प्रथम विश्व युद्ध 1914-1919। ब्रिटिश जीत में सबसे बड़ा योगदान भारतीय सैनिकों का रहा. 1912 तक बहुत कम भारतीय ब्रिटिश सेना का हिस्सा थे. बहुत से जातिवादी नेताओं ने भारतीयों को सेना में भर्ती करवाया. यही नेता थे जो बाद में साइमन कमिशन के स्वागत में खड़े थे. प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटिश सेना में शामिल 62000 भारतीय मूल के सैनिक मोर्चे पर मारे गए इन 62000 सैनिकों का अंतिम संस्कार भी उनकी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार नहीं हुआ था। और 67000 सैनिक घायल हुए। बाद में लगभग 12000 घायल सैनिक भी मर गए। आधिकारिक आंकड़े के अनुसार ब्रिटिश सेना में शामिल 74187 भारतीय सैनिक मारे गए। इनकी सेना में भर्ती को किन नेताओं ने प्रोत्साहन दिया था उन्हें आप गूगल पर ढूंढ सकते हैं।
6 फरवरी, साल 1919 में ब्रिटिश सरकार ने इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में एक ‘रॉलेक्ट’ नामक बिल को पेश किया था। इस अधिनियम के अनुसार भारत की ब्रिटिश सरकार किसी भी व्यक्ति को देशद्रोह के शक के आधार पर गिरफ्तार कर सकती थी और उस व्यक्ति को बिना किसी जूरी के सामने पेश किए जेल में डाल सकती थी. इसके अलावा पुलिस दो साल तक बिना किसी भी जांच के, किसी भी व्यक्ति को हिरासत में भी रख सकती थी. इस अधिनियम ने भारत में हो रही राजनीतिक गतिविधियों को दबाने के लिए, ब्रिटिश सरकार को एक ताकत दे दी थी.
13 अप्रैल को अमृतसर के जलियांवाला बाग में कई संख्या में लोगों इक्ट्ठा हुए थे. इस दिन इस शहर में कर्फ्यू लगाया गया था लेकिन इस दिन बैसाखी का त्योहार भी था. जिसके कारण काफी संख्या में लोग अमृतसर के हरिमन्दिर साहिब यानी स्वर्ण मंदिर आए थे. जलियांवाला बाग, स्वर्ण मंदिर के करीब ही था. जिसमें से कुछ लोग अपने नेताओं की गिरफ्तारी के मुद्दे पर शांतिपूर्ण रूप से सभा करने के लिए एकत्र हुए थे.
डायर करीब 4 बजे अपने दफ्तर से करीब 150 सिपाहियों के साथ आया और लोगों को बिना कोई चेतावनी दिए अपने सिपाहियों को गोलियां चलाने के आदेश दे दिए और कुछ समय में ही इस बाग की जमीन का रंग लाल हो गया था.
इस घटना की जाँच के लिए 14 अक्टूबर 1919 को हन्टर कमीशन बिठाया गया। इसमें चार ब्रिटिश और तीन हिंदुस्तानी- पंडित जगतनारायण मुल्ला, सर चिमनलाल हरीलाल सेतलवाड़, सरदार साहिबज़ादा सुल्तान अहमद खान थे। जलियांवाला के बाद जनरल डायर की क्रूरता में कमी नहीं थी। अमृतसर में सैनिक शासन स्थापित कर दिया गया। बाग के पास की सड़क पर भारतीयों के लिए रेंग के जाने का नियम लगाया गया। 8 बजे के बाद कर्फ्यू लगा दिया जाता था। जनरल डायर ने स्वीकार किया कि यदि मशीन गन अंदर ले जाने की संभावना होती तो वह अवश्य उसे उपयोग करता।
जनरल डायर की मृत्यु सेरिब्रल हेमरेज से 1927 में हुई। तत्कालीन पंजाब के गवर्नर माइकल ओड्वायर का वध शहीद उधम सिंह ने 13 मार्च 1940 में की। ऐसी दुर्दांत घटना के बाद तत्कालीन पंजाब के गवर्नर माइकल ओड्वायर को स्वर्ण मंदिर में सम्मानित किया गया था। मृत्यु के बाद उसके परिवार को पंजाब से ही कुंज बिहारी थापर, उम्र हयात खान, चौधरी गज्जन सिंह और राय बहादुर लाल चंद की ओर से 1,75,000 रुपये दिए गए।
यहाँ कुछ नाम बहुत महत्वपूर्ण हैं। यदि पाठक इन पर ध्यान नहीं देंगे तो मेरा लिखना बेकार हो जाएगा। समय मिलने पर इनमे से प्रत्येक नाम की कहानी लिखुंगा।
1- पंडित जगतनारायण मुल्ला – प्रसिद्ध काकोरी क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल व अन्य 4 को मृत्युदण्ड दिलवाने में इनकी बहुत अधिक महत्वपूर्ण भूमिका थी। ये सरकारी वकील थे। इसके विपरीत आर्यसमाजी चन्द्र्भानु गुप्ता जी क्रांतिकारियों के वकील थे जिन्हें नेहरू ने छल से मुख्यमंत्री पद से हटा दिया था।
2- सर चिमनलाल हरीलाल सेतलवाड़- तीस्ता सीतलवाड़ इनकी पोती है इनके पुत्र और तीस्ता के पिता M C सीतलवाड़ नेहरू के बेहद विश्वसनीय 1950 से 1963 तक भारत के अटॉर्नी जनरल थे।
3- कुंज बिहारी थापर — कुंज बिहारी थापर के तीन बेटे थे दया राम, प्रेम नाथ तथा प्राण नाथ। इसके अलावा उन्हें पांच बेटियां भी थीं। पत्रकार करण थापर के पिता जनरल प्राण नाथ थापर एकमात्र ऐसे सेना प्रमुख थे जिन्होंने युद्ध हारा था। 1962 में चीन से लड़ाई हारने के कारण ही उन्हें 19 नवंबर 1962 को अपमानित होकर जबरन इस्तीफा देना पड़ा था। 1936 में प्राण नाथ थापर ने गौतम सहगल की बहन बिमला बशिराम सहगल से शादी की थी। वहीं 1944 में गौतम सहगल की नयनतारा सहगल से शादी हुई। नयनतारा सहगल जवाहरलाल नेहरू की बहन विजया लक्ष्मी की तीन बेटियों में से दूसरी बेटी थी।
4- सर शोभा सिंह — शोभा सिंह ही 8 अप्रैल 1929 को संसद में हुए बम विस्फोट के मुख्य गवाह थे। शोभा सिंह ने ही भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त की पहचान की थी। उन्हीं की पहचान और गवाही के आधार पर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दी गई थी। शोभा सिंह की वफादारी ब्रिटिश सरकार के प्रति वैसे ही थी जैसे कुंज बिहारी थापर की थी। इसी वजह से दोनों वंशजों को अकूत संपत्ति के साथ प्रतिष्ठा भी मिली। भारत के तत्कालिन वायसराय लॉर्ड हार्डिंग ने जैसे ही भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने की घोषणा की ब्रिटिश सरकार ने सुजान सिंह के साथ उन्हें भी लुटियंस दिल्ली बनाने का ठेका देकर पुरस्कृत किया। साउथ ब्लॉक, और वार मेमोरियल आर्क (अब इंडिया गेट) के लिए यही अशिक्षित सोभा सिंह एकमात्र बिल्डर थे। सोभा सिंह दिल्ली में जितनी जमीन खरीद सकते थे उतनी ख़रीदते गए ।2 रुपये प्रति गज़ के हिसाब से उन्होंने कई व्यापक साइटें खरीदीं और वो भी फ़्री होल्ड के रूप में..
उस समय उन्हें आधी दिल्ली दा मलिक (दिल्ली के आधे हिस्से का मालिक) कहा जाता था। उन्हें 1944 के बर्थडे ऑनर्स में सर की उपाधि से विभूषित किया गया था।
शोभा सिंह के छोटे भाई सरदार उज्जल सिंह सांसद बन गए जो बाद में पंजाब और तमिलनाडु के राज्यपाल भी बने।सर शोभा सिंह के चार बेटे थे भगवंत, खुशवंत, गुरबक्श और दलजीत और एक बेटी थी मोहिंदर कौर।
खुशवंत सिंह एक नामी पत्रकार और लेखक होने के साथ ही एक राजनीतिज्ञ थे। उन्होंने 1980 से 86 तक राज्य सभा के सदस्य व इंदिरा गांधी के आपातकाल के समर्थक खुले रूप से कांग्रेस के समर्थक थे। इसके एवज में उन्हें 1974 में पद्म-भूषण पुरस्कार से और 2007 में उनको दूसरे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म विभूषण से सम्मानित भी किया गया। इनके परिवार से थापर परिवार की रिश्तेदारी थी।
साभार प्रस्तुति : रमेश अग्रवाल, कोलकाता