मुक्ति में इच्छा लेने की, भक्ति में देने का भाव
बिखरे मोती-भाग 90
कर्म बदल सत्कर्म में,
जीवन के दिन चार।
पुण्य मुद्रा स्वर्ग की,
भर इसके भण्डार ।। 898 ।।
व्याख्या : हे मनुष्य! यह जीवन क्षणभंगुर है। जितना हो सके कर्मों को पुण्य में परिवर्तित कर क्योंकि स्वर्ग की मुद्रा पुण्य है। इसी के आधार पर तुझे स्वर्ग में प्रवेश मिलेगा। इसलिए समय रहते पुण्यों का संचय करो।
जोड़ा परा प्रकृति ने,
माया से संबंध।
इसलिए मरता जन्मता,
चौरासी का बंध ।। 899 ।।
परा प्रकृति अर्थात-जीवात्मा
व्याख्या : जीवात्मा से मूल में भूल यह हुई कि उसने भगवान की अपेक्षा माया (जगत) से संबंध जोड़ लिया और भगवान को विस्मृत कर दिया। इसलिए वह चौरासी लाख योनियों के बंधन में पड़ा है और बार-बार मरता और जन्मता है। अत: हे मनुष्य! परलोक सुधारना है और आवागमन के क्रम से मुक्त होना है तो संसार की अपेक्षा संसार के रचयिता के साथ सर्वदा अपने प्रगाढ़ संबंध बना।
मुक्ति से भक्ति श्रेष्ठ है,
छिपा समर्पण भाव।
मुक्ति में इच्छा लेने की,
भक्ति में देने का भाव ।। 900 ।।
व्याख्या : मुक्ति की अपेक्षा भक्ति की कामना श्रेष्ठ है, क्योंकि मुक्ति में वह स्वयं मुक्त होना चाहता है और भक्ति में भगवान के समर्पित होना चाहता है।
तात्पर्य यह है कि मुक्ति में लेने की इच्छा होती है जबकि भकित में देने की इच्छा रहती है। इसलिए मुक्ति में तो सूक्ष्म अहं रहता है, पर भक्ति में अहं बिल्कुल नही रहता है। अत: मुक्ति से भक्ति श्रेष्ठ है।
ज्ञान आय अभ्यास में,
तो शक्ति बन जाए।
प्रेम होय ऊध्र्वमुखी,
तो भक्ति बन जाए ।। 901 ।।
व्याख्या : ज्ञान यदि आचरण में उतरता है तो यह शक्ति बन जाता है। प्रेम यदि ऊध्र्व मुखी हो जाए अर्थात आत्मा का परमात्मा से अनुराग हो, तो यह प्रेम भक्ति कहलाती है। यदि प्रेम अधोमुखी हो जाए अर्थात व्यक्ति संसार की मोह माया में फंस जाये तो आसक्ति कहलाती है।
भ्रष्टाचार और अत्याचार के संदर्भ में :-
कठोरता की पीठ पै,
हो कोमलता सवार।
अवश्य ही मिट जाएगा।
जग से भ्रष्टाचार ।। 902 ।।
व्याख्या : गंभीरता से सोचिए, भ्रष्टाचार अथवा अत्याचार हम तभी करते हैं जब अंदर से क्रूर अथवा कठोर होते हैं। यदि हमारे हृदय में क्रूरता अथवा कठोरता के स्थान पर कोमलता आ जाए अर्थात उदारता, करूणा प्रेम का स्रोत प्रवाहित हो जाए तो जीवन के प्रति दृष्टिकोण ही बदल जाता है। फिर व्यक्ति को हर प्राणी में अपनापन दिखाई देता है, परमात्मा दिखाई देता है, वासुदेव: सर्वम् अथवा सर्व खल्विदं ब्रह्म का भाव उत्पन्न होता है।
अत: स्पष्ट हो गया कि जब तक हृदय में कोमलता रहेगी तो कठोरता स्वत: ही मिटेगी। प्राणी और परमपिता परमात्मा के प्रति अनन्यता जागेगी। इस भाव के आते ही हमारी आत्मा हमें अपनों पर अत्याचार और भ्रष्टाचार करने नही देगी। हे मनुष्य! तुझे सिर्फ इतनी सी बात समझने की जरूरत है।
क्रमश: