कहीं ऐसा न हो कि देशभक्ति की भावना ही ठग ली जाए
भारतीय सैनिक ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ पर अटूट विश्वास करते हैं। वे कहते हैं और जानते भी हैं कि उन्हें कर्म का अधिकार है, फल का नहीं। वे हमेशा चट्टान की तरह दृढ़ रहते हैं। मगर फिर भी अगर सैनिक को वह न दिया जाए, जिसका कि वह हकदार है, तो मायूसी पैदा होती ही हैज्एक बार स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था ‘अरे! मृत्यु जब अवश्यंभावी है, तो कीट पतंगों की तरह मरने के बजाय, वीरों की तरह मरना अच्छा है। इस अनित्य संसार में दो दिन अधिक जीवित रहकर भी क्या लाभ? जीर्ण-शीर्ण होकर मरने के बजाय वीरों की तरह दूसरों के कल्याण के लिए लडक़र उसी समय मर जाना क्या अच्छा नहीं?’ मुझे गर्व है अपने ऊपर कि मैं भी उस भारतीय सेना का हिस्सा रह चुका हूं जिसके कंधों पर पूरे देश की सुरक्षा का जिम्मा है। पूर्व सैनिक कहने वाले इस सत्य को नहीं जानते हैं कि सैनिक तो सैनिक ही रहता है। भारत माता अपनी उन्नति के लिए अपने श्रेष्ठ संतानों की बलि चाहती है। भारत वर्ष आज जिस तरक्की के रास्ते पर चल रहा है, उस रास्ते की रखवाली भारत के सैनिक नित्य आत्मविश्वास के साथ कर रहे हैं। यह भी कि इसमें हिमाचली गबरुओं की एक खास व अलग पहचान ही है। सैनिक ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ पर अटूट विश्वास करते हैं। वे कहते हैं और जानते भी हैं कि उन्हें कर्म का अधिकार है, फल का नहीं। वे हमेशा चट्टान की तरह दृढ़ रहते हैं। मगर फिर भी अगर सैनिक को वह न दिया जाए जिसका कि वह हकदार है, तो क्या किया जाए और क्या कहा जाए। सैनिक अपने किए गए काम का मेहनताना नहीं मांगता है, वह तो देश की सरकार तय करती है और देती है। सैनिक, जिसे देश पूर्व सैनिक कहता है, अगर मांगता है तो केवल इतना कि मुझे भी 58 वर्ष की आयु तक नौकरी करने दो, जिस तरह मेरे बाकी भाई कर रहे हैं। क्या देश की सरकार यह बताने का कष्ट करेगी कि मेरी इस मांग में क्या गलत है। सैनिक वह नहीं मांगता है जो उसे अपने कार्यरत के समय मिलता था। सेवानिवृत्त होने पर उसने कभी नहीं कहा मुझे मुफ्त में राशन दो। वह यह नहीं मांग करता है कि मेरी सियाचिन, कारगिल, सिक्किम, नागालैंड या जैसलमेर में की गई नौकरी के बदले आज कुछ अधिक धन दे दो। वह यह भी नहीं कहता है कि मैंने अपनी 15 की या 22 वर्ष की नौकरी के दौरान आधा समय या इससे अधिक जो अपने बीबी-बच्चों से अलग रहकर काम किया है, उसके बदले में मुझे कुछ ज्यादा पैसे दे दो। कोई सैनिक यह भी नहीं कहता कि सरकार हमें खिलाडिय़ों के बराबर पैसा दे। खिलाड़ी जिस देश का नाम अपनी खेल की वजह से रोशन करते हैं, उस देश के पहरेदार बड़ी शान से अपनी जान देश पर कुर्बान कर देते हैं और सरकार उनकी देह को तिरंगे में लपेट कर उसके घर पहुंचा देती है। फिर उस जिंदादिल इनसान के अंतिम संस्कार में कोई शिरकत करे या न करे, फर्क नहीं पड़ता। मीडिया भी एक बार अगर चाहे तो खबर दिखा देता है या लिख देता है। हां, अगर क्रिकेट मैच की बात हो तो रात-दिन टीवी पर वही खबर चली ही रहती है। हद तो तब हो गई जब नेता लोग शहादत को ही शर्मिंदा कर देते हैं। पता नहीं ये नेता सेना से क्या चाहते हैं। हर राजनीतिक दल सेना और सैनिकों की भावनाओं को चुनाव के दौरान भुनाते रहे हैं। भूचाल हो या कोई अन्य आपदा, क्या कभी सैनिकों ने अपनी पीठ दिखाई है। सरकारों की करनी और कथनी में बहुत फर्क है। समान-रैंक, समान पेंशन की बात सैनिक ऐसे ही नहीं कर रहे हैं। सैनिकों को 58 वर्ष तक सरकारी नौकरी दे दो फिर यह मांग ही नहीं उठेगी। नौजवान सेना देश को चाहिए मगर सैनिकों को कटोरा हाथ में लेकर भीख मांगने पर मजबूर मत कीजिए। भारत की सेना में डाक्टर हैं, अध्यापक हैं, वकील हैं, जज हैं, टेलीकॉम के लोग हैं, इंजीनियर हैं, यही नहीं, मोची, नाई, धोबी, रसोइए, वेटर, फिटर और ड्राइवर हैं। इसके अलावा अनुशासन को पालन करने वाले गबरू हैं। सेना को नौजवान रखो, उन्हें जब चाहो किसी दूसरे महकमे में तबदील कर दो। मैं यह भी जानता हूं कि यह काम इतना आसान नहीं है, जितना कि मैं लिख रहा हूं। तो हल क्या है? हल है कि समान रैंक-समान पेंशन मिलनी चाहिए। मजबूर होकर लिख रहा हूं कि जितना बड़ा नेता, उतना बड़ा झूठ बोल जाता है। गली-गली, गांव-गांव या शहर-शहर हड़तालें होती हैं। जातियां आरक्षण लेने के लिए कभी सडक़ें जाम कर रही हैं, तो कभी रेलगाडिय़ों की आवाजाही रोक रही हैं। क्या होगा अगर जिन्हें पूर्व सैनिक कहते हैं वे भी यह सब करना शुरू कर दें। भगवान करे ऐसा दिन कभी न आए। हिमाचल प्रदेश की शहादत को सरकारें भूल सकती हैं, प्रशासन भूल सकता है या कोई और भूल सकता है, मगर देश कभी नहीं भूल सकता है। जो इस छोटे से पहाड़ी व पथरीले प्रदेश के सैनिकों ने करके दिखाया है उसे हर देशवासी सलाम करता है। ऐसे में पूर्व सैनिकों को एक जायज मांग के लिए इस कद्र गुमराह क्यों किया जा रहा है? समान रैंक-समान पेंशन सरकार को जल्दी देनी चाहिए और उसके बाद अपने सैनिकों को 58 वर्ष तक सरकारी नौकरी अगर दे दे, तो कभी दोबारा समान रैंक-समान पेंशन की मांग नहीं उठेगी।