गतांक से आगे…….
भारत सरकार की नजरें विदेशी मुद्रा के लिए जब देश की मूल्यवान वस्तुओं की ओर जाने लगी, तब सबसे पहली नजर भारत के पशुधन पर पहुंची। तत्कालीन सरकारों को प्रशासन में बैठे कसाईयों ने एक ही सुझाव दिया कि मांस का निर्यात कर सरकार करोड़ों डॉलर कमा सकती है। तब से न तो सरकार की नीति बदली है और नही नियति बदली है। मांस का प्रवाह निर्यात के रूप में जारी है और डॉलरों का प्रवाह भारतभूमि की ओर आ रहा है। पशु चीखते हैं, लेकिन लगता है रूपयों की झनकार में सरकार सब कुछ भूल जाती है। पशुओं को कत्ल करने वालों की संख्या 1947 में केवल साठ हजार थी, लेकिन आज वह बढक़र पांच करोड़ के आसपास पहुंच गयी है। वह भी इस स्थिति में जबकि सभी कत्लखानों में आधुनिक मशीनें लग चुकी हैं और उनमें काम करने वालों की संख्या सौ से अधिक नही होती। मुंबई पुलिस विभाग की जानकारी के अनुसार, सन 1995 तक देश में 36000 स्लाटर हाउस थे। 5 कत्लखाने अत्यंत आधुनिक मशीनों से लैस और 24 एक्सपोर्ट ऑरिएंटेड इकाईयां हैं। पिछले दस साल में आधुनिक कत्लखानों की संख्या 5 से बढक़र पच्चीस हो गयी। कानूनी रूप से कितने बूचड़खाने हैं, इसकी कोई संख्या नही बताई जा सकती है। अवैध कटाई के कारण बीमार पशु भी इस हिंसा के शिकार हो जाते हैं । न तो कोई उनकी आयु देखने वाला है और न ही शारीरिक स्थिति। सरकार को इस अवैध कटाई से लाखों की आय भी प्राप्त नही होती। लेकिन इसे बचाना और उस पर अंकुश रखना कठिन काम है। देश में इन पशुओं की कत्ल दर क्या है, इसे सुनकर आप स्तब्ध रह जाएंगे। गोवंश 1.45 प्रतिशत भैंस और पाड़ा 3.45 प्रतिशत भेड़ 32.5 प्रतिशत और बकरे बकरियां 35.45 प्रतिशत।
अलकबीर एक्सपोर्टस लिमिटेड की चर्चा बहुत कुछ हो चुकी है। उसके नाम से ऐसा लगता है कि मानो वह अल्पसंख्यक समाज से अधिक है। उनमें से कुछ तो उन पंथों से संबंधित हैं, जो मांस काटना तो बहुत दूर उसका नाम लेने से भी परहेज करते हैं, लेकिन धन कुबेरों का न तो कोई धर्म और कोई जाति होती है। उनका यह खूनी खेल 1950 में मुंबई के निकट भिवंडी से शुरू हुआ था, लेकिन इसके घोर विरोध से कंपनी के होश उड़ गये।
क्रमश:
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