मथुरा नरेश कुलचंद का वो अप्रितम बलिदान
बात सन 986-987 की है। भारत पर उस समय आक्रमण करने की एक श्रंखला को महमूद गजनवी अभी आरंभ कर नही पाया था। तब प्रतीहार वंश भारत में पतनोन्मुख हो चला था, यद्यपि यह वंश भारत के लिए बहुत ही गौरव प्रदान कराने वाला रहा था। ऐसा गौरव जिसे देखकर इतिहासकारों की मान्यता बनी कि जितनी देर (150 वर्षों तक) गुर्जर प्रतीहार राजवंश भारत को एक रख सका और जितना विस्तार उसके साम्राज्य का तत्कालीन भारत में हुआ उतना उनसे पूर्व में अपने साम्राज्य का विस्तार कभी मौर्यों ने किया था। जिनका साम्राज्य प्रतीहार वंश से थोड़ा विस्तृत था। डा. विशुद्घानंद पाठक अपनी पुस्तक ‘उत्तर भारत का राजनीतिक इतिहास’ में लिखते हैं-‘‘अपने सर्वाधिक उत्कर्ष और विस्तार के समय केवल मौर्यों का साम्राज्य प्रतीहारों से बड़ा था, लेकिन उसका जीवन प्रतीहार साम्राज्य के 150 वर्षों के मुकाबले एक सौ वर्षों से भी कम (321-232 ई. पू.) का था। लगभग इतना ही जीवन (350-467 ई. पू.) गुप्त साम्राज्य का भी था, किंतु वह अपने अन्यतम विस्तार के समय भी भोज महेन्द्रपाल के साम्राज्य विस्तार से छोटा ही था। हर्ष का साम्राज्य प्रतीहारों जैसा न तो विस्तृत था, न दीर्घकालीन और न प्रशासन में ही उतना सुसंगठित था। दीर्घजीवन में भारतवर्ष का यदि कोई अन्य साम्राज्य प्रतीहार साम्राज्य का सामना कर सका तो वह मुगल साम्राज्य था।’’
महान गुर्जर प्रतीहार वंश
इतना महत्वपूर्ण और गौरव प्रदाता गुर्जर प्रतीहार राजवंश जब पतन की ओर जाते हुए अपने अस्ताचल के अंक में कहीं समाहित होना चाह रहा था तो उस समय इस राजवंश का शासक राज्यपाल यहां शासन कर रहा था। मुस्लिम इतिहास फिरिश्ता ने इस गुर्जर प्रतीहार शासक के विषय में बड़े पते की बात कही है। यद्यपि इस बात को अन्य साक्षियों से प्रमाणित न होने के कारण कुछ इतिहासकारों ने निर्मूल्य सिद्घ करने का प्रयास किया है। परंतु ध्यान देने योग्य बात ये है कि फिरिश्ता की बात को यदि कोई अन्य कोई मुस्लिम इतिहासकार दोहरा नही रहा है तो कहीं नकार भी तो नही रहा। घटना का पुन: न दोहराना किसी पूर्वाग्रह का परिणाम भी हो सकता है या भारतीयों को विशेष महत्व प्रदान न करने की विदेशी मुस्लिम इतिहासकारों की परंपरागत शैली भी हो सकती है।
फिरिश्ता कहता है-‘‘जब कुर्रम घाटी में शाही राजा जयपाल और महमूद की सेनाओं की मुठभेड़ हुई तो राजा जयपाल की सहायता में पास पड़ोस के विशेषत: दिल्ली, अजमेर, कालंजर और कन्नौज के राजाओं ने सेनाएं और रूपये पैसे भेजे थे। उनकी सेनाएं पंजाब में एकत्र हुईं और उनकी संख्या एक लाख तक पहुंच गयी। फिरिश्ता आगे लिखता है कि जब 1008 ई. में महमूद ने जयपाल के पुत्र आनंदपाल पर पंजाब में चढ़ाई की तो पुन: कन्नौज के राजा ने उसकी सहायता में एक बड़ी भारी सेना भेजी और उसके उदाहरण पर उज्जैन, कालंजर, दिल्ली और अजमेर के राजाओं ने भी सेनाएं भेजीं।’’
संघ बनाने की परंपरा
यह थी हमारी संघ बना बनाकर लडऩे की परंपरा। जो हमें विदेशी आतताईयों के विरूद्घ एक होने के लिए प्रेरित करती थी। कई बार तो हमें ऐसी अनुभूति होती है कि हमारे देशी राजा अपने किसी ऐसे देशी राजा की सहायता करने से तो बचते थे जिसके विषय में वो आश्वस्त होते थे कि वह तो विदेशी आक्रांता को परास्त कर ही देगा। परंतु जहां कहीं उन्हें तनिक सा भी संदेह होता था कि आक्रांत राजा कुछ दुर्बल है तो वहां सैन्य और आर्थिक सहायता भेजने में देरी नही होती थी। इसे आप भारतीय राजाओं का राष्ट्रप्रेम कहेंगे या राष्ट्रद्रोह?
निश्चित रूप से यह राष्ट्रप्रेम था और इसी राष्ट्रप्रेम के कारण चाहे हमारे देशी राजाओं ने गुर्जर प्रतीहार वंश के प्रतापी शासकों की कभी कोई सहायता ना की हो, परंतु जब उसी वंश के दुर्बल शासक को सहायता देने की बात आयी तो उस समय कई राजाओं ने अपने राष्ट्रप्रेम का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया। इस उदाहरण का उल्लेख यदि केवल फिरिश्ता तो करता है पर अन्य कोई मुस्लिम लेखक नही करता, मात्र इसी आधार पर निर्मूल नही माना जा सकता। आपके अच्छे कार्य का उल्लेख हर शत्रु लेखक नही कर सकता।
राजाओं का अनुकरणीय कृत्य
भारत के तत्कालीन स्वतंत्रता संघर्ष को जारी रखने के लिए हमारे राजाओं ने अनुकरणीय कृत्य किया और उसकी साक्षी यदि हमें फिरिश्ता ही देता है तो उसे ही स्वीकरणीय माना जाना चाहिए। साथ ही यह भी खोजा जाना चाहिए कि उस युद्घ में भारत के कितने लाल मां भारती की सेवा में बलिदान हुए? परिणाम चाहे जो रहा हो, बात बलिदानी परंपरा के माध्यम से स्वतंत्रता की लौ जलाये रखने की उदात्त राष्ट्रप्रेमी भावना को समझने की है कि विषम परिस्थितियों में भी हमने निज प्राणों को ज्योति की बाती बनाकर और उसमें अपनी ‘शहादत’ का रक्त रूपी तेल डालकर उसे सजीव रखा है, जलाये रखा है, बुझने नही दिया है। अत: यदि उस युद्घ के लिए एक लाख हिंदू वीर काम आये तो उन्हें संयुक्त रूप से सम्माननीय स्मारक मानना हमारा राष्ट्रीय दायित्व है।
मथुरा का राजा कुलचंद
जब महमूद गजनवी भारत में अपना आतंकपूर्ण इतिहास लिख रहा था और अपनी क्रूरता से विश्व की इस प्राचीनतम संस्कृति के धनी देश की संस्कृति को मिटाने का हर संभव कार्य कर रहा था, उस समय इस देश को सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से समृद्घ करने में अग्रणी रहे मथुरा पर कुलचंद नामक वीर कुल शिरोमणि शासक शासन कर रहा था।
2 दिसंबर 1018 को महमूद गजनवी का आतंकी और आक्रांता सैन्य दल बरन (बुलंदशहर) पहुंचा था। उसके सैन्यदल में तीस हजार सैनिक थे। कहा जाता है कि बरन का तत्कालीन शासक हरदत्त महमूद के आतंकी दल का सामना नही कर सका, इसलिए उसने धर्म परिवर्तन कर लिया। राजा हरदत्त की यह बात पड़ोसी शासक मथुरा के राजा कुलचंद को और देश की जनता को अच्छी नही लगी। इसलिए कुलचंद ने भारत की वीर कुलपरंपरा का परिचय देने का निर्णय लिया।
इधर महमूद गजनवी का अहंकार बरन की सफलता से और भी अधिक बढ़ गया था। वह एक तूफान की भांति विनाश मचाता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था। उसका भी अगला निशाना मथुरा ही बन रहा था, जहां का राजा कुलचंद अपने राज दरबारियों तथा सेनापतियों के साथ मिलकर इस विदेशी आक्रांता का सामना करने का निर्णय ले चुका था।
मथुरा का गौरवपूर्ण अतीत
मथुरा प्राचीनकाल से अपने वैशिष्टय के लिए प्रसिद्घ रही है। इसके नाम की उत्पत्ति संस्कृति के ‘मधुर’ शब्द से हुई बतायी जाती है। यह भी माना जाता है कि रामायण काल में इस नगरी का नाम मधुपुर था। कभी यह मधुदानव नामक दानव के लडक़े लवणासुर की राजधानी भी रही थी। लवणासुर के अत्याचारों से त्राहिमाम् कर रही जनता ने अयोध्यापति भगवान राम से सहायता की याचना की तो भगवान राम ने अपने भाई शत्रुघ्न को लवणासुर का प्राणान्त करने के लिए भेजा। शत्रुघ्न अपने लक्ष्य में सफल मनोरथ होकर लौटे। द्वापर युग में यहां कंस ने अत्याचारों की कहर बरपा की, तो जैसे लवणासुर का अंत शत्रुघ्न ने रामायण काल में किया था, वैसे ही महाभारत काल में कंस का अंत कृष्ण ने किया था। तब उन्होंने महाराजा उग्रसेन को पुन: राज्यसिंहासन पर बैठाकर धर्म की स्थापना की।
महाभारत काल में मथुरा शूरसेन प्रांत के नाम से विख्यात थी। महात्मा बुद्घ के समय यहां राजा अवन्तिपुत्र का शासन था, जिनके काल में महात्मा बुद्घ ने भी इस नगरी में पदार्पण किया था। चंद्रगुप्त मौर्य के काल में मेगास्थनीज नामक यूनानी यात्री भारत आया था, उसने इस नगरी का नाम अपने संस्मरणों में मथोरा लिखा था। बौद्घ जैन ग्रंथों में भी इस नगरी का विशेष उल्लेख हमें मिलता है। जैन साहित्य में मथुरा को बारह योजन लंबी तथा नौ योजन चौड़ी बतलाया गया है। यहां लगभग तीन सौ वर्ष तक कुषाण वंश का शासन रहा। जिसमें इस नगरी का सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व बढ़ा। गुप्तकाल में इसकी और भी अधिक उन्नति हुई। यहां मंदिरों का इस काल में भरपूर विकास हुआ। पर हूणों के आक्रमण से इस नगरी को भारी क्षति हुई थी। इसका उल्लेख चीनी यात्री फाहियान के द्वारा लिखित संस्मरणों से हमें मिलता है।
इस प्रकार मथुरा जैसी सांस्कृतिक और धार्मिक नगरी की ओर महमूद का बढऩा सचमुच इतिहास की एक रोमांचकारी घटना है। मानो महमूद एक नगर की ओर नही बल्कि इस देश की सांस्कृतिक और धार्मिक अस्मिता की प्रतीक एक महान ऐतिहासिक धरोहर को ही मिटाने के लिए आगे बढ़ता जा रहा था।
कुलचंद जानता था अपना राष्ट्रधर्म
तब पराधीनता के गहराते अंधकार को चीरकर प्रकाश का परचम फहराना कुलचंद के लिए आवश्यक था। सौभाग्य की बात थी कि राजा कुलचंद यह जानता था कि वह किस ऐतिहासिक धरोहर का इस समय संरक्षक है और इस विषम से विषम परिस्थिति में उसका राष्ट्र धर्म या राष्ट्रीय दायित्व क्या है?
अंत में वह घड़ी आ गयी और विदेशी आक्रांता से धर्मरक्षक राजा कुलचंद की मुठभेड़ हो ही गयी। बड़ा भयंकर युद्घ हुआ था। राजा की बड़ी सेना राष्ट्रवेदी पर बलि हुई थी। राजा बड़ी वीरता से लड़ा। उसके साथ उसकी रानी भी युद्घक्षेत्र में युद्घरत थी। राजा को इसलिए पीछे की कोई चिंता नही थी कि मैं यदि बलिदान हो गया तो रानी का क्या होगा? कहीं वह आक्रांता के हाथ तो नही आ जाएगी? लगता है दोनों पति-पत्नी पहले से ही मन बनाकर आये थे कि युद्घ का परिणाम यदि हमारे प्रतिकूल गया तो क्या करना है और कैसे करना है? राजा अपने बलिदान के पीछे किसी प्रकार का जोखिम अपनी रानी के लिए छोडऩा नही चाहता था और रानी भी इसके लिए तैयार नही थी कि राजा के जाने के पश्चात अपना सतीत्व और धर्म किसी विदेशी को सौंपना पड़े। इसलिए देश के धर्म के लिए और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए दोनों प्राणपण से संघर्ष करते रहें।
राजा कुलचंद ने जब देखा कि अब अधिकांश सेना स्वतंत्रता की वेदी पर निज प्राणों का उत्सर्ग कर चुकी है और अब कभी भी वह स्वयं भी शत्रु के हाथों या तो मारे जा सकते हैं या कैद किये जा सकते हैं, इसलिए उन्होंने राजा हरिदत्त का अनुकरण करने से उत्तम अपना और अपनी रानी का प्राणांत निज हाथों से ही करना उचित और श्रेयस्कर माना।
किया सर्वोत्कृष्टबलिदान
राजा ने अपनी ही तलवार से अपनी रानी और अपना प्राणांत कर मां भारती की सेवा में दो पुष्प चढ़ा दिये।
ये दो पुष्प कहां गिरे या कहां और कौन से स्थान पर मां के लिए चढ़े, किसी इतिहासकार ने आज तक खोजने का प्रयास नही किया? इतिहास के इस क्रूर मौन से पता नही कब पर्दा हटेगा? कुछ भी हो, पाठकवृन्द! हम और आप तो आइए, इन बलिदानियों पर अपने श्रद्घा पुष्प चढ़ा ही दें। आज राष्ट्र के लिए और आने वाली पीढिय़ों के लिए यही उचित है।