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कई इतिहासकारों ने कश्मीर को हिंदू और बौद्ध संस्कृतियों का पालना कहा है। उनके ऐसा कहने पर हमारी असहमति है। हमारी असहमति का कारण यह है कि हिंदू और बौद्ध कोई अलग – अलग दो चीजें नहीं हैं। इन दोनों के पूर्वज एक हैं। इन दोनों का मातृभूमि के प्रति दृष्टिकोण भी एक है। इन दोनों का मूल पूर्वज वैदिक धर्म है। शाखाओं को कभी भी पूर्ण नहीं माना जा सकता । जब तक उनकी जड़ का अस्तित्व है वे तब तक ही फूलती – फलती दिखाई देती हैं। चीजों के प्रति दृष्टिकोण का थोड़ा थोड़ा सा अंतर है, जिसे कहीं मतभेद होने के उपरांत भी दोनों बड़ी सहजता से समायोजित कर लेते हैं।
जो लोग कश्मीर को हिंदू और बौद्ध संस्कृतियों का पालना कहते हैं वह पेड़ की शाखाओं के अस्तित्व को मानकर जड़ के अस्तित्व को नकारने का बेईमानी पूर्ण कृत्य करते हैं, जो न तो तार्किक है और ना ही बुद्धिसंगत है। प्रकृति और सृष्टि नियमों के विरुद्ध होने से हिंदू और बौद्ध नामक दो तथाकथित संस्कृतियों को अलग-अलग मानने का यह सिद्धांत पूर्णतया अमान्य है। ऐसे इतिहासकारों की ऐसी मान्यताओं को अथवा बेईमानी पूर्ण कृत्यों को एक ‘मीठी शरारत’ के रूप में हमें देखना चाहिए। हम इन्हें ‘मीठी शरारत’ इसलिए कह रहे हैं कि उनके इस प्रकार के कृत्य या कथन से ऐसा लगता है कि जैसे कश्मीर का वैदिक कालीन कोई इतिहास नहीं है और जब भारत में कथित रूप से हिंदू और बौद्ध अलग-अलग मान्यताओं को लेकर लड़ रहे थे तब कश्मीर का इतिहास आरंभ होता है।

वैदिक संस्कृति का मूल आचरण

संपूर्ण भारतवर्ष के विषय में हमें समझना चाहिए कि वैदिक काल में सारे भारतवर्ष में एक जैसी मान्यताएं लागू थीं। एक दिशा में सोचना, एक दिशा में आगे बढ़ना और एक होकर शत्रु के विरुद्ध खड़े हो जाना – यह भारत की संस्कृति का मूल आचरण था । धीरे – धीरे जब आर्य मान्यताओं में घुन लगने लगा तो विदेशी आक्रमणकारियों को भारत पर आक्रमण करने का अवसर प्राप्त हुआ। जिसका एक अलग इतिहास है। पराभव के इस काल में भारत में तेजी से विभिन्नताएं उत्पन्न हुईं। ये सारी विभिन्नताएं भाषा ,क्षेत्र व संप्रदाय के नाम पर उत्पन्न हुई थीं। इन विभिन्नताओं को लोगों ने कभी अपने स्वार्थवश तो कभी-कभी अज्ञानतावश पालित व पोषित करने का क्रम आरंभ किया। जिसका परिणाम यह हुआ कि भारत में तथाकथित रूप से विभिन्न संस्कृतियों के होने की कल्पना की गई। इन विभिन्नताओं को या विविधताओं को विदेशी शत्रु लेखकों ने हवा देने का कार्य किया।
उसी मूर्खतापूर्ण अवधारणा को शब्द देते हुए कुछ लोग कश्मीर को हिंदू और बौद्ध संस्कृतियों का पालना कह देते हैं। जो लोग ऐसा कहते हैं उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि मूल के प्रति सावधान और समर्पित रहकर विभिन्न शाखाएं यदि अपने अस्तित्व को बनाए रखती हैं तो यह मूल के अस्तित्व के लिए तो आवश्यक है ही उनके स्वयं के अस्तित्व के लिए भी आवश्यक है। इसका अभिप्राय उनका अलग-अलग हो जाना नहीं है। ‘एक’ के प्रति समर्पित होने से उनकी विभिन्नताओं को भी एक ही समझना चाहिए। हमारा मानना है कि भारतीय संस्कृति के संदर्भ में हमें विभिन्नताओं को नहीं खोजना है अपितु विभिन्नताओं के बीच ‘एक’ को खोजना है। उस ‘एक’ को समझकर सबको यह समझाना है कि तुम सब ‘एक’ हो । यदि तुम्हारे भीतर इस :एक’ से अन्यत्र किसी प्रकार का दोष आ गया है तो उसे दूर करो। यह तब और भी अधिक आवश्यक हो जाता है जब किसी के दोष से मूल के अस्तित्व के लिए संकट उत्पन्न हो रहा हो। ‘एक’ के प्रति विद्रोही या उपेक्षाभाव रखने वाले मत बनो। इसके विपरीत ‘एक’ के प्रति समर्पित होकर रहो। सब सब का सम्मान करते हुए सबके प्रति कर्तव्याचरण से बंधे रहो। इससे सामाजिक समरसता बनी रहेगी और राष्ट्र प्रगति व उन्नति को प्राप्त होगा।

प्राण तत्व की करनी है खोज

कहने का अभिप्राय है कि यदि भारत में अनेकता को खोजते – खोजते भारत के धर्म, भारत के प्राण तत्व, भारत के आत्मतत्व , भारत के आर्यत्व अर्थात भारत के हिंदुत्व को किसी भी प्रकार का संकट उपस्थित होता है या उसके अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगता है तो हमें उन तथाकथित अनेकताओं या विभिन्नताओं की दीवारों को गिराना ही होगा। हमें भारत के प्राण तत्व आर्यत्व अर्थात उसके धर्म और आज के संदर्भ में हिंदुत्व की खोज करनी है और उसके प्रति सभी को श्रद्धालु भी बना कर रखना है। क्योंकि यही वह तत्व है जो हम सबको एकता के सूत्र में बांधे रखने की क्षमता रखता है।
ऐसे में कश्मीर के संदर्भ में हमें प्रारंभ से ही यह मानसिकता बनाकर चलना चाहिए कि यह प्रदेश प्रारंभ से ही भारत के एकत्व के प्रति समर्पित रहा है। इसके संगीत ने एकत्व को ही प्राथमिकता और प्रमुखता दी है। आजकल इसे हिंदू और बौद्ध संस्कृतियों का पालना कहना या गंगा जमुनी संस्कृति का गीत गाने वाला कहना निश्चित रूप से भारत के एकत्व और एकतत्व को विस्मृति के गहन अंधकार में भेज देने का षड़यंत्रकारियों का एक षड़यंत्र मात्र है। जिसे समझने की आवश्यकता है। हमें यह समझ लेना चाहिए कि जैसे सारे ब्रह्मांड को गति देने में परमात्म-तत्व काम करता है और शरीर को आत्मतत्व गति देने का काम करता रहता है वैसे ही किसी राष्ट्र व समाज को भी उसका कोई एक प्राण तत्व वह गतिशीलता देने का काम करता रहता है। भारत में यह प्राण तत्व हमारे ऋषि मनीषियों ने धर्म के रूप में पहचाना। ऋषियों का चिंतन इतना गहन था कि उन्होंने व्यक्ति व्यक्ति का धर्म , वर्ग – वर्ग का धर्म और आश्रम – आश्रम का धर्म निर्धारित किया। वास्तव में यह धर्म कर्तव्य कर्म था, जो सबको सब के प्रति समर्पित रहने की शिक्षा देता था। इसी से आर्यत्व या वैदिक संस्कृति का निर्माण हुआ। जिसे आज के संदर्भ में कुछ लोग हिंदुत्व के रूप में स्थापित करते हैं। आज का हिंदुत्व भारत के धर्म और वैदिक संस्कृति के ‘वसुधैव कुटुंबकम’ के आदर्श पर आधारित है। इसलिए वैश्विक स्तर पर जाकर भारत का हिंदुत्व हिंदुत्व न रहकर विश्व धर्म बन जाता है।

डॉक्टर राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत

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