तनु-भाव में जो रम गया, उसे मिलै हरि का देश
बिखरे मोती-भाग 99
ऋजुता का जीना सदा,
राखै हरि समीप।
एक कुटिलता के कारनै,
बुझै ज्ञान का दीप ।।931।।
व्याख्या :-
ऋजुता से अभिप्राय है कि सरलता अर्थात हृदय का कुटिलता रहित होना। जिनका हृदय ऋजुता से ओत-प्रोत होता है उन्हें प्रभु का सानिध्य प्राप्त होता है। वे प्रभु-कृपा के पात्र होते हैं, किंतु हृदय में कुटिलता का कांटा अर्थात छल, कपट, चालाकी, झूठ, फरेब, ईष्र्या, द्वेष, घृणा और अहंकार के कारण मनुष्य की बुद्घि भ्रष्ट हो जाती है, जिसके कारण विकास विनाश में बदल जाता है। यहां तक कि सर्वस्व नष्ट हो जाता है, परलोक तक बिगड़ जाता है।
अत: मनुष्य को अपने हृदय में कुटिलता के कांटों को भावरूप में ही मसल देना चाहिए और ऋजुता के साथ जीवन जीना चाहिए , ताकि प्रभु-कृपा की क्षत्रछाया बनी रहे और इस लोक के साथ-साथ परलोक का भी कल्याण हो।
योगी जियै तनु भाव में,
गृहस्थी राग और द्वेेष।
तनु-भाव में जो रम गया,
उसे मिलै हरि का देश ।। 932।।
व्याख्या :-
इस संसार में कोई बिरला ही ऐसा पहुंचा हुआ संत अथवा योगी होता है जो जीवन को तनु-भाव में जीता है, अन्यथा सांसारिक लोग तो अपने जीवन को राग और द्वेष में ही व्यतीत कर देते हैं, जैसे गिंडार जितना फैलती है उतना ही सिकुड़ती है, जबकि योगी पांचों क्लेशों अस्मिता, अविद्या, राग, द्वेष और मृत्यु से विछिन्न होकर जीवन जीता है, अर्थात पांचों क्लेशों से प्रभावशून्य होता है। उन्हें शरीर (भावभंगिमा) अथवा आचरण में कहीं लक्षित प्रकट नही होने देता है। पांचों क्लेशों के ऊपर ऐसे सवार होता है जैसे जल पर जलमुर्गी सवार होती है। अब प्रश्न पैदा होता है कि पांचों क्लेशों से विछिन्न कैसे हो सकते हंै? इसका उत्तर है-जैसे पत्नी अथवा पुत्र से प्रेम रहे तो हम द्वेषयुक्त हो जाते हैं, और यदि इनके साथ झगड़ा हो जाए तो हम रागमुक्त हो जाते हैं।
पांचों क्लेशों से मुक्ति को ही गीता में निर्बीज समाधि कहा गया है, तथा इसी अवस्था को तनु-भाव कहा गया है। इतनी ऊंची अवस्था का कोई बिरला योगी ही प्राप्त होता है। ऐसे योगी ही हरि के देश को प्राप्त होते हैं,भगवद धाम को प्राप्त होते हैं, जीवन मुक्त होते हैं, मोक्ष को प्राप्त होते हैं।
मत खो स्वाभिमान को,
करना नही अभिमान।
अभिमान गिरा देत है,
रक्षक स्वाभिमान ।। 933।।
व्याख्या :-
प्राय: देखा जाता है कि मनुष्य थोड़ी सी परेशानी आते ही स्वार्थ सिद्घि के लिए गिड़गिड़ाने लगता है और अपना स्वाभिमान गिरा देता है। इसकेे अतिरिक्त इस संसार में ऐसे भी लोग हैं जिन्हें पद, पैसा ज्ञान के आधार पर यदि बड़प्पन मिल जाए तो अभिमान के कारण फूलकर कुप्पा हो जाते हैं। ये दोनों ही स्थिति आत्मघाती होती हैं।
स्वाभिमान जाने पर व्यक्ति के व्यक्तित्व की चमक खत्म हो जाती है और अभिमानी होने पर व्यक्ति का यश अपयश में परिणत होने लगता है। वह लोगों की नजरों में गिर जाता है। प्रभु प्रदत्त विभूति विलक्षणता वापिस चली जाती है। इसलिए विवेकशील व्यक्ति वही है जो प्रभुता पाने पर इतराये नही, विनम्र रहे, अभिमान न करे तथा संकट आने पर अपने स्वाभिमान की रक्षा करे, उसको अक्षुण्ण रखे। ध्यान रहे, स्वाभिमान व्यक्ति के व्यक्तित्व का मोती है। इसकी रक्षा हर अवस्था में करनी चाहिए।
क्रमश: