों में जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिए 2020 तक सालाना 100 अरब डालर की तुलना में अधिक धनराशि देनी चाहिए, जिसका उपयोग अल्प-विकसित और विकासशील देशों में प्रदूषण को कम करने के उपायों पर खर्च में किया जा सकेगा।
इससे भी अधिक इस बात की आवश्यकता है कि जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न वित्तपोषण की चुनौती को हरित अर्थव्यवस्था और सतत विकास के व्यापक संदर्भ में देखा जाए। तकरीबन 90 प्रतिशत से अधिक लोगों ने कहा कि पेरिस में जो समझौता होने जा रहा है, उसमें इस सदी के अंत तक जीरो उत्सर्जन का लक्ष्य तय किया जाना चाहिए।
बहरहाल, जर्मनी के बवेरिया आल्प्स में जी-7 समूह के नेताओं ने वैश्विक स्तर पर इस शताब्दी के अंत तक ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन आधा करने का संकल्प लिया। पेरिस में इस साल के अंत में होने वाले संयुक्त राष्ट्र के जलवायु सम्मेलन से पहले इस ऐलान को काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। मालूम हो कि 2015 में पेरिस में होने वाला समझौता 2020 से प्रभावी होगा। बहरहाल, अब नए समझौते की मूल बात यह है कि इसमें जलवायु परिवर्तन से निपटने की जिम्मेदारी सभी देशों पर डाल दी गई है। गौरतलब है कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में चीन शीर्ष पर है। अमेरिका दूसरे और भारत तीसरे नंबर पर है। असल में जलवायु परिवर्तन एक ऐसा मुद्दा है जो पूरी दुनिया के लिए चिन्ता की बात है और इसे बिना आपसी सहमति और ईमानदार प्रयास के हल नहीं किया जा सकता।
जी-7 के नेताओं ने ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए गरीब देशों को संसाधन और पैसा मुहैया कराने की बात भी कही है। गौर करने वाली बात यह है कि ब्रिटेन, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान और अमेरिका में दुनिया की महज 10 फीसदी आबादी रहती है, लेकिन एक चौथाई ग्रीन हाउस का ये देश उत्सर्जन करते हैं। हालांकि दुनिया में सबसे ज्यादा प्रदूषण पैदा करने वाला चीन इस समूह का सदस्य नहीं है। वहीं भारत, रूस और ब्राजील जैसे ग्रीन हाउस का उत्सर्जन करने वाले देश भी इस समूह का हिस्सा नहीं हैं। ऐसे में वैश्विक स्तर पर इसे अंजाम देने के लिए समूह को अभी लंबा सफर तय करना होगा। जी-7 का दो दिवसीय सम्मेलन इसी माह 7 जून को शुरू हुआ था, जिसमें अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन, जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल मौजूद थे।
जलवायु परिवर्तन आज पृथ्वी के लिए सबसे बड़ा संकट बन गया है। इसको लेकर कई तरह की नकारात्मक भविष्यवाणियां भी की जा चुकी हैं। ज्यादातर ऐसे शोर पश्चिमी देशों से ही उठते रहे हैं, जिन्होंने अपने विकास के लिए न जाने प्रकृति के विरुद्ध कितने ही कदम उठाये हैं और लगातार उठ ही रहे हैं। आज भी कार्बन डाईआक्साइड उत्सर्जन करने वाले देशों में 70 प्रतिशत हिस्सा पश्चिमी देशों का ही है जो विकास की अंधी दौड़ का परिणाम है।
जाहिर है, आज धरती पर हो रहे जलवायु परिवर्तन के लिये जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि समस्त मानव जाति है। भारत को विश्व में सातवें सबसे अधिक पर्यावरण की दृष्टि से खतरनाक देश के रूप में स्थान दिया गया है। वायु शुद्धता का स्तर, भारत के मेट्रो शहरों में पिछले 20 वर्षों में बहुत ही खऱाब रहा है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार हर साल 24 करोड़ लोग खतरनाक प्रदूषण के कारण मर जाते हैं। पूर्व में भी वायु प्रदुषण को रोकने के अनेक प्रयास किये जाते रहे हैं पर प्रदूषण निरंतर बढ़ता ही रहा है।
हालांकि भारत चाहता है कि ‘हरित जलवायु कोष’ (त्रष्टस्न) की राशि से पर्यावरण की सुरक्षा के अनुकूल ऊर्जा के अपारंपरिक साधनों-जैसे सौर, पवन और अणु ऊर्जा की टेक्नोलोजी विकासशील देशों को सस्ते दामों पर मुहैया करवाई जाएं। भारत के पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने बल देकर कहा कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए उठाये जाने वाले हर कदम पर खर्च आता है और वे अमीर देश जो गत पचास सालों से प्रदूषण फैला रहे थे, अब इस खर्च की भरपाई करें। उल्लेखनीय है कि भारत की तरह चीन भी अमेरिका और पश्चिमी देशों के दबाव का शिकार बना है। उल्लेखनीय है 196 देशों के बॉन सम्मलेन में भारत और चीन ने साथ मिलकर काम करने का फैसला किया है।
असल में जलवायु परिवर्तन एक ऐसा मुद्दा है जो पूरी दुनिया के लिए चिन्ता की बात है और इसे बिना आपसी सहमति और ईमानदार प्रयास के हल नहीं किया जा सकता है। भूमण्डलीकरण के कारण आज पूरा विश्व एक विश्वग्राम में तबदील हो चुका है। ऐसे में कोई भी प्रगति एवं विनाश के अवसर मनुष्य के लिये साझा है। बहरहाल, ग्लोबल वार्मिंग के खतरे को राजनीतिक चश्मे से देखना बंद करना होगा। पर्यावरण पर एक ताज़ा रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया भर में 1950 से लेकर अब तक 95 फीसदी ग्लोबल वॉर्मिंग के लिए इनसान ही जि़म्मेदार है। इसको 21वीं शताब्दी का सबसे बड़ा खतरा बताया जा रहा है। पूरी दुनिया इससे प्रभावित हो रही है। अगर इसे नहीं संभाला गया तो यह किसी विश्वयुद्ध से ज्यादा जान-माल की हानि कर सकता है।