वीर हिन्दू नेता मानचंद
ऐसी परिस्थितियों में अलीगढ़ (कोल) के जरतौली गांव के जमींदारों ने एकहिन्दू वीर मानचंद को अपना नेता मानकर उसके नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। जब उन लोगों से शाही सेना का संघर्ष हुआ तो उन्होंने मुस्लिम सेनापति सिकंदर खां सूर के पुत्र उमर खां की हत्या कर दी। (इलियट खण्ड 5 पृष्ठ 86)
इस घटना काण्ड ने मानचंद्र के जीवन के लिए संकट उत्पन्न कर दिया, फलस्वरूप उसे और उसके साथी जमींदारों को इस कृत्य का दण्ड देने के लिए सुल्तान ने संभाल के हाकिम मलिक कासिम को जरतौली के लिए भेजा। उसने मानचंद और उसके साथी जमींदारों की सेना के साथ संघर्ष किया। उस संघर्ष में बहुत से हिंदुओं ने वीरगति प्राप्त की। मानचंद को भी इस युद्घ में वीरगति प्राप्त हो गयी। इसके पश्चात जरतौली का विद्रोह तो शांत हो गया, परंतु इसकी आग देर तक दहकती रही।
ग्वालियर की स्वतंत्रता समाप्त हो गयी
इस काल में इब्राहीम लोदी के लिए एक बड़ी उपलब्धि यह रही थी कि ग्वालियर के तोमर शासक पिछले लगभग सौ सवा सौ वर्षों से अपनी स्वतंत्रता को जिस प्रकार सुरक्षित बनाये रखने में सफलता प्राप्त करते आ रहे थे, वह समाप्त हो गयी। ग्वालियर को अपने साम्राज्य में मिलाने में इब्राहीम लोदी को 1518 ई. में सफलता प्राप्त हुई। यहां का शासक शमसाबाद के जागीरदार को बना दिया गया था। ग्वालियर का अंतिम तोमर शासक विक्रमादित्य था। यह शासक लोदी पक्ष से लड़ता हुआ बाबर के सैनिकों द्वारा कुरूक्षेत्र के मैदान में वीरगति को प्राप्त हो गया था।
इस प्रकार हिंदू स्वतंत्रता का एक सुदृढ़ स्तंभ टूट कर गिर गया। जिस ग्वालियर ने हिन्दू स्वाभिमान के लिए निरंतर सवा सौ वर्र्र्षो तक अथक संघर्ष किया, वह अब तिमिर तिरोहित होकर अस्ताचल के अंक में सदा के लिए समाहित हो गया। ग्वालियर जैसे दुर्ग से केसरिया पताका का हटना सचमुच भारत के दुर्भाग्य का क्षण था।
प्रांतीय मुस्लिम शासकों का भी किया गया सामना
इस काल में (1451 ई. से 1526 ई.) में हिंदुओं ने एकओर दिल्ली और आगरा के लोदी सुल्तानों से संघर्ष किया तो दूसरी ओर उन्होंने उत्तरी भारत में स्थापित अनेक प्रांतीय यथा जौनपुर, मालवा, गुजरात आदि मुस्लिम सुल्तान का सामना किया। लोदी सुल्तानों से संघर्ष करने वालों में ग्वालियर के तोमर, बघेलखण्ड के बघेल और मेवाड़ के सिसोदिया शासक प्रमुख थे। इसके अतिरिक्त दोआब व अवध प्रांत के अनेक हिन्दू सामंतों यथा भोगांव के राय प्रताप, शमसाबाद के रायकरन, इटावा के राय दाद व शक्ति सिंह (सारंग) आगरा के समीपवर्ती भदौरिया राजपूतों, अवध क्षेत्र के वत्स गोत्री राजपूतों एवं ग्वालियर के अधीन मदरायल (मंदरेल) धौलपुर व अवंतगढ़ के सामंतों ने भी लोदी सुल्तानों का सामना किया। अवध प्रांत के विभिन्न हिन्ंदू सामंतों के प्रतिरोध की एक विशेषता यह रही कि वे शर्की-लोदी संघर्ष का लाभ उठाकर कभी एक पक्ष का साथ देते तो कभी दूसरे पक्ष का। इन हिंदुओं ने उत्तरवर्ती तुगलक सुल्तानों के समय से प्रतिरोध की जो ध्वजा लहरायी थी, वह लोदी काल तक चलती रही। किंतु लोदी सुल्तानों की अग्रसर नीति के कारण हिंदू अपने प्रतिरोध को बनाये रखने में सफल नही हो सके। उनमें मेवाड़ के सिसोदिया शासक को छोडक़र शेष असफल ही रहे। लंबे संघर्ष के पश्चात बघेल भी शांत हो गये।
(संदर्भ : ‘सल्तनत काल में ंिहन्दू प्रतिरोध,’ पृष्ठ 518)
इब्राहीम के विरूद्घ बाबर को दिया गया निमंत्रण
इब्राहीम लोदी ने लगभग 9 वर्ष शासन किया। उसके शासन काल में काबुल से चलकर बाबर आया और यहां आकर इब्राहीम लोदी को हराकर उसने मुगलवंश की स्थापना की। इब्राहीम लोदी के विरूद्घ उस समय विद्रोहात्मक परिवेश था। यद्यपि उसने अपनी स्थिति 1526 ई. के आते-आते बहुत कुछ सुदृढ़ कर ली थी, परंतु उसके उपरांत भी उसके विद्रोहियों के मन-मस्तिष्क में विद्रोह का लावा धधकता रहा। जब बाबर ने हिन्दुस्थान की केन्द्रीय सत्ता से लडक़र हिन्दुस्थान लेने के लिए दिल्ली की ओर कूच किया तो उसे यहां कई लोगों ने दिल्ली के सुल्तान के विरूद्घ सहयोग प्रदान किया। अब सिकंदर महान का काल नही था कि केन्द्र तक पहुंचने से पूर्व सीमा से ही उसे उसके देश भगाने वाला ‘पोरस’ जीवित हों। इब्राहीम लोदी ने अपने स्वभाव के कारण अपने जिन शत्रुओं को उत्पन्न किया था, उनके हृदय में (अधिकांश असंतुष्ट मुस्लिम नवाबों, हाकिमों, सुल्तानों के हृदय में विशेषत:) देश के लिए तनिक भी प्रेम नही था, उन्हें अपने शत्रु को सत्ता से हटाकर उसे दुर्बल कर देना या मार देना ही अच्छा लग रहा था। इसके लिए बाबर के आक्रमण को उन लोगों ने उचित माना।
बाबर को बुलाने का कारण क्या था
बाबर के लिए यह शुभ संकेत था कि हिंदू शासक भी अपने प्रमुख शत्रु इब्राहीम का अंत कराने के दृष्टिकोण से बाबर को दिल्ली तक आने देना चाहते थे। उनकी सोच थी कि बाबर केवल लूटकर चला जाएगा, जिससे दिल्ली की सल्तनत का अंत हो जाएगा या वह दुर्बल हो जाएगा। उस स्थिति में दिल्ली के राज्यसिंहासन को प्राप्त कर वहां ‘भगवा ध्वज’ फहरा दिया जाएगा। इस सोच को भी बहुत अधिक उचित नही माना जा सकता। पी.एन. ओक महोदय, आर.सी. मजूमदार की पुस्तक ‘एन एडवांस्ड हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ के पृष्ठ 426 के अनुसार हमें बताते हैं कि-‘‘उस समय दिल्ली सल्तनत नाम मात्र को थी। अपने पुत्र दिलावर खां के प्रति दुव्र्यवहार के कारण इब्राहीम लोदी से असंतुष्ट पंजाब के सर्वाधिक शक्तिशाली दौलत खां तथा दिल्ली के सिंहासन पर आंख लगाये इब्राहीम लोदी के ही चाचा आलम खां ने तो यहां तक कर डाला कि बाबर को भारत पर आक्रमण करने का निमंत्रण ही दे दिया।’’
यह देशभक्ति नही थी
देशभक्त लोग कभी भी अपने देश पर आक्रमण करने के लिए किसी बाहरी शत्रु को नही बुलाया करते हैं, इसे वही लोग करते हैं, जिनका उस देश की माटी से और पूर्वजों से कोई आत्मिक संबंध नही होता है, जिसमें वह सामान्यत: निवास कर रहे हैं। यद्यपि यह ठीक है कि भारत में अधिकांश मुस्लिमों के पूर्वज हिन्दू रहे हैं, परंतु हिंदू से मुसलमान बनते ही इन लोगों की अपने पूर्वजों के प्रति निष्ठा बड़ी सहजता से परिवर्तित होती रही है। इतिहास के इस सच को भी हमें सदा ध्यान रखना चाहिए।
इब्राहीम चल दिया युद्घ के लिए
जब बाबर ने दिल्ली की ओर बढऩा आरंभ किया और उसके वेगवान आक्रमण की सूचना इब्राहीम लोदी को मिली तो वह आगरा से एक विशाल सेना लेकर बाबर की सेना का सामना करने के लिए चल दिया। उसे हो सकता हैतब सपने में भी ये विचार ना आया हो कि जिस आक्रमण का सामना करने तू जा रहा है वह तेरे जीवन का, तेरे वंश का और तेरी दिल्ली सल्तनत का किसी विदेशी आक्रांता से अंतिम युद्घ होगा। वह नही सोच पा रहा होगा कि इतिहास अब एक लंबी छलांग लगाने को तैयार है। सारा सामान एकत्र हो चुका है, बहुत सी आहुतियां लग चुकी हैं, और अब अंतिम आहुति का समय आ गया है।
हिंदुओं को क्या मिलने वाला था
‘अंतिम आहुति’ की बात इब्राहीम लोदी पर तो लागू होती थी पर यह अभी हिन्दुओं पर लागू नही होती थी। उनके लिए ‘अंतिम आहुति’ अभी बहुत दूर की बात थी, उनके यहां यज्ञ चल रहा था और यदि उन्हें बाबर के आक्रमण से कुछ मिलने वाला था तो केवल यह कि लगभग सवा तीन सौ वर्ष पुरानी सल्तनत (1206 से 1526 ई.) उखडक़र आज आने वाले सवा तीन सौ (1526 से 1857 ई तक) वर्षों के लिए उन्हें एक नयावंश मुगल वंश मिलने जा रहा था। जिससे वह इस समय पूर्णत: अनभिज्ञ थे। उनके ऊपर होने वाले अत्याचारों और अन्याय में कोई कमी आने वाली नही थी। अत: उनकी प्रतीक्षा की घडिय़ां अभी बहुत सारी थीं। उनके आंदोलन की सफलता का सूर्य अभी उदय होना नही चाह रहा था।
बाबर के पास पाने के लिए बहुत कुछ था
ऐसी परिस्थितियों में बाबर और उसकी सेना के पास पाने के लिए बहुत कुछ था। बाबर जिस समय अपने देश से चला था तो उसके पास कुछ भी नही था। सब कुछ खोकर बहुत कुछ पाने की चाह में बाबर स्वदेश से भारत की ओर चला था। उसे पता था कि भारत के पास अकूत संपदा है, ज्ञान विज्ञान है, आध्यात्मिक संपदा है अर्थात वह सब कुछ है जो एक समृद्घ और संपन्न, सुसभ्य और सुसंस्कृत राष्ट्र के पास होना अपेक्षित है। है नही, तो उसके पास पारस्परिक एकता नही है। विभिन्न सल्तनतों ने इस एकता को और भी खण्ड-खण्ड कर दिया है। क्योंकि उनके भीतर देशभक्ति नही है। हिंदुस्तान के बड़े भू-भाग पर इन सल्तनतों का राज्य है, उनकी हिन्दू प्रजा देशभक्त है, पर उसके पास तेरी तोपों का सामना करने के लिए अस्त्र शस्त्र नही है। उनके पास साहस है पर अस्त्रहीन साहस है। इसलिए तेरा मार्ग बहुत सरल है।
शिक्षाविहीन, विद्याविहीन और शस्त्रविहीन भारत
सुबुद्घ पाठकवृन्द! यहां हम स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि इस समय तक देश में पिछले 320 वर्षों में जिस सल्तनत का शासन रहा था, उसने भारतीयों की शस्त्र विद्या को भी लगभग प्राणहीन कर दिया था। हमारे लड़ाकू रणबांकुरे अपने देश को स्वतंत्र कराने के लिए असीम कष्ट झेल रहे थे, उन्हें जंगलों में छिप-छिपकर संघर्ष करना पड़ रहा था। जिससे उनकी शस्त्र निर्माण की विद्या भी स्वाभाविक रूप से प्रभावित हुई। अन्यथा हमारे प्राचीन ग्रंथों में शस्त्र विद्या के अचूक उपाय और विविधताएं लिखी थीं। जंगली जीवन में लौटे इन लोगों को शिक्षाविहीन, विद्याविहीन और शस्त्रविहीन होने के लिए अभिशप्त होना पड़ा। इस अभिशाप का एक इतिहास है जिसके रहस्य से पर्दा जानबूझकर नही उठाया गया है। इस अभिशाप ने हमारा बहुत अहित किया। सदियों तक जंगली जीवन जीने वाली जातियां या हिंदू लोग युगों तक संसार का बौद्घिक नेतृत्व करने की क्षमताओं से वंचित होते चले गये। जो केवल संसार के गुरू कहलाते थे उन्हें शनै:शनै: शिष्य बनने योग्य भी नही छोड़ा गया।
इतिहास को रहस्य खोलने दो
अत: यह कहना कि भारत के लोगों को शस्त्र निर्माण का ज्ञान नही था और वे बाबर की तोपों का सामना परंपरागत तलवारों से कर रहे थे कहीं तक ठीक हो सकता है, परंतु उन लोगों को इस स्थिति तक पहुंचाया किन परिस्थितियों ने? यह भी विचारणीय है। इतिहास तब तक अधूरा ही रहेगा, और रहता है जब तक कि वह प्रत्येक रहस्य का और प्रत्येक पहेली का उत्तर देने से बचता रहता है।
हम भूल जाते हैं, एकलव्य की साधना को
भारत के विषय में तनिक विचार करें, कि यह वह भारत था जहां उस एकलव्य की साधना सफल हुई थी जिसने भौंकते हुए कुत्ते के मुंह में इस प्रकार तीर भर दिये थे कि कुत्ता मरा नही, पर उसका भौंकना बंद हो गया। शब्द भेदी वाणों की विद्या भारत की देन थी जिसे विदेशी सीख ही नही पाये। पर इन सारी विद्याओं के लिए साधना की आवश्यकता होती है, जो अब भारतीयों को विषम परिस्थितियों के कारण मिल नही रही थी।
तुगलककालीन दो महान योगी
मुहम्मद तुगलक ने इब्नबतूता को ऐसे दो योगी दिखाये जो आकाश में उड़ सकते थे। दो योगियों में आपस में किसी बात पर अनबन हो गयी तो इब्नबतूता लिखता है कि तब एक योगी की खडग़ स्वत: ऊपर उठी और दूसरे योगी के सिर पर प्रहार करने लगी।
तुगलक ने दिखाई इब्नबतूता को भारतीयों की वीरता
इब्नबतूता ने भारतीयों की रोमांचकारी वीरता के विषय में लिखा है किउससे एकदिन मुहम्मद तुगलक ने पूछा कि तुम्हारे बादशाह के पास कितने गुलाम हैं? एक लाख बताये जाने पर तुगलक ने उसे अपने गुलामों की संख्या बड़े गर्व से डेढ़ लाख बतायी। जब इब्नबतूता ने अपने गुलामों की वफादारी के विषय में प्रशंसा की तो तुगलक ने भी अपने भारतीय हिंदू गुलामों की वफादारी का साक्षात प्रदर्शन कराना ही उचित समझा।
मुहम्मद तुगलक ने हाथ से ताली बजाई। उसकी ताली का संकेत पाकर तुरंत एकगुलाम उसके समक्ष आ उपस्थित हुआ। सुल्तान ने उसे कुछ संकेत किया, जिसे इब्नबतूता भी नही देख पाया था।
गुलाम ने संकेत पाते ही तुरंत वहां रखा एक खंजर उठाया और अपने पेट में घुसेड़ लिया। वह तत्क्षण ही मर गया। सुल्तान ने पुन: ताली बजाई। ताली सुनते ही दूसरा गुलाम आ उपस्थित हुआ। उसने मरे हुए गुलाम के शव को महल से नीचे फेंक दिया। सुल्तान मुहम्मद तुगलक ने इब्नबतूता से कहा-‘‘क्या ऐसे वफादार गुलाम भी तुुम्हारे बादशाह के पास हैं?’’
इब्नबतूता मौन हो गया।
इतिहास को झूमना चाहिए
ये स्थिति थी हमारे देश के वीरों की। जिसे देखकर गर्व भी गौरवान्वित होता था। समय के अनुसार उन वीरों को गुलाम बनना पड़ गया तो क्या इतिहास उनकी वीरता पर झूम नही सकता? उसे अवश्य झूमना चाहिए, क्योंकि इतिहास ऐसे वीरों पर झूमने के लिए ही बना करता है।
ह्वेनशांग ने लिखा था….
जिस भारत को लूटने के लिए और उस पर शासन करने के लिए बाबर आ उपस्थित हुआ था यह वह भारत था जिसके विषय में हवेनसांग ने लिखा था कि वह एक पर्वत (संभवत: भुवनेश्वर का हाथी गुफा वाला स्थान) पर गया जहां उसने एक असंख्यात गुफाएं देखीं जो चट्टानों को काटकर बनायी गयी थीं। वह लिखता है कि सबसे नीचे की मंजिल हाथी के आकार की थी। जिसमें एक हजार गुफाएं निर्मित की गयी थीं। हाथी की पीठ पर ऊपर की मंजिल में सिंहाकृति थी। जिस पर पांच सौ गुफाओं का निर्माण किया गया था। तीसरी मंजिल वृषभाकार थी। इस में दो सौ पचास गुफाएं निर्मित की गयी थीं। वह विलखता है कि अंत में शीर्षस्थ मंजिल पर पचास गुफाएं निर्मित की गयीं थीं, जो कि कबूतर के आकार की थीं। एक गुफा में एक भिक्षुक बड़ी सरलता से रहता था। विशेष बात यह थी कि प्रत्येक गुफा के सामने से स्वच्छ जल का स्रोत बहता था।
भारत को देखकर हो जाता है आश्चर्य को भी आश्चर्य
भारत को देखकर आश्चर्य को भी आश्चर्य होता है, और सबसे बड़ा आश्चर्य वो इतिहासकार और बुद्घिजीवी है। जिन्होंने भारत के प्रत्येक निर्माण को मुस्लिम काल, का मुस्लिम सुल्तानों या बादशाहों द्वारा कराया गया सिद्घ करने का प्रयास किया है।
महाराणा संग्राम सिंह था भारतीय पौरूष का नायक
आज पानीपत के मैदान में बाबर इसी गौरवपूर्ण विरासत को तार-तार करने के लिए आ खड़ा हुआ। पहले से ही जीर्ण शीर्ण स्थिति में खड़ा भारत का पौरूष बहुत कुछ टूटने पर भी अदम्य साहस के साथ ऊंचा मस्तक किये खड़ा था, वह झुकना, रूकना या गिरना नही जानता था। इसलिए वह भी चुनौती की चुनौती को समझ रहा था और उस चुनौती की चुनौती को समझने वालों का नेता इस बार दिल्ली का पृथ्वीराज चौहान न होकर मेवाड़ का अधिपति महाराणा सांगा था। दिल्ली भले ही ‘गोरी’ के हाथों में थी पर चित्तौड़ उस समय सबकी आशा का केन्द्र बन गयी थी और प्रत्येक देशभक्त हिन्दू महाराणा संग्राम सिंह में अपनी विजय, वैभव और वीरता का मुंह देख रहा था।
21 अप्रैल को हुआ भारी संघर्ष
जब इब्राहीम लोदी और बाबर की सेनाएं 12 अप्रैल को आमने सामने आ खड़ी हुईं तो दोनों वास्तविक युद्घ की प्रतीक्षा करने लगीं। कोई सी भी सेना युद्घ का प्रारंभ करने से बच रही थी। अंत में एकसप्ताह के पश्चात युद्घ प्रारंभ हो गया। 21 अप्रैल को वह घड़ी आ गयी, जिसने इतिहास की दिशा में ही परिवर्तन ला दिया। उस दिन युद्घ प्रात: काल से ही प्रारंभ हो गया। दोनों ओर की सेनाएं बड़े मनोयोग से युद्घ में उतरीं। परंतु दोपहर होते-होते इब्राहीम लोदी की सेना का मनोबल टूटने लगा। बाबर की सेना इब्राहीम की सेना पर भारी पड़ रही थी।
लोदी मारा गया और सल्तनत समाप्त हो गयी
बाबर की सेना एक लाख की थी जबकि इब्राहीम लोदी की सेना में 25000 सैनिक थे। इब्राहीम लोदी की सेना के 20,000 सैनिक और वह स्वयं इस युद्घ में मारा गया। उसके मारे जाते ही उसकी सेना भाग गयी और इस प्रकार दिल्ली सल्तनत का सूर्यास्त हो गया।
श्री पी.एन. ओक लिखते हैं-‘‘बाबर की विजय ने सुल्तानों की उस लंबी परपंरा पर पर्दा डाल दिया जिन्होंने 1206 से 1526 ई. तक दिल्ली या आगरे से शासन किया। यद्यपि वे विभिन्न प्रजातियों तथा अफगानिस्तान से लेकर पर्शिया, टर्की, अरब एवं एबीसीनिया तक के थे, पर इस्लाम के नाम पर गैर मुस्लिमों का संहार करने भय एवं क्रूरता प्रदर्शित कर सामूहिक धर्म परिवर्तन करने धन स्त्री लूटने मंदिरों को मस्जिदों में बदलने तथा गजनी, बुखारा तथा समरकंद के बाजारों में दास रूप में बेचने के लिए पुरूषों, स्त्रियों तथा बच्चों को ले जाने में सभी एक जैसे थे।’’
बाबर बढ़ा दिल्ली के राज्यसिंहासन की ओर
अब बाबर ने इतिहास अपनी मुष्टि (मुट्ठी) में बंद कर लिया था। वह हिन्दुस्तान के राज्यसिंहासन की ओर बढ़ रहा था, और इतिहास को बलात अपना अनुचर बनाकर उसकी अभिव्यक्ति पर कड़ा पहरा बैठाकर अपने ढंग से उसे बोलने के लिए बाध्य कर रहा था। बाबर के विषय में हम आगे लिखेंगे।
यहां हम इतना ही कहेंगे कि इतिहास जब किसी को उदास होकर देखता है तो धरती रोती है, जब वह रोने लगता है तो धरती की आत्मा चीख पड़ती है और जब इतिहास की आंखों से रक्त बहने लगता है तो उस समय तो मानवता ही धराशायी हो जाती है। बाबर को देखकर इतिहास उदास था, रो भी रहा था और उसकी आंखों में रक्त के आंसू भी थे तो क्या हुआ? ….आगे विचार करेंगे।
पानीपत ने इब्राहीम को विदा किया और बाबर को देश के सिंहासन की ओर बढऩे का मार्ग दे दिया।
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत