ओ३म्
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पं. लोकनाथ तर्कवाचस्पति जी मूलतः सिंध प्रान्त के निवासी थे, परन्तु आपका प्रचार क्षेत्र पंजाब रहा। आप आर्य प्रादेशिक सभा पंजाब के उपदेशक भी रहे। वह अद्वितीय व्याख्याता, तर्कनिष्णात शास्त्रार्थ महारथी तथा कर्मकाण्ड प्रेमी भावुक विद्वान् थे। आपने पौराणिकों तथा अन्य विधर्मी विद्वानों से अनेक शास्त्रार्थ किये। पौराणिक आस्थाओं पर इनके प्रहार बड़े तीखे एवं तिलमिला देने वाले होते थे। डा. भवानीलाल भारत जी ने लिखा है कि ‘पं. लोकनाथ जी को प्रसिद्ध पौराणिक विद्वान् पं. माधवाचार्य तथा पं. अखिलानन्द शर्मा से शास्त्रार्थ करते नवम्बर, 1953 में डीडवाना (राजस्थान) में देखा था। उनका स्वाध्याय कितना गूढ़, शास्त्रार्थ शैली कितनी रोचक और प्रभावपूर्ण थी, यह देखते ही बनता था।‘ उक्त शास्त्रार्थ में माधवाचार्य ने मृतक श्राद्ध को वैदिक तथा ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों को अवैदिक सिद्ध करना चाहा परन्तु पं. लोकनाथ जी के तर्कपूर्ण प्रश्नोत्तर से विपक्षी पण्डित के छक्के छूट गये। एक बार तो संस्कारविधि के श्राद्ध प्रकरण में उल्लिखित सव्य-अपसव्य प्रकरण के विषय में पं. माधवाचार्य के गलत बयानी करने पर पं. लोकनाथजी ने उसे जिस प्रकार ललकार कर चुनौती दी, उससे पं. माधवाचार्य का चेहरा फक्क हो गया तथा उपस्थित जनता को पौराणिक मत की निर्बलता स्पष्ट रूप से मालूम हो गई।
पं. लोकनाथ केवल शास्त्रार्थ समर के शूरसेनापति ही नहीं थे, उन्होंने आर्यजीवन पद्धति को अपने व्यक्तिगत जीवन में साकार रूप में ढाला था। अपने प्रवचनों में वे सन्ध्या, स्वाध्याय, सत्संग, संस्कार आदि पंचसकारों के क्रियात्मक आचरण पर जोर देते थे। उनकी कथनी और करनी में कोई अन्तर नहीं था। उन्होंने ‘भक्त गीता’ नामक पुस्तक लिखी है जिसमें आर्यों के दैनन्दिन कर्मकाण्ड का संग्रह किया है। ऋषि दयानन्द के प्रति उनकी भक्ति प्र्रगाढ़ थी। ‘ऋषि चालीसा’ लिख कर उन्होंने महर्षि को अपनी काव्यपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित की थी। ‘पूजनीय प्रभो हमारे भाव उज्जवल कीजिए’ यज्ञ-प्रार्थना उनकी प्रसिद्ध काव्य रचना है जो आज आर्यसमाज में सर्वत्र प्रचलित हो गई है। सभी याज्ञिक यज्ञ के पश्चात इस प्रार्थना का समवेत स्वरों से उच्चारण व पाठ करते हैं। आर्यसमाज लाहौर छावनी में उनका एक शास्त्रार्थ पौराणिकों से हुआ था।
देश विभाजन से पूर्व पं. लोकनाथजी का कार्यक्षेत्र पंजाब, सिंध तथा सीमाप्रान्त रहा, परन्तु विभाजन के पश्चात् आपने दिल्ली के दीवान हाल आर्यसमाज को अपना केन्द्र बनाया था। सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी देशभक्त अमर शहीद सरदार भगतसिंह का यज्ञोपवीत संस्कार पं. लोकनाथ जी के करकमलों से ही हुआ था। 1957 ई. में आपका स्वर्गवास हो गया। यह भी बता दें कि 13 जनवरी, 1949 को जन्मे अन्तरिक्ष यात्री विंग कमाण्डर राकेश शर्मा पं. लोकनाथ तर्कवाचस्पति जी के पौत्र हैं। वह दिनांक 3-4-1984 को सोवियत रूस के अन्तरिक्ष यान सोयूज टी-11 में अन्तरिक्ष में गये थे और 7 दिनों तक अन्तरिक्ष में रहे थे। शर्मा जी दिल्ली में रहते हैं तथा आर्यसमाज के सत्संगों में प्रायः आते जाते हैं।
हमने इस लेख की सामग्री डा. भवानीलाल भारतीय जी की पुस्तक शास्त्रार्थ महारथी से लेकर साभार प्रस्तुत की है। हम पं. लोकनाथ तर्कवाचस्पति जी को सश्रद्ध नमन करते हैं। ओ३म् शम्।
-प्रस्तुतकर्ता मनमोहन कुमार आर्य